संवाद


'गांधी को मारा किसने?'


हिंसा की आग में जल रहा संसार 'विश्व अहिंसा दिवस' 2अक्टूबर को मनाएगा‌। मैंने विद्यार्थियों से जानना चाहा कि गांधी के बारे में वे क्या जानते हैं और कितना जानते हैं? आश्चर्यजनक अनुभव हुआ कि आज की पीढ़ी महात्मा के बारे में बहुत कम जानती हैं और अब तो गांधी का उपहास उड़ाने लगी हैं-'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी..... जैसे उदाहरण के द्वारा। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने महात्मा को मजाक का विषय बना दिया तो आज की शिक्षा के हालात पर हंसा जाए या रोया जाए-यह सोचते हुए मैं परेशान हो गया; तब मेरे अंतर्-मन से यह कविता निकली जिसका शीर्षक है-


'गांधी को मारा किसने?'


"सत्य-प्रेम-अहिंसा को गले लगाया ही नहीं


गांधी को हमने कभी अपनाया ही नहीं।


झूठे लोग घृणा और हिंसा के आदी हो गए हैं


विदेशीफैशनपरस्त प्रशंसक-ए-खादी हो गए हैं।


राष्ट्रपिता और महात्मा कहकर हमने उनको दूर कर दिया


सिर्फ आदर्शों और मूर्तियों में रहने को मजबूर कर दिया।


अब तो हम उनके चरित्र पर कीचड़ उछालने लगे हैं


सोच और संस्कृति के नए रूप को निखारने लगे हैं।


गोडसे ने तो सिर्फ नश्वर शरीर को मारा


किंतु गांधीवाद को अमर कर दिया


गांधीवादियों ने सिर्फ खादी संवारा


और उन्हें पत्थरों में बेखबर कर दिया।


अनुयायियों ने उनकी मूर्ति पर फूल और सिद्धांतों पर इतनी धूल चढ़ाई है


आत्मा रोती है उनकी और पुनः पैदा न होने की बापू ने कसम खाई है।"


            किसी भी महान इंसान को मारने के दो रास्ते हैं-या तो उसे भगवान बना दो या शैतान। भगवान बनाकर उसे पूजा का विषय घोषित कर एक विशेष दिन फूल चढ़ा दो अथवा शैतान बनाकर उसके बारे में अपशब्द कहने लगो।इन दोनों ही रास्तों से हमारी आत्मा का बोझ हल्का हो जाता है क्योंकि न तो स्तुति करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है और न गाली देने के लिए।


           आत्मा पर बोझ तब पड़ता है और कुछ विशेष तो तब करना पड़ता है जब इंसान को सिर्फ इंसान समझा जाए और उसके जैसा बनने की कोशिश की जाए। एक ऐसा इंसान जो सबकी तरह अनेक कमजोरियां लेकर पैदा हुआ किंतु सत्य के साथ प्रयोग करता हुआ मोहन से महात्मा बन गया।


            गांधी को न जानने से अब गांधी को तो कुछ नुकसान होने वाला नहीं है किंतु नई पीढ़ी को तो बहुत नुकसान हो रहा है। अनुभव की बात कहूं तो 10% विद्यार्थी कॉलेज के क्लास में उपस्थित हो रहे हैं और शिक्षकों के संपर्क में रहने वाले विद्यार्थियों में से एक प्रतिशत भी गांधी के बारे में सत्य नहीं जानते हैं। फिर वे सत्य के साथ क्या प्रयोग करेंगे?


         आज अपने जीवन के अवसाद से विद्यार्थी आत्महत्या कर रहे हैं और मोहनदास गुलाम भारत के सार्वजनिक जीवन की सारी निराशाओं और अवसादों को लेकर के भी अंत तक लड़ते रहे और गोली खाकर भी मुख से 'हे राम!'कहते हुए प्राण त्याग किए।


        गोडसेवादी गांधी से महात्मा और राष्ट्रपिता का पद छीनना चाहते हैं जबकि गांधीवादी उन्हें महात्मा से भगवान बनाना चाहते हैं। 'महात्मा' कहा था नोबेल पुरस्कार विजेता कविवर रविन्द्रनाथ टैगोर ने और 'राष्ट्रपिता' कहा था आईसीएस की नौकरी छोड़कर देश सेवा को आए नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने। इन दोनों महान विभूतियों के विचार गांधी से नहीं मिलते थे,फिर भी दोनों के हृदय में गांधी का स्थान बहुत ऊंचा था। गांधी की ख्वाहिश न तो महात्मा बनने की थी,न राष्ट्रपिता बनने की और न भगवान बनने की होगी ; वे तो सिर्फ अपने आप को ऐसा इंसान बनाना चाहते थे जो दूसरों का दुख दूर कर सके-


'वैष्णव जन तो तेने कहिये,


जे पीड परायी जाणे रे ।


पर दुःखे उपकार करे तो ये,


मन अभिमान न आणे रे ॥'


            मेरी नजर में आज भी गांधी जिंदा हैं।कुछ लोग हैं जो सत्य,प्रेम,अहिंसा के रास्ते पर आज भी चल रहे हैं और बापू को सिर्फ इंसान के रूप में देखना और समझना चाहते हैं। सत्य के साथ ऐसे लोगों का प्रयोग आज भी चल रहा है।


महापुरुषों के मूल्यांकन का मैं पक्षपाती हूं किंतु उन्हें भगवान या शैतान बनने के पक्ष में नहीं।आचार्य रजनीश के समान गांधी के सिद्धांतो की कड़ी आलोचना करने वाला व्यक्ति दूसरा नहीं मिल सकता किंतु गांधी से इतना ज्यादा प्रेम करने वाला भी दूसरा व्यक्ति नहीं मिल सकता। उनका कहना है कि गांधी कोई कागजी फूल नहीं है जो आलोचना की बारिश से भींगकर गल जाएंगे , गांधी तो भारत के महान मूल्यों को अपने हृदय पर अंकित कर लेने वाले वे प्रस्तर-प्रतिमा हैं जो आलोचना की बारिश से धूलधंवास के झड़ जाने से और निखर जाएंगे।


            आज जरूरत है गांधी जयंती के बहाने सत्य के साथ प्रयोग किया जाए। नई पीढ़ी के साथ बैठकर गांधी वार्ता चलाई जाए ताकि विवाद को विभाजन की ओर मोड़ने वाली धारा को संवाद की ओर मोड़कर भारत को जोड़ा जाए-


'अंधेरी रात में एक चराग जलाया जाए


मोहन व सत्य को प्रयोग में लाया जाए।'


       मोहन व सत्य का इतना बड़ा आकर्षण था कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिंदू ,मुस्लिम,सिख,ईसाई,नर-नारी, बाल-वृद्ध सभी एक साथ आ गए। गांधी और उनकी आत्मकथा 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' को यदि नई पीढ़ी नहीं पढ़ती है और हम उन्हें पढ़ने को प्रेरित नहीं करते हैं तो हमें स्वीकार करना होगा कि गांधी को हम सबने मारा।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹