🙏गणेश चतुर्थी की शुभकामना🙏


संवाद


'शिक्षक दिवस का अमूल्य उपहार'


आज गणेश चतुर्थी है। 'ओम् गणेशाय नमः' मंत्र के साथ अक्षर यात्रा का प्रारंभ हमारी संस्कृति में किया जाता था। विद्यारंभ की शुरुआत और शिष्य गुरु संवाद की मंगलयात्रा गणेश के नाम के साथ किए जाने के पीछे भारतीय संस्कृति की सोच अत्यंत गूढ़ है।


        कथा कहती है कि देवताओं में आदिदेव किसे माना जाए इसके लिए प्रतियोगिता का आयोजन किया गया और शर्त यह रखा गया कि जो संसार की परिक्रमा लगाकर सबसे पहले आ जाएगा उसी को आदिदेव माना जाएगा। सभी देवताओं के पास अत्यंत तीव्र गति से दौड़ने वाले बड़े-बड़े वाहन थे और वे संसार की परिक्रमा करने निकल गए। किंतु गणेश जी ने अपने छोटे मूषक पर सवार होकर अपने माता-पिता की परिक्रमा करके यह प्रतियोगिता जीत ली और वे आदिदेव बन गए। उनकी सूक्ष्मदृष्टि काम आई कि जिस माता-पिता से हम संसार में आते हैं, उनकी परिक्रमा से बड़ी संसार की परिक्रमा और क्या हो सकती है?


          माता-पिता के बाद हमारी संस्कृति में अक्षर ज्ञान देने वाले गुरु को देव माना गया है-मातृ देवो भव, पितृ देवो भव,गुरु देवो भव। माता-पिता से जन्म मिलता था किंतु गुरु जीवन देता था, इसी कारण 'द्विज' शब्द बहुत आदरणीय हो गया। क्योंकि शिक्षा के बाद एक नए मानव का जन्म होता है। माता-पिता के साथ रक्तसंबंध से भी बढ़कर शिष्य गुरु का आत्मिक संबंध ऋषियों की दृष्टि में महत्वपूर्ण है। मेरे हृदय के भाव कहते हैं कि


'ध्यान में उनके चुप रहूं,


मनमंदिर से ताल्लुक़ात भी हो


धरती भी बसी आंखों में रहे,


आकाश से खुली बात भी हो।'


         शिक्षक दिवस के दिन उस आत्मिक संबंध की झलक मिलती है जब विद्यार्थी अपने शिक्षक के लिए अपना अनुग्रहभाव प्रकट करने आता है। 'गुरु पूर्णिमा' को सबसे महत्वपूर्ण मानने वाली भारतीय संस्कृति में 'शिक्षक दिवस' भी इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि हमें उसी गुरुता की याद आ जाती है जिसके कारण भारत विश्वगुरु बना।


              बहुत सारी बातें शिक्षक अपने विद्यार्थियों को सिखाता है किंतु मुझे शिक्षक दिवस के दिन अपने प्रमोद जी जैसे विद्यार्थी से एक बात सीखने को मिलती है कि कितना अटूट आदर का भाव एक विद्यार्थी को अपने हृदय में अपने शिक्षक के लिए रखना चाहिए। तब मन में एक प्रार्थना जगती है कि हे परमात्मा!इस आदर के योग्य हमें सदैव बनाए रखना। शिक्षक का ज्ञान विद्यार्थी को गढ़ता है तो विद्यार्थी का आदर भी शिक्षक को गढ़ता है।


          शिक्षा के दृष्टिकोण से पिछड़े हुए बांसवाड़ा शहर में पिछले 25 वर्षों से हर शिक्षक दिवस के दिन प्रमोद जी बड़ी फूलमाला,नारियल,मिठाई,डायरी और कलम लेकर कृतज्ञता भाव प्रकट करने जरूर आते हैं। जिस भाव के साथ वे अपने सर और मैडम का सत्कार करते हैं, उससे हमारा हृदय भावविभोर हो जाता है। लगभग घंटे भर की यह शाम अविस्मरणीय बन जाती है।


एक बार तो 4 सितंबर को उनका फोन आया और मैं अस्वस्थ और अन्यमनस्क होने के कारण किसी से भी मिलना नहीं चाहता था। उन्होंने निवेदन किया कि राजकीय आदेश से शिक्षा अधिकारी के रूप में मुझे आज रात में बस पकड़ कर बीकानेर के लिए जाना है। कल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के दिन यदि आपसे नहीं मिल पाऊंगा तो अंदर ही अंदर कुछ अपूर्णता बनी रहेगी। कृपया मुझे मिलने का आज अवसर दें।वे आए और मेरे टूटे हुए मन को अपने प्रेम और आदर का इतना बड़ा संबल दे गए कि उन अंधेरे दिनों में मन कुछ प्रकाशित सा हो गया। वे जब कभी भी आते हैं, अपनी पत्नी और बच्चों को भी साथ लाते हैं। उनकी धर्मपत्नी भी स्कूल की प्रिंसिपल हैं।


          मैंने उन्हें स्टूडेंट के रूप में पढ़ाया, इसलिए मेरे प्रति उनका भाव से भरा होना बहुत ज्यादा आश्चर्यचकित नहीं करता किंतु उनकी पत्नी और बच्चों में भी वही भाव देखकर मुझे बहुत आश्चर्य होता है। मैंने कई बार उन्हें कहा कि सारे विद्यार्थियों के लिए मैंने वही समय दिया,वही बातें बताई ; फिर सिर्फ आप ही क्यूं उस कृतज्ञता के भाव को अपने हृदय में संजोए हुए हैं? आप भी मुक्त होइए,मुझे भी मुक्त कीजिए। उनका जवाब था-"कुछ बंधन ऐसे होते हैं जिनमें और ज्यादा बंधने का मन करता है, कृपया आप मुक्ति की बात मत उठाइए।"


            एकलव्य की श्रद्धा के बारे में मैंने पढ़ा था, किंतु प्रमोद जी को देखकर एकलव्य मेरी आंखों के सामने जीवंत हो जाता है। बांसवाड़ा कॉलेज जब मैंने अगस्त1996 में ज्वाइन किया था, उसके बाद प्रमोद जी का बीए में प्रवेश हुआ था।


किसी भी नए शिक्षक में अपने आप को अच्छा शिक्षक साबित करने की जो ललक होती है, वह मुझमें भी थी। क्योंकि मैं एक खिलाड़ी जीवन से विद्यार्थी जीवन में अपने गुरुजनों के आशीर्वाद से प्रवेश करके उच्चशिक्षा में प्रवक्ता बन गया था, इस कारण से अपने आप को अच्छा शिक्षक साबित करने की वह ललक मुझमें जरूरत से कुछ ज्यादा थी। कॉलेज में नियमित क्लासेज खूब तैयारी के साथ लेता और उसके बाद घर पर पूछने आनेवाले विद्यार्थियों को भी विशेष समय देता।


            विद्यार्थियों के किसी भी समय आ जाने से गृहस्थ जीवन में कुछ बाधाएं आने लगीं तो प्रत्येक रविवार को सुबह 6:00 से 9:00 बजे तक का समय निर्धारित कर दिया। क्योंकि मेरे जीवन संवारने वाले गुरुजनों ने निःस्वार्थ और निःशुल्क मुझे पढ़ाया था, उनका ऋषिऋण चुकाने के लिए मैं भी पढ़ाने लगा।


        बहुत दिनों के बाद इस नियमित संवाद कार्यक्रम को नाम देने की बात उठी। प्रमोद जी जैसे विद्यार्थियों ने 'गुरु शिष्य संवाद' इसे नाम दिया। किंतु ओशो की शिक्षा ने बताया कि शिष्य केंद्र में होना चाहिए। क्योंकि वृक्ष अपने फल से जाना जाता है। अतः इस नियमित संवाद कार्यक्रम का नाम 'शिष्य-गुरु संवाद' पड़ा। संवाद से निकले हुए विचार समाज में फैलने लगे और पत्रकार लोग इसे समाचारपत्रों में जगह देने लगे।


               2013 में जब बांसवाड़ा से स्थानांतरण हो गया तो तन तो जाने-आने में उलझ गया किंतु मन विद्यार्थियों के साथ जुड़ा रहा। तब सोशल मीडिया के रूप में अपने विद्यार्थियों तक अपने विचार को पहुंचाने के लिए शिक्षक को एक आधार मिल गया। नए-नए विषयों पर चिंतन मनन के बाद नियमित लेखन से अपने शिक्षक होने का एहसास गहरा होता गया।


             गैर शैक्षिक कार्यों की अधिकता के कारण जब कॉलेज में क्लासेज बहुत कम होने लगी, उस वक्त में भी विद्यार्थियों की जिज्ञासा ने 'शिष्य गुरु संवाद' के माध्यम से मुझे शिक्षक बनाए रखा। गंगा के किनारे जो पाया था उसे माही के किनारे आकर लूटाने का आनंद प्रमोद जी जैसे विद्यार्थियों के प्रेम और आदर ने कई गुना बढ़ा दिया।


        गोविंद गुरु कॉलेज के दर्शनशास्त्र विषय की विभागाध्यक्षा डॉ अंजना रानी का अपने शिक्षकों के प्रति अनन्य प्रेम और पढ़ने के प्रति अनुराग ने एक ऐसा परिवेश दिया कि घर पर भी शिक्षालय की अनुभूति होने लगी। खेल में डूबे होने के बावजूद पढ़ने वालों की संगति ने किताबों की एक ऐसी दुनिया दी जो घर से दूर मेरे जीवन का सबसे बड़ा सहारा बन गई है।


         शिक्षक दिवस पर एक शिक्षक के लिए 'विद्यार्थी के भाव भरे हृदय' से ज्यादा अमूल्य उपहार और क्या हो सकता है? उस अमूल्य उपहार की अनुभूति को शब्दों में अभिव्यक्ति देने के लिए गणेश चतुर्थी से ज्यादा बड़ा शुभ दिन और दूसरा कौन हो सकता है?


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹