संवाद


🙏'अवनी की जिगीषा'🙏


ओलंपिक के साथ जज्बा और उत्साह जुड़ा होता है किंतु पैरालिंपिक के साथ संवेदना भी जुड़ जाता है। जिन दुर्घटनाओं से कोई टूट जाता है, वे ही दुर्घटनाएं किसी अवनी जैसी आत्मा के लिए परमपिता से जुड़कर नई राह तलाशने का जज्बा और उत्साह दे देती हैं।


     साल 2012 की सड़क दुर्घटना ने अवनी की जिंदगी गहन अंधकार से भर दी। जिसके दोनों पैर खराब हो गए हों,उसके चल पाने की भी गुंजाइश कम बचती है; जिंदगी में दौड़ने और आकाश में उड़ने की तो बात ही छोड़िए। किंतु दूसरी बार पैरालिंपिक में गोल्डमेडल जीतकर अवनी लेखरा ने किसी कवि की यह बात सच साबित कर दी कि


'पंख से कुछ नहीं होता,हौसलों से उड़ान होती है


मंजिल मिलती है ,जब सपनों में जान होती है।'


         जब जिंदगी टूट जाए तो उसमें सपना जगाने वाली और उसे पूरा करने वाली परिस्थिति और मन:स्थिति को दुनिया के सामने कलमकार को लाना चाहिए।


             डेढ़ साल के डिप्रेशन के दौर से बाहर निकालने के लिए पिता ने उसे खेल में भेजने का प्रयास किया। वक्त जिसके साथ क्रूर-खेल खेल देता है, मां-बाप उस वक्त से अपने बच्चों को बाहर निकालने के लिए नया खेल शुरू करते हैं। पिता ने तीरंदाजी सीखने भेजा लेकिन अवनी प्रत्यंचा नहीं चढ़ा पा रही थी।तब पिता ने 2015 में शूटिंग रेंज भेजना शुरू किया। साथ ही पिता ने 2008 के बीजिंग ओलंपिक के शूटिंग प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीत चुके अभिनव बिंद्रा की बायोग्राफी  को पढ़ने के लिए अवनी को दी।


           इस किताब ने अवनी की जिंदगी बदल दी और वो नए जज्बे और नए उत्साह के साथ शूटिंग की साधना में लग गई। पिता ने बेटी की लगन देख शूटिंग रेंज के पास अपना घर शिफ्ट कर लिया। इसके बाद घर में ही एक शूटिंग प्रैक्टिस एरिया भी बना दिया।


            पिता प्रवीण लेखरा की बेटी अवनी लेखरा आज सभी समाचार पत्रों में मुखपृष्ठ पर छाई हुई थी,सभी टीवी चैनलों पर लाइमलाइट में थी और राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के साथ पूरा देश उन पर गर्व कर रहा था। अवनी की उपलब्धि पर पिता प्रवीण कह रहे थे कि मां-बाप के लिए सबसे खुशी का दिन होता है जब वे अपनी संतति के नाम से पहचाने जाएं। संस्कृत की एक प्रसिद्ध पंक्ति है-


'नर: सर्वत्र विजयमिच्छेत् पुत्रात् शिष्यात् च पराजयम्'


अर्थात् सर्वत्र विजय की कामना करने वाला मानव अपने पुत्र और शिष्य से पराजय की कामना करता है।


बेटों की कामना से भरे पुरुष प्रधान भारतीय समाज में ऐसा उदाहरण माइंडसेट को परिवर्तित करने वाला हो सकता है, बस एक ऐसी दुनिया बनाई जा सके जहां बेटियां भी खेल सकें,खिल सकें,खिलखिला सकें। जब बेटियों पर हर रोज कामुक और हिंसक अत्याचार की खबरें आती हैं तो सर शर्म से झुक जाता है। उनको सिर्फ तन समझने वाली भोगवादी दृष्टि बदलनी चाहिए, उसकी जगह प्रतिभासंपन्नमन समझने वाली दृष्टि विकसित की जानी चाहिए।


भारतीय संस्कृति की सोच यह है कि बेटे हो या बेटी हो; दोनों में मन होता है, इसी कारण दोनों को 'मानव' कहते हैं। मन परमात्मा की इतनी शक्तिशाली देन है कि इसको सम्यक शिक्षण और प्रशिक्षण के द्वारा तराश दिया जाए तो गर्व का विषय हो जाता है,नहीं तो शर्म का विषय। यही कारण है कि कुकृत्य करने वाले बेटों पर शर्मसार होने वाला भारत सुकृत्य करने वाली बेटी पर गर्व महसूस कर रहा है।


मेरे छोटे भाई की एक ही बेटी है-जिगीषा। 10वीं व 12वीं बोर्ड में टॉपर्स होने के बाद उसने CUET परीक्षा में 800 में से 800 अंक हासिल करके देश के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज में अपना जगह बना लिया। उसका मन इतना पढ़ने में लगता है कि वह किताबों के साथ ही सोती है,उठती है, बैठती है और रहती है। उसकी पढ़ाई की चिंता हम लोगों को नहीं होती किंतु बेटियों पर हो रहे अत्याचारों की खबरों को सुनकर उसकी सुरक्षा की चिंता दिन-रात खाए जाती है‌।


'अवनी' का अर्थ होता है-पृथ्वी और 'जिगीषा' का अर्थ होता है-जीतने की इच्छा। बेटियां पृथ्वी के समान सहनशील होती हैं और अपने अंदर कई प्रकार की प्रतिभाएं लेकर आती हैं। अपने जीतने की इच्छा के बल पर अनुकूल माहौल मिलते ही इसी धरती से आकाश को भी जीत लेती हैं। डबल-गोल्डमेडलिस्ट अवनी की जिगीषा इतनी प्रबल है कि वे कहती हैं-"इस गोल्ड मेडल की खुशियां मनाने से ज्यादा मेरा फोकस अगले दो मैच में जीत हासिल करने पर है।"-


'सितारों से आगे जहां और भी है


अभी इश्क के इम्तिहां और भी है।'


उनमें सिर्फ तन मत देखो, उनमें प्यार,संवेदनाओं और संभावनाओं से भरा हुआ एक मन देखो।उन्हें पढ़ने दो,उन्हें खेलने दो,उन्हें खिलने दो,उन्हें खिलखिलाने दो तब इस अवनी से ही वे आकाश भी जीत लेंगी।


पैरालिंपिक में जीतने वाले के साथ सभी भाग लेने वालों के लिए भी हम सर झुकाते हैं क्योंकि वे हमें जिंदगी में कभी न हारने का रास्ता दिखाते हैं।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹