🙏गोल्डन गर्ल विनेश🙏


संवाद


'नियति की शिकार विनेश और देश'


विनेश फोगाट ने एक दिन में तीन राउंड जीतकर रजत पदक अपने नाम कर लिया था और एक ऐसा अरमान जगाया कि स्वर्ण पदक भारत की मुट्ठी में बंद सा दिखाई पड़ने लगा। करोड़ों निगाहें फाइनल पर टिकी थीं लेकिन उसके पहले ही 100 ग्राम वजन ज्यादा होने के कारण उनके डिसक्वालीफाई होने की खबर ने हम सभी को अर्श से फर्श पर लाकर पटक दिया। स्वर्ण पदक का सपना तो टूटा ही टूटा, अन्य दूसरा पदक भी हाथ से छूटा ; जिसके सदमे से पूरा देश स्तब्ध है।


        इस निराशा और हताशा के वातावरण में कोई इसमें राष्ट्रीय साजिश ढूंढ रहा है तो कोई अंतरराष्ट्रीय साजिश। मन के घोड़े दौड़ाने में क्या जाता है? भावावेश में लोग काफी प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं। किंतु किसी घटना या दुर्घटना की व्याख्या तनाव बढ़ाने वाली भी हो सकती है और सुकून देने वाली भी।


        विनेश फोगाट ने अपनी तरफ से मेहनत में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी और उनका परफॉर्मेंस भी एक से एक दिग्गज को धूल चटाने वाला चल रहा था। किंतु अचानक वक्त बदल गया।भारतीय संस्कृति की गहरी दृष्टि में इसे नियतिवाद कहा गया है। राम के राज्याभिषेक का मुहूर्त निकाला गया था और मुहूर्त ऐसा आया कि उन्हें वनवास को निकलना पड़ा। किंतु राम का व्यक्तित्व ऐसा था कि न तो राज्याभिषेक ने और न वनवास ने उन्हें विचलित किया-


'प्रसन्नतां यां न गताभिषेकतस्तथा न मम्लौ वनवासदुखत:'


लेकिन खिलाड़ियों के प्रशंसक भी आजकल ऐसे हो गए हैं कि नियति को भी अपने पक्ष में करने के लिए पूजा-हवन और न जाने क्या-क्या अनुष्ठान करने लगते हैं। खेल जीवन का मेरा अनुभव यही बताता है कि अति उत्साही प्रशंसक और जरूर से ज्यादा अपेक्षा खिलाड़ी के मनोबल को बढ़ाने के बजाय उनको बहुत ज्यादा दबाव में ला देती है।परंतु नियति तो नियति है जो घटकर ही रहेगी।


      पदक विनेश के भाग्य में नहीं था तो 100 ग्राम वजन आड़े आ गया। इस कारण से उनके जी तोड़ मेहनत और अथक संघर्ष की प्रतिष्ठा कम नहीं हो जाती। उसकी तो जितनी सराहना की जाए ,वह कम है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बिना हारे-थके लड़ते जाने की जो कला विनेश ने सिखाई है, वह अनुकरणीय और अनुसरणीय है-


'मेरे हाथों की लकीरों के इजाफे हैं गवाह


मैंने पत्थर की तरह खुद को तराशा है बहुत


जो भी मिलता है मुकद्दर का गिला करता है


और मुझको अपने हाथों पर भरोसा है बहुत।'


          'अपनी मेहनत पर भरोसा करना और आगे बढ़ते जाना' का  विनेश-मंत्र ने सभी का दिल जीत लिया है, लेकिन पदक न मिलने से जो सभी का दिल टूटा है, वह दिल नियतिवाद के बिना तसल्ली नहीं पा सकता। कर्मवाद का समर्थक भारतीय दर्शन एक जगह कहता है कि-


'उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैती लक्ष्मी:


दैवेन देयमिति कापुरुषा: वदंति,


दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या


यत्ने कृते यदि न सिद्धयति को अत्र दोष:।'


अर्थात् उद्योगी ही लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं, भाग्य देगा ऐसा तो कायर पुरुष बोलते हैं। इसलिए भाग्य को मारकर अपनी शक्ति के अनुसार पुरुषार्थ करो। यत्न करने पर भी यदि सिद्धि न मिले तो विचार करो कि यहां दोष क्या है?


मेरी समझ में विनेश प्रकरण में दोष किसी का दिखाई नहीं देता। भगवत् गीता से प्राप्त समझ यह है कि कर्म में ही तेरा अधिकार है, फल में कभी नहीं। दोष यही दिखाई देता है कि हम सबकी निगाहें फलमात्र पर टिकी हुई थीं, किंतु भारतीय संस्कृति की दृष्टि कहती है कि


'होईहें वही जो राम रचि राखा


क्यूं करि तर्क बढ़ावहिं शाखा।'


महाभारत के वन पर्व में वेदव्यास कहते हैं कि पुरुषार्थ करने पर भी यदि सिद्धि न प्राप्त हो तो भी खिन्न नहीं होना चाहिए क्योंकि फलसिद्धि में पुरुषार्थ के अतिरिक्त प्रारब्ध तथा ईश्वरकृपा दो अन्य कारण हैं-'कुर्वतो नार्थ सिद्धिर्मे भवति....'


        आज के बुद्धिप्रधान युग का मूलमंत्र है- 'कर लो दुनिया मुठ्ठी में'। लेकिन गहरे जानने वाले कहते हैं कि बुद्धि हो अथवा कर्म हो  ; प्रारब्ध तथा ईश्वर कृपा के बिना अधूरे हैं। बुद्धि और कर्म से विनेश फोगाट ने एक दिन अपना वजन भी घटा लिया और प्रतिद्वंद्वियों को मात भी दे दिया ; किंतु दूसरा दिन अपना दिन नहीं था। इसी को नियतिवाद कहते हैं। इसे स्वीकारने से जीवन भी एक खेल बन जाता है जिसमें हार और जीत से बढ़कर खेल और खेलभावना महत्वपूर्ण हो जाती है। विनेश के खेल व खेल भावना से बड़ा गोल्ड इस देश को और क्या मिल सकता है जो लाखों बाधाओं के बावजूद भी कहीं रुकती नहीं है और झुकती नहीं है।


अतः समग्र देश को इस गोल्डन गर्ल को दिल में बिठाते हुए भारतीय संस्कृति के नियतिवाद को स्वीकार करना चाहिए और बिस्मिल के भावों को दुहराना चाहिए-


'मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे


बाकी न मैं रहूं न मेरी आरजू रहे।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹