🙏विश्व शिक्षक दिवस की शुभकामना🙏


संवाद


'शिक्षकों की आवाज को महत्व देना'


5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाने के बाद 5 अक्टूबर को 'विश्व शिक्षक दिवस' मनाना पुनरुक्ति से ज्यादा प्रतीत नहीं होता। लेकिन 5 अक्टूबर 2024 की थीम-'शिक्षकों की आवाज को महत्व देना: शिक्षा के लिए एक नए सामाजिक अनुबंध की ओर..... (Valuing teacher voices....).' इतना महत्वपूर्ण है कि इस पर जितनी बार विचार किया जाए,उतना ही अच्छा है। शिक्षातंत्र में शिक्षक की भूमिका सरकार द्वारा बनाई जाने वाली शिक्षा नीति को शिक्षार्थी के माध्यम से समाज तक पहुंचाने की होती है। अर्थात् शिक्षक बीच की कड़ी है जो आकाश और पाताल दोनों को जोड़ता है। आज बीच की यह कड़ी बहुत कमजोर हो चुकी है, जिसके कारण सरकार और समाज दयनीय दशा को प्राप्त हो रहे हैं, अतः-


'जरा जमीं को उठने दो अपने पांवों पर,


जरा आकाश की बाहों को भी झुक जाने दो


उसको गाने दो,अपना गीत मेरे ओठों से


और मुझे उसके सन्नाटे को गुनगुनाने दो।'


                    नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में लगे अधिकांश शिक्षक आज यह महसूस कर रहे हैं कि नीति कितनी भी अच्छी क्यूं न हो किंतु यह सफल और सुफल नहीं हो सकती जब तक वास्तविक धरातल पर काम करने वाले शिक्षकों की आवाज सुनी नहीं जाती। राहु अमृत के योग्य नहीं था, फलत:दो भागों में विभाजित हुआ- राहु और केतु। इसमें अमृत का दोष नहीं है बल्कि दोष बांटनेवाले का है, जिसने देवताओं की पंक्ति में छुपकर बैठे अनुपयुक्त को नहीं पहचाना। परिणाम यह हुआ कि जिस अमृत को पीकर देवता अमर हो गए, उसी अमृत को पीने से राहु काटा गया।


      नई शिक्षा नीति के बहुत सारे प्रावधान ऐसे हैं कि जो समय से आगे के हैं। शिक्षा भावी चुनौतियों को पहले ही पहचानकर उस दिशा में आगे कदम बढ़ाती हैं। इस दृष्टि से नई शिक्षा नीति की अपनी महत्ता है‌। लेकिन शिक्षा की दृष्टि से अत्यंत पिछड़े हुए जनजातीय क्षेत्र के लिए यह एक विशेष चुनौती बनती जा रही है क्योंकि स्कूली शिक्षा की दयनीय दशा के कारण उच्च शिक्षा में आने वाले यहां के विद्यार्थी नई तकनीक,नए पाठ्यक्रम और नए बदलावों के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे हैं। उस पर से गैरशैक्षिक-कार्यों के बोझ तले दबा शिक्षक न सरकार की नीतियों के साथ न्याय कर पा रहा है और न विद्यार्थियों के साथ।


           ऐसी स्थिति में किंकर्तव्यविमूढ़ शिक्षक न पीछे कदम हटा पा रहा है क्योंकि ऊपर से सरकार का भारी दबाव है और न आगे कदम बढ़ा पा रहा है क्योंकि विद्यार्थियों की क्षमता इस नई नीति के लायक नहीं है। सेमेस्टर प्रणाली में हर 6 महीना पर परीक्षा हो रही है किंतु बिना पाठ्यक्रम को पूरा किए परीक्षा ली जा रही है और विद्यार्थी भी परीक्षा में जो लिख रहे हैं,उनकी उत्तरपुस्तिका जांच करते समय परीक्षक के होश फाख्ता हो रहे हैं।


          अधिकांश प्राचार्यों की प्राथमिकता में यह रहता है कि ऊपर से मांगी जाने वाली सूचनाओं को प्राथमिकता से दे दिया जाए और विद्यार्थियों की प्राथमिकता यह है कि डिग्री मिल जाए। शिक्षक न सूचना देने के पक्ष में है ,न डिग्री देने के; वह तो क्लास में विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम को पूरा करने के पक्ष में हैं। किंतु जिस क्लास में 10% विद्यार्थी नहीं आ रहे हैं,उस क्लास की शतप्रतिशत उपस्थिति देने को शिक्षक बाध्य है।


         माननीय कुलपतियों की प्राथमिकता यह है कि परीक्षा सही समय पर हो जाए और परीक्षाफल सबसे पहले निकाल दिया जाए‌ ताकि विश्वविद्यालय का नाम रोशन हो जाए। योग्यता तो नहीं बढ़ रही है किंतु गोल्डमेडलिस्टों की संख्या बढ़ती जा रही है। विश्वविद्यालय ही जब फर्जी डिग्रियां बांटने लगे तो क्या होगा! विश्वविद्यालय के पास अपना स्टाफ नहीं है किंतु एनरोलमेंट की संख्या ही नहीं,शोधार्थियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। शोधपर्यवेक्षकों को पढ़ने का समय नहीं मिलता और न लाइब्रेरी की कोई सुविधा है,फिर भी शोध करवाए जा रहे हैं।योग्यता को दरकिनार कर राजनीतिक हस्तक्षेप से होने वाली कुलपतियों की नियुक्तियों पर देश के प्रमुख शिक्षाविद् अपने लेखों से बार-बार सवाल उठा रहे हैं। आस्था के सबसे बड़े केंद्र जब कुलपति ही सवालों की घेरे में है तो इस देश की शिक्षा का भविष्य क्या होगा!


शिक्षा सचिव महोदय और आयुक्त महोदय ने यद्यपि 1 जुलाई से गुरु शिष्य परंपरा शुरू करने का आह्वान किया था, किंतु पर्याप्त गुरुओं के अभाव में कई विषयों की पढ़ाई कॉलेजों में नहीं हो रही है। उनकी प्राथमिकता यही है कि सरकारी नीतियों के अनुसार कैलेंडर का कार्य पूरा हो जाए।


          शिक्षक को यह स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है कि जिस क्लास में भारत का भविष्य तैयार होता है, उस क्लास में विद्यार्थी नहीं आ रहे हैं। यदि युवा पीढ़ी क्लास में नहीं आ रही है और जीवन निर्माण करने वाले शिक्षकों के संपर्क में नहीं है तो निश्चितरूपेण यह समाज और सरकार दोनों के लिए खतरे की घंटी है। जो विद्यार्थी क्लास में आ रहे हैं, वे भी मौलिक पुस्तकों की जगह पासबुक खरीद रहे हैं। स्कॉलरशिप,स्कूटी इत्यादि से संबंधित सूचना पाने के लिए विद्यार्थी ही नहीं अभिभावक भी इतने उत्सुक हो गए हैं कि शिक्षालय सूचनालय में परिवर्तित हो चुका है।


शिक्षकों की कोई सुनने वाला नहीं है। कागजों में सब काम ठीक चल रहा है।डिग्री बांटने वाले ऐसे शिक्षा-संस्थान कागजी फूल तैयार कर रहे हैं जो दूर से देखने पर काफी चमकीले और सुंदर लगते हैं किंतु पास आने पर उनमें कोई सुगंध नहीं मिलती ; बल्कि अब तो दुर्गंध आने लगी है जो पेपरलीक और फर्जी तरीके से नौकरी पाने वाली घटनाओं में मिल रही है।


            वृक्ष अपने फल से पहचाना जाता है। शिक्षक की सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि जिस शिक्षा रूपी वृक्ष पर शुद्ध आवेदनपत्र तक नहीं लिखने वाले विद्यार्थी रूपी फल लग रहे हैं, उसको देखकर वह अपने आप को शिक्षक होने पर कैसे गौरवान्वित अनुभव करे?


        ज्ञानप्रधान भारतीय संस्कृति ने जिस शिक्षक को आकाश की ऊंचाइयां दी, वह शिक्षक आज जमीन पर भी ठीक से रेंग नहीं पा रहा है। खासकर सरकारी शिक्षकों के आत्मविश्वास को इतना हिला दिया गया है कि वे प्राचार्य के सामने मुंह नहीं खोलते, फिर वे सरकार के सामने क्या मुंह खोलेंगे? अपनी नौकरी बचाने के चक्कर में शिक्षक जब स्वयं ही अपनी आत्मा की आवाज नहीं सुनता, वह दूसरों को अपनी आवाज कैसे सुना सकता है?


        ऐसे में 5 अक्टूबर 2024 की थीम-'शिक्षकों की आवाज को महत्व देना....' देना मेरी नजर में एक पुकार है,एक प्रेरणा है। हे शिक्षकों! अपनी आवाज उठाओ। सरकार को धरातल की वास्तविक जानकारी दो,साथ ही विद्यार्थी को सिर्फ नौकरी के लिए नहीं बल्कि जीवन के लिए तैयार करो। अपना शिक्षक धर्म निभाने के लिए अनुकूल परिस्थितियों की मांग करो।


                क्योंकि इस वर्ष का 'विश्व शिक्षक दिवस' शिक्षकों के सामने आने वाली प्रणालीगत चुनौतियों को दूर करने और शिक्षा में उनकी भूमिका के बारे में अधिक समावेशी संवाद स्थापित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है, अतः सत्य सामने लाने की प्राथमिक जिम्मेवारी शिक्षकों की है। किंतु जब शिक्षक सिर्फ सेवाकर्मी बनकर रह जाए और अपनी आत्मा की आवाज को सुनने और सुनाने में असमर्थ हो जाए तो समझिए कि शिक्षा की नाव भंवर में फंस चुकी है-


'खफा माझी है मुझसे और मौजों में सफीना है


खबर मौसम की यह भी है कि बारिश का महीना है।'


शिक्षकों की बढ़ती कमी और काम करने की घटती परिस्थितियों से सरकार और समाज दोनों वाकिफ है किंतु उसके परिणामों से जितना वाकिफ शिक्षक है,उतना कोई नहीं : क्योंकि देश कल कहां जाएगा,यह वहां की शिक्षा की दशा और दिशा निर्धारित करती है। ऐसे में शिक्षकों की आवाज सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹