संवाद
'शक्ति की पूजा'
ट्रेनी आईएएस पूजा खेड़कर के विवाद ने एक मूल प्रश्न खड़ा किया है कि 'क्या शक्ति(पावर)पुरुष के हाथ में आए या महिला के हाथ में ; दोनों को समान रूप से भ्रष्ट कर देती है?'
राजनीति में या अन्य विभागों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के पीछे यह उम्मीद थी कि स्वभाव से ही शांत और सभ्य रहने वाली नारी जाति पद की जिम्मेदारी समझेंगी और उसका बेहतर सदुपयोग करेंगी। लेकिन पूजा खेड़कर के उदाहरण ने चिंतकों को विशेष चिंता में इसलिए डाल दिया कि पद पर पहुंचने के लिए भी भ्रष्ट उपायों का सहारा लेने में महिलाएं पुरुषों से बराबरी करने लगी हैं। और पद पर पहुंचने के बाद तो दोनों के स्वभाव और व्यवहार एक समान दिखाई दे रहे हैं।
आखिर शक्ति में ऐसा क्या है और क्यूं है कि पद पर पहुंचने के बाद जनकल्याण के बदले इससे अहंकार व भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है?
शक्ति के बारे में भारतीय संस्कृति की दृष्टि यह है कि शिव (कल्याण) उसका स्वामी हो। सरल शब्दों में कहें तो शिव के मार्गदर्शन में शक्ति को चलना चाहिए।
लेकिन यह तभी संभव है जब आप यह जानें की शक्ति के दो भेद हैं -आंतरिक-शक्ति और बाहरी-शक्ति; और इनके भेद को समझें।
जो शक्ति आत्मा से आती है और जिसके लिए आप दूसरों पर निर्भर नहीं है, वह आत्मशक्ति आंतरिक-शक्ति कहलाती है।
परंतु जो शक्ति धन से, पद से या अन्य साधनों से आती है,वह बाहरी-शक्ति कहलाती है। उसके लिए आप दूसरों पर निर्भर है। यदि धन छिन जाए या पद छिन जाए तो आप शक्तिहीन हो जाते हैं। धन,पद मिल जाने पर इसकी रक्षा के लिए और इसको ज्यादा पाने के लिए व्यक्ति तत्पर हो जाता है। इसी कारण से पद पर बने रहने के लिए हर प्रकार के समझौते किए जाते हैं और किसी भी स्थिति में और किसी भी उम्र में कोई पद छोड़ना नहीं चाहता। क्योंकि धन,पद के न होने पर व्यक्ति नाकुछ हो जाता है।
किंतु जो आत्मशक्ति से परिचित हो जाते हैं, वे पद की शक्ति को जिम्मेदारी के भाव से लेते हैं। क्योंकि उनकी आत्मा किसी भी गलत कदम के पहले उन्हें टोक देती है-
'टोक देता है कदम जब भी गलत उठता है
ऐसा लगता है कि कोई मुझसे बड़ा है मुझमें
अब तो ले दे के वही शख्स बचा है मुझमें
मुझको मुझसे जुदा करके जो छुपा है मुझमें।'
आत्मशक्ति से परिचित लोग यदि जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर पाते तो तुरंत त्यागपत्र दे देते हैं। पूर्वप्रधानमंत्री स्व. श्री लाल बहादुर शास्त्री जी जब रेलमंत्री थे तो एक रेल दुर्घटना पर अपनी जिम्मेदारी लेते हुए पद से त्यागपत्र दे देते हैं। सर्वप्रिय प्रधानमंत्री स्व. श्री अटल बिहारी वाजपेई जी की सरकार एक वोट से गिर जाती है क्योंकि उनकी आत्मशक्ति ने उन्हें सत्ता और धन होते हुए भी एक वोट के खरीद-फरोख्त को स्वीकार नहीं किया।
भारतीय शिक्षा प्रणाली की गुरु शिष्य परंपरा में गुरु का आत्मज्ञान शिष्य को उसकी आत्मशक्ति से परिचय करा देता था। शक्ति की भारतीय संस्कृति पूजा करती है क्योंकि हमारे ऋषियों को ज्ञात था कि "शक्ति के बिना शिव शव के समान है।" किंतु शक्ति में पहले आंतरिक शक्ति की साधना की जाती थी, उसके बाद बाहरी शक्ति की।
आज की मूल समस्या है कि बाहरी-शक्ति ही एकमात्र ध्येय बन गई है और साध्य-साधन की पवित्रता खत्म हो गई है। किसी भी तरीके से शक्ति प्राप्त कर लो; पद पर पहुंचने के बाद यह सवाल नहीं उठाया जाता कि किस गलत तरीके से पद की प्राप्ति हुई है। गलत साधन से सही साध्य प्राप्त करने वाला भी अपने पद या शक्ति का दुरुपयोग ही करेगा क्योंकि 'बोए पेड़ बबूल के,आम कहां से होय'। इसीलिए तो गांधी साधन-साध्य की पवित्रता पर सर्वाधिक जोर देते थे।
पूरब की दृष्टि में प्रशासनिक अधिकारी हों या नेता हों; इनको बाहरी शक्ति देने के पहले उनको उनकी आंतरिक शक्ति से जब तक परिचय नहीं कराया जाता है, तब तक पश्चिमी विचारक लॉर्ड एक्टन की परिभाषा सही साबित होगी जिसने कहा था कि 'Power makes the man corrupt , absolute power makes the man absolute corrupt.'
लेकिन राजा राम, शिवि के हाथ में शक्ति आई, यह शक्ति उन्हें भ्रष्ट नहीं कर पाई। शास्त्री जी और वाजपेयी जी जैसे नेताओं को शक्ति भ्रष्ट नहीं कर पाती।आज भी मेरी व्यक्तिगत जानकारी में अनेकों अधिकारी और नेता ऐसे हैं जो अपनी शक्ति द्वारा अनेकों का कल्याण करते हैं। उनकी खासियत बस यह है कि सबसे पहले आत्मशक्ति से उनका परिचय हुआ और साधन तथा साध्य की पवित्रता के महत्व को उन्होंने समझा।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹