🙏शिक्षक दिवस की शुभकामना🙏


संवाद


'एक शिक्षक की पीड़ा'


'शिक्षक दिवस पर आंखें नम हैं


जरूर हृदय में कोई गहरा गम है...


         भारत सरकार के शिक्षा-मंत्रालय द्वारा आयोजित नई शिक्षा नीति पर विचार-विमर्श की प्रक्रिया में सुझाव देने के लिए बांसवाड़ा कलेक्ट्रेट में कॉलेज-प्रतिनिधि के रूप में 29 जुलाई 2015 को मैं उपस्थित था। इस मैराथन बैठक में सत्तारूढ़ पार्टी के जनप्रतिनिधि ने सभी सरकारी नौकरी वालों से एक सवाल पूछा-'कितने सरकारी अधिकारी-कर्मचारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल या कॉलेज में पढ़ाते हैं?' इस सवाल के उत्तर में एक भी हाथ नहीं उठा। सभा में सन्नाटा पसर गया। सरकार के जनप्रतिनिधि ने कहा कि सरकारी शिक्षा की दुर्दशा का मुख्य कारण यही है कि आप सभी सरकारी कर्मचारी होने के बावजूद अपने बच्चों को सरकारी स्कूल या कॉलेज में नहीं भेजते हैं।


             तत्क्षण मैंने विनम्रतापूर्वक सभा में सवाल पूछा कि 'इस सभा में कितने लोग हैं जो सरकारी स्कूल या कॉलेज से शिक्षा प्राप्त कर इतने अच्छे पदों पर पहुंचे हैं?' लगभग सभी ने हाथ उठा दिए।


       जनप्रतिनिधि साहब ने कहा कि "आप अपने प्रश्न से क्या साबित करना चाहते हैं?"  मैंने कहा कि हम सभी को सरकारी शिक्षकों ने पढ़ाया और इतने अच्छे पदों पर पहुंचाया क्योंकि हमारे समय में शिक्षकों का काम सिर्फ पढ़ाना होता था। शिक्षक शिक्षालय में नियमित क्लासेज लेते थे और शेष समय में मार्गदर्शन भी देते थे। उस समय ट्यूशन पढ़ना और कुंजी से पढ़ना कमजोर विद्यार्थी का लक्षण था।


         धीमे-धीमे इतनी कल्याणकारी योजनाएं सरकारी शिक्षालयों में शुरू कर दी गईं कि पढ़ाई का काम गौण होता चला गया। प्रतियोगिता परीक्षा से चयनित हुए योग्यतम शिक्षकों से ऐसे काम लिए जाने लगे जिसे 10वीं पास व्यक्ति भी कर सकता है,उसके लिए बड़ी डिग्री की जरूरत नहीं है।


       जब शिक्षालय कार्यालय बन जाएं तो कौन मां-बाप अपने संतानों का जीवन खतरे में डालेगा। सरकारी शिक्षालयों में कल्याणकारी-योजनाओं की संख्या जितनी बढ़ती गई, उतनी ही निजी शिक्षालयों की संख्या भी दिन दूनी रात चौगुनी के हिसाब से बढ़ती गई। पहले अधिक पैसे वाले अपने बच्चों को निजी शिक्षालयों में भेजते थे, अब तो गरीब भी अपने बच्चों को निजी शिक्षालयों में ही भेजना चाहते हैं।


                मेरे यहां खाना बनाने वाली बाई जी ने अपनी दो पोतियों को एडमिशन कराने के लिए मुझसे सलाह मांगी। मैंने उनको समझाया कि सरकारी स्कूल में एडमिशन करवा दीजिए,वहां बहुत योग्य शिक्षक हैं। आप निजी स्कूलों की ऊंची फीस से परेशान हो जाएंगी। उनका जवाब सुनकर मैं हैरान रह गया। मेरी बाई जी ने कहा कि सरकारी स्कूल में सिर्फ खाना खिलाने और अन्य कामों में शिक्षक लगे रहते हैं, मुझे तो अपनी पोतियों को पढ़ाना है।


             आमजनों में पनप गई ऐसी सोच सुनकर मैं हैरान हो गया किंतु शिक्षा के प्रति बाई जी की जागरूकता को देखकर प्रसन्न भी हुआ क्योंकि वे अपने खून-पसीने की थोड़ी कमाई को भी लूटाकर अपनी पीढ़ी को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहती हैं। अर्थात् दी जाने वाली बहुत सारी सुविधाओं से ज्यादा शिक्षा की गुणवत्ता मायने रखती है।


                  सुझाव देने के बाद 9 साल पूरे हो गए और नई शिक्षा नीति भी लागू हो गई किंतु क्या शिक्षा की गुणवत्ता सरकारी शिक्षालयों में बढ़ी?


             मेरा तो अनुभव यही कहता है कि अनेक अच्छे प्रावधानों के बावजूद नई शिक्षा नीति के अंतर्गत शुरू की गई सेमेस्टर परीक्षा प्रणाली से क्लासेज और ज्यादा बुरी तरह से प्रभावित हुई हैं। शिक्षक कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के साथ अब क्लास टेस्ट और सेमेस्टर परीक्षा के बोझ तले इतना दब गया है कि उसे क्लर्क होने का ज्यादा एहसास होने लगा है, शिक्षक होने का कम। विद्यार्थी भी क्लास में कम पढ़ने आते हैं और कल्याणकारी योजनाओं के संबंध में सूचना मांगने ज्यादा। शिक्षादाता को सूचनादाता बना देने से अगली पीढ़ी ज्ञानसंपन्न और चरित्रसंपन्न कैसे बन सकती हैं?


           एक समय था कि कल्याणकारी-योजनाओं का काम 'समाज कल्याण विभाग' देखा करता था और शिक्षक सिर्फ पढ़ाने का काम और बच्चों का भविष्य देखा करता था।


              1 जुलाई 2024 को उच्च शिक्षा सचिव और कॉलेज आयुक्त महोदय ने गुरु शिष्य परंपरा शुरू करने का आग्रह किया। किंतु अभी तक प्रथम वर्ष की प्रवेश प्रक्रिया में ही शिक्षक लगे हुए हैं और अन्य गैरशैक्षिक कार्यों की प्राथमिकता बनी हुई है।


             ऐसे में शिक्षक दिवस पर दिया जाने वाला सम्मान और गुरु-परंपरा शुरू करने का आह्वान एक शिक्षक की आत्मा को और ज्यादा कचोटने लगता है-


'क्या बतलाऊं इस जीवन में रूदन अधिक या हास अधिक है?


क्या बतलाऊं इन नयनों में नीर अधिक या प्यास अधिक है?'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹