🙏राष्ट्रीय खेल दिवस की शुभकामना🙏
संवाद
'खेल का दर्शन'
जिंदगी में तनाव को कम करने के लिए और ऊर्जा को सकारात्मक रूप देने के लिए खेल ईजाद किया गया था। लेकिन आज खिलाड़ी भी तनाव और नकारात्मकता से इतने भर गए हैं कि किसी भी कीमत पर जीत सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं। इससे खेल का मूल मकसद ही खत्म हो गया-
जिंदगी वक्त के बहाव में है
यहां हर एक इंसान तनाव में है
हमने लगा दिया इल्जाम पानी पर
यह नहीं देखा कि छेद तो नाव में है।
उपनिषद कहते हैं कि संसार स्रष्टा (परमात्मा)का एक खेल है-
'स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत्' अर्थात् उसका अकेले में मन नहीं लग रहा था। खेल खेल में यह दुनिया बनाई गई , इसीलिए राम और कृष्ण के जीवन को लीला कहते हैं-रामलीला, कृष्णलीला। उनके लिए जीवन में हार मिले या जीत, उससे उनके आनंद में कोई अंतर नहीं पड़ता था-
'कभी रेत के ऊंचे टीले पे जाना
घरौंदे बनाना, बना के मिटाना.....
प्राचीन काल में मनोरंजन के लिए कई प्रकार के खेलों का आयोजन किया जाता था-घुड़दौड़,चौसर का खेल इत्यादि। लेकिन पांसे का खेल जब शकुनि के हाथों में आया तो चीरहरण और महाभारत परिणाम में आया। इसमें खेल का कोई दोष नहीं है , दोष तो उस नीयत का है जो उस खेल के साथ जोड़ दिया जाता है।
आज हर चीज को इतना व्यावसायिक बना दिया गया है कि जीत के साथ करोड़ों-अरबों रुपए की कमाई हो जाती है। अर्जित धन-संपत्ति तो दिखाई देती हैं किंतु धन के कारण खोया गया आनंद किसी को नहीं दिखाई देता ,जो अमूल्य है।
पढ़ाई में ठीक-ठाक स्टूडेंट होने के बावजूद नौवीं क्लास में खेल के आनंद ने धीमे-धीमे मुझे इतना अपने आगोश में ले लिया कि मैं पढ़ाई छोड़ कर खेल में ही रमने लगा। जब घर वालों ने समझाया कि बोर्ड परीक्षा में नंबर के आधार पर अच्छा कॉलेज मिलता है, तब मुझे थोड़ी चिंता पकड़ी। किंतु इतना ज्यादा खेल ने मुझे आकर्षित कर लिया था कि अब पढ़कर अच्छा नंबर लाकर अच्छा कॉलेज नहीं पा सकता था। अतः बोर्ड परीक्षा के समय जब मुझे स्टेट-टीम में खेलने का अवसर मिला तो मैं बिहार से चंडीगढ़ के मोहाली स्टेडियम में खेलने चला गया। इस मोड़ पर खेल के साथ तनाव जुड़ने लगा क्योंकि अब यह सोच मन में आने लगी कि खेल से मुझे क्या-क्या मिल सकता है।
जब खेल के आधार पर पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज में एडमिशन हो गया तो खेल को ही जिंदगी बना बैठा। अब खेल ने आनंद कम और तनाव ज्यादा देना शुरु कर दिया। दूसरे खिलाडी से प्रतियोगिता करना और उससे ज्यादा अच्छा प्रदर्शन करना खेल का अहम भाग बन गया। जब तक अपने खेल पर ध्यान था,तब तक आनंद ज्यादा था किंतु जब दृष्टि अपने प्रतिद्वंद्वी पर टिकने लगी तो तनाव बढ़ता गया। जब सेलेक्शन नहीं होता था तो यह तनाव चरम पर पहुंच जाता था।
इसी समय एक बात अनुभव में आई कि सिर्फ प्रदर्शन से टीम में जगह नहीं बनती बल्कि उसके लिए खेल संगठन के अधिकारियों का प्रिय-पात्र होना भी जरूरी है। खेल संगठन के शीर्ष पर राजनीति के लोगों का कब्जा देखकर उनका प्रिय-पात्र बनने की इच्छा भी मन में नहीं होती थी। ऐसी हालत में जो भी खिलाड़ी सिर्फ अपनी प्रतिभा के बलबूते पर आगे बढ़ना चाहते थे, उनके लिए एक ही रास्ता था अद्वितीय प्रदर्शन। अद्वितीय प्रदर्शन की प्रतिभा मेरे में नहीं थी, उन्नीस-बीस की प्रतिभा पर राजनीति हावी हो जाती थी। जब मुझ पर बैन लगा तो मुझे पता चला कि खेल की राजनीति तो असली राजनीति जैसी ही है।
पेरिस ओलंपिक में जब विनेश फोगाट तीन पहलवानों को हराकर फाइनल में पहुंच गई और 100 ग्राम वजन के कारण उन्हें डिसक्वालीफाई कर दिया गया तो खेल में राजनीति की बात आम चर्चा का विषय बन गई। इसके पहले कुश्ती संघ के शीर्ष पदाधिकारी पर महिला पहलवानों के द्वारा लगाए गए यौन शोषण के आरोप से किसी भी खेल संघ के शीर्ष पर बैठे पदाधिकारियों पर प्रश्न उठने लगे।
खेलों ने ज्योंही व्यावसायिक और प्रतियोगिता का रूप लिया त्यों ही खेल खेल न रहा। पैसा और पद जुड़ जाने से खेल जगत की आत्मा (आनंद)गायब होता गया। प्रोफेशनल खिलाड़ी के लिए तो पद और प्रतियोगिता महत्वपूर्ण रहेंगे लेकिन आमजन के लिए खेल आनंद का विषय हो-खेल सिर्फ खेल के लिए, इस पर पुनर्विचार होना चाहिए। खेल से प्यार हो तब यह संभव है-
'प्यार का यह खेल सब खेलों से जुदा
मिलता है जीत में भी हार का मजा।'
गीत की इस पंक्ति से मैं सहमत हूं। आज बलात्कार और हिंसा की घटनाएं इतनी ज्यादा बढ़ गई हैं कि समाचार शर्मसार कर देता है। कड़े कानून बनाने के लिए पूरे देश में आंदोलन हो रहे हैं। कड़े कानून अवश्य बनें लेकिन जब तक शिक्षा और खेल की स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन नहीं किया जाता तब तक ऐसी घटनाएं और ज्यादा बढ़ेंगी। अच्छी शिक्षा से दूर हो चुकी पीढ़ियों के मन को जब पॉर्न साइट्स शिक्षित करेंगी और युवा वर्ग को जब खेलने का मैदान सुलभ नहीं होगा तो उनकी ऊर्जा कामुकता की ओर बढ़ेगी।
आदिवासी बहुल वागड़ क्षेत्र के विद्यार्थियों की मैं बात करूं तो शिक्षा की दृष्टि से पिछड़ा माना जाने वाला यह क्षेत्र खेल की दृष्टि से बहुत आगे जाने की संभावना लिए हुए हैं क्योंकि यह एकलव्य की धरती है। पढ़ने में जिनकी गति नहीं है,उन्हें खेल के माध्यम से आगे बढ़ाया जाए।
लेकिन भारतीय संस्कृति सिखाती है कि पूरा जीवन को एक खेल बनाया जाए। ऑफिस जाते समय भारी कदमों से चलने वाला व्यक्ति थककर जब ऑफिस से आता है तो फिर थिरकते कदमों से खेल के मैदान की ओर पहुंच जाता है और जब पसीने से लथपथ हो जाता है तो जीवन के सारे तनाव भूल जाता है और नई ऊर्जा से सराबोर हो जाता है।
खेल का दर्शन समझने के बाद परमात्मा की दी गई ऊर्जा से जीवन को भी एक खेल बनाया जा सकता है। हमने तो खेल को ही व्यवसाय बना दिया-
'खिलौनों के बदले में बारूद दी
बच्चों में अब गुलफिशानी कहां?
जलाकर शमा पूछते हो आप
पतंगों की अब जिंदगानी कहां??'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹