संवाद


'शैक्षिक सम्मेलन सफल ही नहीं सुफल भी कैसे बनें?'


'त्रिदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संस्कृत सम्मेलन'(9-11अगस्त 24) राजस्थान विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग द्वारा आयोजित किया गया। यह कई दृष्टियों से अपने आप में महत्वपूर्ण रहा। 'सार्वभौमिक वैदिक ज्ञान परंपरा और महर्षि दयानंद सरस्वती' विषय पर आयोजित इस ज्ञान-यज्ञ में 5 देशों के और 22 राज्यों के प्रतिष्ठित विद्वानों और शोधार्थियों का समागम हुआ।


           लगभग 16 वर्षों के बाद किसी सम्मेलन में भाग लेने को मेरी उत्सुकता जगी। इसके पहले के सम्मेलनों में मेरा निजी अनुभव यह रहा कि व्याख्यान तो बहुत अच्छे सुनने को मिल जाते हैं किंतु किसी विषय पर गंभीर वाद विवाद के बाद संवाद तक पहुंचने के लिए जो विषय का गूढ़ ज्ञान, सम्यक तर्क और एक दूसरे को सुनने का जो धैर्य चाहिए, वह नहीं मिलता। किसी वक्तव्य पर उठाए गए प्रश्नों को सहानुभूति की नजर से कम और अवरोधक की नजर से ज्यादा देखा जाता है। जबकि इस देश में एक विशेष उपनिषद लिखा गया जिसका नाम प्रश्नोपनिषद् है।


         भीलवाड़ा के से.मु.मा.कन्या महाविद्यालय में 'संस्कृत वांगमय में जीवन मूल्य' विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी 2007 में शोध-पत्रों पर जब मैंने प्रश्न पूछना शुरू किया तो तीन प्रश्नों के बाद संयोजक महोदय द्वारा मुझे प्रश्न पूछने से मना कर दिया गया। किंतु सभा की अध्यक्षता कर रहे विद्वान ने अंत में अपने उद्बोधन में कहा कि अच्छे प्रश्न पूछने वालों के प्रश्नों की संख्या नहीं गिनी जानी चाहिए, क्योंकि प्रश्न यूं ही नहीं खड़े होते; उसके लिए समस्या में गहरे उतरना पड़ता है। प्रश्न सबके हृदय में उत्पन्न भी नहीं होते क्योंकि इसके लिए जिज्ञासा बहुत गहरी चाहिए। उन्होंने मेरे प्रश्नों की तारीफ की।


             फिर मेरे मन में गंभीर ऊहापोह ने जन्म लिया क्योंकि संयोजक ने मेरे प्रश्नों को अवरोधक माना था जबकि अध्यक्ष ने मेरे प्रश्नों को उत्प्रेरक माना था। धीरे-धीरे मुझे इस वास्तविकता का आभास हुआ कि अधिकतर लोगों की उत्सुकता ए पी आई स्कोर को बढ़ाने में और प्रमाणपत्रों को प्राप्त करने में होती हैं। अतः कम समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों को संतुष्ट करके संगोष्ठी की सफलता सुनिश्चित कर ली जाती है।


          इसकी बहुत ज्यादा आलोचना भी मैं नहीं करता क्योंकि व्यावहारिक दृष्टिकोण तो अपनाना ही पड़ता है। इस व्यावहारिकता को जानने के बाद अपने आपको मैंने संगोष्ठियों और सम्मेलनों से अलग कर लिया। किंतु 'शिष्य-गुरु संवाद' के रूप में विद्यार्थियों के साथ एक दूसरे को सुनने और एक दूसरे से सीखने का क्रम जारी रहा।


           आजकल एक गहरी पीड़ा मन में सता रही है कि जिस ज्ञान प्रधान देश के पास इतने ऊंचे विचार हों, उस देश का आचार-व्यवहार इतना कैसे गिर गया कि वहां लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का प्रश्न आज सबसे मुखर हो गया।


           इस प्रश्न को लेकर मैं अपराकाशी कही जाने वाली जयपुर नगरी के विश्वप्रतिष्ठित राजस्थान विश्वविद्यालय में पहुंचा। भारी बारिश के व्यवधान के बावजूद संयोजक महोदय की संवेदनशीलता और उनके सहयोगियों की संवादशीलता देखकर मैं अभिभूत हुआ और 'योजकस्तत्र दुर्लभ:' मंत्र का मुझे स्मरण हो आया।


             'सार्वभौमिक वैदिक ज्ञान परंपरा और महर्षि दयानंद सरस्वती' विषय पर देश के प्रतिष्ठित कुलपतियों और विद्वानों को सुनने के बाद मुझे अत्यंत हर्ष यह हुआ कि ज्ञान की जो ऊंचाइयां हमारे वैदिक ऋषियों ने छुई थीं और जिसका पुनर्बोध दयानंद सरस्वती ने पराधीनता के काल में 'वेदों की ओर लौटो' का नारा देकर कराया; उसे फिर इस अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ने हमें पुनर्स्मरण करवा दिया। किंतु इसके साथ अत्यंत शोक भी हुआ कि शिक्षा और परीक्षा की स्थिति आज इतनी दयनीय हो गई है कि लोकसभा के प्रथम अभिभाषण में राष्ट्रपति महामहिम द्रौपदी मुर्मू जी ने पेपर लीक वाली परीक्षा व्यवस्था के प्रति गहरा असंतोष जताया। पेपर लीक वाली परीक्षा-व्यवस्था रूपी कड़वे फल को देखकर यह अंदाज लगाया जा सकता है कि जिस शिक्षा-व्यवस्था रूपी वृक्ष पर ऐसा फल लगा है, वह वृक्ष कितना कड़वा होगा।राजधानी दिल्ली की सुप्रीम व्यवस्था की नाक के नीचे कोचिंग के बेसमेंट में पानी भर जाने से तीन होनहार छात्रों की मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट ने स्वत:संज्ञान लेकर आधुनिक शिक्षा के मुख्य संवाहक कोचिंग सेंटर को डेथ सेंटर बताया। शिक्षकों की भारी कमी और गैरशैक्षिक कार्यों में सरकारी शिक्षकों की अतिव्यस्तता ने  स्कूली और कॉलेज शिक्षा को ऐसी हालात में पहुंचा दिया है कि वे ज्ञान बांटने के केंद्र की जगह मात्र डिग्री बांटने के कार्यालय के रूप में तब्दील हो गए हैं।


               इस हर्ष और शोक के मनोवेगों से जूझता हुआ अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के भव्य आयोजन में दिव्य वाक् को सुनने के बाद मैं और बेचैन हो गया हूं। इस समय मुझे नालंदा विश्वविद्यालय के परिसर उद्घाटन के अवसर पर 19 जून को प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा दिया गया एक वक्तव्य ध्यान में आ रहा है कि 'आग की लपटें पुस्तकों को तो जला सकती हैं किंतु ज्ञान को नहीं।' हमें मालूम है कि आक्रांताओं ने नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में आग लगा दी थी। पुस्तकें तो निश्चितरूपेण जल गईं किंतु नालंदा विश्वविद्यालय के जीर्णोद्धार का काम फिर शुरू हो गया है क्योंकि ज्ञान की आग हृदय में अभी भी धधक रही है।


         किंतु क्या परिसर निर्माण से और स्कूल-कॉलेज के भवन निर्माण मात्र से हमारे ज्ञान की परंपरा पुनर्जीवित हो पाएगी? यह प्रश्न इस संदर्भ में और महत्वपूर्ण हो जाता है कि राजस्थान सरकार ने कई नए खोले गए कॉलेजों को छात्रों की न्यूनतम उपलब्धता के कारण बंद करने का निर्णय लेने के लिए सुझाव देने हेतु एक महत्वपूर्ण समिति का गठन किया है।


           इस संबंध में मुझे महात्मा बुद्ध का वो दृष्टांत याद आ रहा है जिसके कारण उस भूमि का नाम विहार पड़ा और जिस धरती पर नालंदा विश्वविद्यालय का जन्म हुआ। महात्मा बुद्ध ने सैकड़ों शिष्यों को ध्यान और ज्ञान के द्वारा तैयार किया, फिर उस ध्यान-ज्ञान को सामान्य जनों में बांटने के लिए अपने शिष्यों को विहार (भ्रमण)पर जाने के लिए कहा। बुद्ध और उनके शिष्यों के विहार के लिए समाज के लोग आयोजन किया करते थे और राजा लोग ऐसे आयोजनों का संरक्षण किया करते थे। सरकार और समाज के ऐसे सहयोग से कालक्रम में ऐसा नालंदा विश्वविद्यालय बना कि दूर-दूर से ज्ञान के पिपासु यहां आकर ज्ञान प्राप्त किया करते थे। जो यहां से पढ़कर जाते थे,उन लोगों ने भारत को विश्वगुरु की संज्ञा दी थी क्योंकि भारत के गुरु ऐसे थे जो अन्यत्र दुर्लभ थे।


                आज भी कुछ विद्वानों को सुनने के बाद मुझे लगता है कि विश्व गुरु बनाने वाले बीज कुछ बचे हुए हैं किंतु उनके अनुकूल परिवेश देने वाला समाज और उस ज्ञान परंपरा को संरक्षित-संवर्धित करने के लिए अपने राजकोष को लूटाने वाली सरकारें कहां हैं? ज्ञान के प्यासे वे शिष्य कहां है जो ज्ञान के लिए पर्वतों और खाइयों , रेगिस्तानों और जंगलों को पार करके गुरु के पास पहुंच जाते थे? आज तो सबके लिए शिक्षा का लक्ष्य लेकर सब जगह स्कूल कॉलेज खोलने का प्रयास किया जा रहा है किंतु ज्ञानसंपन्न शिक्षक और ज्ञान की आराधना का वातावरण कहां दिया जा रहा है? तभी तो हमारे यहां के अधिकांश प्रतिभाशाली विद्यार्थी विदेशों में पढ़ने जा रहे हैं।


             1 जुलाई 2024 को राजस्थान के उच्च शिक्षा सचिव और आयुक्त महोदय  ने जब 'गुरु शिष्य परंपरा' शुरू करने का आह्वान किया तो ऐसा लगा कि सरकारों की सोच में बड़ा परिवर्तन आया है। किंतु दो महीने बीतने के बाद वास्तविकता यह है कि हम अपनी ही परंपरा से बहुत दूर हो चुके हैं। इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में आए विद्वानों ने बहुमूल्य सुझाव देते हुए कहा कि-


१.शिक्षा-नीति भारतीय दर्शन और संस्कृति के अनुकूल हो।


२. भारत सरकार कुल जीडीपी का महज तीन से पांच प्रतिशत शिक्षा पर व्यय कर रही है, इससे संदेश यही जाता है कि शिक्षा हमारी प्राथमिकता में नहीं है। जब दिल्ली सरकार अपने बजट का 22% शिक्षा पर खर्च कर रही है तो भारत सरकार को भी शिक्षा पर बजट को और बढ़ाना चाहिए।


३. व्यावसायिक शिक्षा को तो बढ़ाने की जरूरत है ही किंतु आध्यात्मिक शिक्षा पर भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए अन्यथा शिक्षा की डिग्रियां पैसों के बदले बंटती रहेगी और परीक्षा के पेपर बिकते रहेंगे।


            2020 की नई शिक्षा नीति में ऐसे सुझावों को स्वीकार तो कर लिया गया है किंतु उसको अमलीजामा पहनाने के लिए न तो शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों की संख्या बढ़ाई गई है और न शिक्षा पर बजट। सेमेस्टर प्रणाली तो लागू कर दी गई किंतु बिना पूरी पढ़ाई के परीक्षा करा लिए जाने से डिग्रियां तो बढ़ेगी किंतु ज्ञान नहीं।


           इस संगोष्ठी से लौटकर एक प्रश्न मन में उभर रहा है कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियां तो बहुत होती हैं किंतु शिक्षा के हालात क्यूं नहीं बदलते?


             काफी सोच विचार के बाद यह उत्तर आया कि हमारा देश विचारकों का देश नहीं है बल्कि आचार्यों का देश है। हमारे वैदिक गुरु सिर्फ सिद्धांत नहीं देते थे बल्कि उस सिद्धांत को स्वयं के जीवन में उतारकर जनसामान्य को जागृत करते थे। इसीलिए बादशाहों से भी ज्यादा प्रभाव आश्रम में रहने वाले गुरुओं और फकीरों का होता था-


'बादशाहों का फकीरों से बड़ा रुतबा न था


तब धर्म और सियासत में कोई रिश्ता न था


शख़्स वो मामूली लगता था मगर ऐसा न था


सारी दुनिया जेब में थी और हाथ में पैसा न था।'


           आज के राजनीति प्रधान युग में पद का महत्व बहुत बढ़ गया है और जब तक राजनीतिक पदों पर बैठे हुए लोगों के मन में शिक्षा के प्रति अनुराग पैदा नहीं होता तब तक शिक्षा की मशाल प्रज्वलित नहीं हो सकती। इतना अवश्य है कि ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियां शिक्षा के लौ को बुझने भी नहीं देगी।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹