🙏हिंदी दिवस की शुभकामना🙏
संवाद
'दिल धड़कता है हिंदी में'
अंग्रेजी-माध्यम-वाले स्कूल के अधिकांश विद्यार्थी अपनी मातृभाषा में शिक्षा से वंचित होने पर गहरी समझ और ऊंची रचनात्मकता से भी वंचित हो जाते हैं। उनकी पीड़ा मेरे शब्दों में कुछ यूं ढली......
"सोचसमझकर अंग्रेजी स्कूल में
दाखिला करा दिया पिता ने
पर रचनात्मकता हो गई अवरुद्ध
और लगा कंठ भी हकलाने
मन का गीत अवरुद्ध हो गया, जीवन मेरा विरुद्ध हो गया।
विदेशी भाषा में जितनी भी बातें
मस्तिष्क में ठूंसी जाती
मातृभाषा से ही दिल में वो
फिर अपना पैठ बनाती ;
अब लगा द्वंद्व में जीने
बुझने लगी दिए की बाती
बेगानी हो गई मौलिकता
खो गई अपनी थाती।
भाव उठते हैं पर बोल क्रुद्ध हो गया
आत्मा का संगीत अवरुद्ध हो गया
इसी जद्दोजेहद में मैं तो
पक्का गोतमबुद्ध(बैल)हो गया ।"
हिंदी-माध्यम-वाले सर गणेश दत्त पाटलिपुत्र हाई स्कूल में मेरी पढ़ाई हुई। हिंदी माध्यम में पढ़ाई को लेकर एक सहजता थी।नियमित पढ़ाने वाले शिक्षकों और स्वाध्याय के बल पर पढ़ाई की गाड़ी आगे बढ़ती रही। ट्यूशन के पैसे नहीं थे,इसलिए विज्ञान की जगह कला में अधिक गति होती गई।
किंतु दसवीं बोर्ड की परीक्षा के समय खेल की दुनिया में जब बिहार टीम के साथ चंडीगढ़ गया तो इंग्लिश बोलने वालों के वर्चस्व को महसूस किया। क्रिकेट में अधिकतर शब्दावली इंग्लिश में होती थी- कम,स्टे,रन,कैच,वेट,ऑफ स्पिन,लेग स्पिन, फास्ट बॉलर,मीडियम पेशर,स्टंप,रन आउट,बोल्ड इत्यादि शब्द सहज रूप से हम लोग बोलते थे। उसमें जो क्रिकेटर धाराप्रवाह अपनी बातें इंग्लिश में बोलता था, वह छा जाता था। आश्चर्य की बात कि अंग्रेजी बोलने वाले ऐसे लोगों का एकेडमिक रिकॉर्ड उतना स्मार्ट नहीं था, जितना स्मार्ट वे अपनी छवि बना लेते थे।
इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स सिखाने वाले संस्थान सब जगह खुले हुए थे,किंतु उनकी फीस बहुत ज्यादा थी। इंग्लिश सीखने की आवश्यकता महसूस हुई और 'रैपिड इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स' पुस्तक ने इस दिशा में कुछ सहायता की। फिर भी हकलाने से ज्यादा स्थिति बेहतर नहीं हो पा रही थी।
प्रसिद्ध पटना कॉलेज में स्पोर्ट्सकोटा पर एडमिशन लेते ही राजनीतिविज्ञान और तर्कशास्त्र की किताबें इंग्लिश मीडियम में खरीद ली क्योंकि अधिकतर प्रोफेसर इंग्लिश में ही बोलते थे।खेल में ज्यादा समय चले जाने के कारण पढ़ने का समय कम मिलता था, उस पर से इंग्लिश मीडियम की किताबों ने मुसीबत कई गुना बढ़ा दी। डेढ़ साल निकलने के बाद मुझे लगा कि इंग्लिश मीडियम के फेरे में मैं फेल हो जाऊंगा। परीक्षा के 6 महीने शेष रह गए थे और इंग्लिश मीडियम छोड़कर हिंदी मीडियम से मैंने परीक्षा देने का फैसला लिया। हिंदी माध्यम में पढ़कर मैंने बी.ए.की परीक्षा में 73% अंक हासिल कर लिए। मेरा टूटता हुआ विश्वास हिंदी माध्यम ने लौटा दिया।
लेकिन जब क्रिकेट पर बैन लगा तो सीडीएस परीक्षा की तैयारी हेतु फिर इंग्लिश की विशेष तैयारी करनी पड़ गई। इंग्लिश और सामान्य ज्ञान की लिखित परीक्षा तो पास कर ली किंतु एसएसबी इंटरव्यू में चार बार असफलता मिली क्योंकि धाराप्रवाह इंग्लिश बोलने में गति नहीं थी।
बी.ए. के तीनों विषयों संस्कृत,राजनीति विज्ञान और तर्कशास्त्र में से संस्कृत में ज्यादा नंबर आने के कारण एम.ए. में संस्कृत विषय ले लिया। संस्कृत विषय को संस्कृत भाषा में लिखने में कोई गति नहीं थी और बोलने में तो एकदम नहीं थी। फिर भी संस्कृत में व्याख्या वाले अंश को रटकर काम चल जाता था।
एम.ए.में अपने सीनियर्स की कृपा से संस्कृत माध्यम के नोट्स को रटकर अच्छा नंबर पा गया। लेकिन अनुभव में आया कि इंग्लिश से भी ज्यादा कठिन संस्कृत है। कारण यह था कि इंग्लिश जैसा भी बोलो, थोड़ा बहुत व्यवहार में थी और चल जाती थी; संस्कृत तो अति शुद्धतावादी दृष्टिकोण के कारण और कठिन शब्द रूप, धातु रूप के कारण एकदम नहीं चल पाती थी। इंग्लिश का न्यूज़पेपर प्रत्येक दिन पढ़ने के कारण इंग्लिश समझ में आने लगी किंतु संस्कृत इस प्रकार से व्यवहार में नहीं थी।
लेकिन संस्कृत विषय के ज्ञान को हिंदी माध्यम में लिखकर मैंने जूनियर रिसर्च फैलोशिप(JRF) की परीक्षा पास कर ली और कॉलेज में व्याख्याता बनने के रास्ते खुल गए।
किंतु पीएचडी के समय फिर से इंग्लिश सामने खड़ी हो गई। क्योंकि मेरे शोध-निदेशक मुझे व्याकरण विषय में शोध करवा रहे थे और वे विदेशी लेखकों की पुस्तकों को पढ़ने को कहते थे,जो अंग्रेजी में थीं। विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षा के लिए भी अंग्रेजी को विशेष रूप से पढ़ना पड़ता था क्योंकि अधिकतर पुस्तकें अंग्रेजी माध्यम में ही उपलब्ध थीं। यहां तक कि अन्य विषयों के अधिकतर प्रसिद्ध शिक्षक इंग्लिश में ही बोलते थे।
बी.एड. की बदौलत जब सेंट्रल स्कूल में शिक्षक पद के लिए साक्षात्कार देने गया तो उन्होंने संस्कृत में ही स्वागत किया और संस्कृत में ही प्रश्नों के उत्तर देने को कहा। मैंने स्पष्ट रूप से कहा कि संस्कृत पढ़ कर समझ जाता हूं और थोड़ा बहुत लिख लेता हूं किंतु बोलने का अभ्यास एकदम नहीं है। फिर भी मेरा सेलेक्शन हो गया।
हिंदी भाषी राज्य हिमाचल प्रदेश में कॉलेज व्याख्याता के लिए 1995 में नेट पास किए हुए विद्यार्थियों की परीक्षा ली गई। उसमें पहला पेपर जो सामान्य ज्ञान का था इंग्लिश मीडियम में था और क्वालीफाइंग था। वहां इंग्लिश की समझ के कारण मैं तो उत्तीर्ण हो गया लेकिन संस्कृत मुझे पढ़ाने वाले मेरे गुरुजन सामान्य ज्ञान का पेपर इंग्लिश में होने के कारण क्वालीफाई नहीं कर पाने से अनुत्तीर्ण हो गए।
राजस्थान कॉलेज शिक्षा में संस्कृत प्रवक्ता के पद हेतु साक्षात्कार भी हिंदी माध्यम में ही हुआ।जब संस्कृत का प्रवक्ता बन गया तो इंग्लिश और संस्कृत दोनों में अपनी गति बढ़ाने के लिए कुछ विशेष प्रयास किए। किंतु विद्यार्थियों की स्थिति और परिवेश के कारण वह बहुत ज्यादा फलदायी नहीं हुआ। किसी टॉपिक की तैयारी कर इंग्लिश या संस्कृत में 20-25 वाक्य बोलना तो आ गया किंतु इन दोनों ही भाषाओं के बोलने में सहजता एकदम नहीं थी।
धीमे-धीमे पता चला कि विषय का ज्ञान कुछ और होता है और भाषा का प्रयोग कुछ और। विद्यार्थियों के साथ नियमित रविवार को निःशुल्क चर्चाएं विशेष प्रयास से संस्कृत और इंग्लिश में शुरू की। किंतु धीमे-धीमे हिंदी में सारी चर्चाएं आगे बढ़ने लगीं और हिंदी में भाविभिव्यक्ति अविरल गति से चलने लगी।
संस्कृत, इंग्लिश और हिंदी तीनों विषयों की मैगजीन मंगाकर पढ़ना शुरू किया तो अनुभव में आया कि हिंदी की मैगजीन एक सप्ताह से भी कम समय में पूरी पढ़ लेता हूं किंतु इंग्लिश और संस्कृत के मैगजीन महीने होने पर भी खत्म नहीं होते।
मेरी मातृभाषा भोजपुरी है। भोजपुरी बोलने में कोई दिक्कत नहीं होती किंतु भोजपुरी में लिखने का अभ्यास नहीं है। हिंदी पढ़ने,बोलने और लिखने में थोड़ी भी कठिनाई नहीं होती। बच्चों के स्कूल में अभिभावक के रूप में इंग्लिश में बोलना पड़ता था, थोड़ी बहुत कठिनाई तो होती थी लेकिन कामचलाऊ अभिव्यक्ति कर लेता था। संस्कृत भाषा तो किताबों में पढ़ने के अतिरिक्त और थोड़ी बहुत संस्कृत की व्याख्या बताते समय बोलने के अतिरिक्त अन्यत्र बोलने का कोई अवसर ही नहीं होता था।
कॉलेज में इंग्लिश और संस्कृत के प्राध्यापक हिंदी माध्यम से ही विद्यार्थियों को अधिकतर बातें पढ़ाते हैं और समझाते हैं। रोजगार की भाषा इंग्लिश का ज्यादा प्रचार-प्रसार है और संस्कृत अप्रचलित और कर्मकांड की भाषा के रूप में ज्यादा प्रचारित है। इंग्लिश मीडियम वाले अपने साथियों के साथ जब मैं अपनी तुलना करता हूं तो यह पाता हूं कि इंग्लिश फर्राटेदार बोलने के कारण उनके सामने हिंदीमाध्यमवाले थोड़ी हीनता के शिकार हो जाते थे लेकिन विषय के ज्ञान और अनुभूति की अभिव्यक्ति में हिंदीमाध्यमवाले अंग्रेजीमाध्यमवाले से बेहतर थे। यही कारण था कि आगे की प्रतियोगिता परीक्षा में और किसी विषय पर अपनी लेखनी को आगे बढ़ाने में हिंदीमाध्यमवाले उनकी अपेक्षा ज्यादा सफल साबित हुए।
भाषा के संबंध में जीवन के अनुभवों का सार निचोड़ यह है कि........
'चाहे जो भी भाषा बोलूं पर दिल धड़कता है हिंदी में
प्रियतम तेरे रूप का राज छिपा हुआ है इस बिंदी में।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹