संवाद ०
विश्व छात्र दिवस
डॉ.कलाम के जन्मदिवस 15 अक्टू. को UN ने 2010 में वर्ल्ड स्टूडेंट डे के रूप में घोषित किया। कारण था- छात्रों के प्रति उनका बेपनाह प्यार और शिक्षा के प्रति गहरा लगाव। ताउम्र वे सीखते सिखाते रहे और राष्ट्रपति बन जाने पर भी मरते दम तक हर पल छात्रों के लिए सोचते रहे। एक मायने में उनके जीवन का केंद्र बिंदु शिक्षा और छात्र रहे।
किंतु दुर्भाग्य से आज Class-teaching न्यूनतम हो गयी है और छात्रों की शिक्षालयों से दूरी अधिकतम हो गई है।
अतः आज विचार करने का दिवस है कि महाविद्यालय छात्र-केंद्रित शैक्षणिक और सह-शैक्षणिक गतिविधियों के जीवंत केंद्र कैसे बनें? महाविद्यालय जीवंत बनते हैं जब पढ़ने-पढ़ाने का बहुत अच्छा माहौल हो। जब छात्र अपने ज्ञान की प्यास बुझाने आते हों और शिक्षक ज्ञान का दरिया बनकर बहने को तत्पर होते हों। बहुत कम खर्च में स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई मैंने पूरी कर ली और शिक्षकों की कर्तव्य निष्ठा और समर्पण ने बहुत कुछ सिखाया। अध्ययन- अध्यापन के गंभीर वातावरण के कारण शिक्षकों के प्रति गहरा आदर भाव रहा और कभी ट्यूशन या कोचिंग की जरूरत महसूस नहीं हुई।
मेरे अधिकांश सहपाठी निर्धनता के बावजूद समर्पित शिक्षकों के सहयोग से अपनी योग्यता के अनुसार बड़े पदों पर आसीन भी हुए। 1996 में जब कॉलेज में मैंने प्रवक्ता के रूप में ज्वाइन किया तब भी पढ़ने-पढ़ाने का माहौल बहुत अच्छा था और सभी क्लासेज नियमित चलने के कारण विद्यार्थियों के जीवन से जुड़ाव भी गहरा था। यहां तक कि अवकाश के दिन भी विद्यार्थी घर पर अपने जिज्ञासा समाधान के लिए आ जाते थे और रविवार को 'शिष्य-गुरु संवाद' चलता था।
उस समय ट्यूशन या कोचिंग का व्यवसाय नाममात्र का चलता था और उसमें लिप्त सरकारी कर्मचारी को छुपा के यह काम करना पड़ता था।
किंतु पिछले 10-15 वर्षों में जैसे-जैसे समितियों की संख्या बढ़ती गई और उनसे संबंधित सूचनाएं प्रमुख होती चली गईं ,वैसे-वैसे क्लासेज कम होते चले गए और छात्र ट्यूशन या कोचिंग की ओर उन्मुख होने लगे। कॉलेज में शिक्षकों की संख्या आधी हो गई और शैक्षिकेतर गतिविधियां प्रमुख हो गई। एक-एक शिक्षक कम से कम 10-10 समितियों के काम में सूचनाएं जुटाने और भेजने में व्यस्त हो गया।
दूसरी तरफ शिक्षकों के प्रमोशन के लिए शोध-पत्र लिखना,सेमिनार अटेंड करना या कराना और महत्वपूर्ण समितियों का दायित्व लेना महत्वपूर्ण हो गया। एडमिशन,इलेक्शन और एग्जामिनेशन कॉलेज के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गए।
इस व्यवस्था में जैसे-जैसे क्लास टीचिंग गौण होती गयी, छात्र-शिक्षक संबंध शिथिल होता चला गया। सूचना और सह शैक्षणिक गतिविधियों की प्रमुखता ने शिक्षालय को कार्यालय में तब्दील कर दिया।
HRD मंत्री स्मृति ईरानी जी के समय नई शिक्षा नीति की बहस में बांसवाड़ा कलेक्ट्रेट में अपने कॉलेज का प्रतिनिधित्व मैं कर रहा था। सभा में एक प्रश्न उठा कि कितने सरकारी कर्मचारियों के बच्चे सरकारी शिक्षालयों में पढ़ते हैं? उत्तर में संख्या नगण्य थी। मैंने एक प्रश्न खड़ा किया कि कितने सरकारी कर्मचारी यहां ऐसे हैं जो प्राइवेट शिक्षालयों से पढ़कर आए हैं? इस प्रश्न के उत्तर मेँ भी संख्या नगण्य थी। तब मैंने सभा से अनुरोध किया था कि यह विचारणीय विषय है कि सरकारी शिक्षालयों से पढ़कर हम सभी इतने अच्छे पदों तक पहुंच गए क्योंकि हमारे शिक्षकों का सारा ध्यान छात्रों पर केंद्रित था। किंतु अब हम सरकारी कर्मचारी होने के बावजूद सरकारी शिक्षालयों से अपने बच्चों को दूर कर लिए हैं क्योंकि वहां पर बच्चों पर ध्यान नहीं दिया जाता।
कोरोना संकट ने तो छात्रों को और दूर कर दिया। सरकारी आदेश पर शिक्षक दिन-रात वीडियो बनाने और व्हाट्सएप ग्रुप के द्वारा छात्रों से जुड़ने का प्रयास कर रहे हैं किंतु 5-10% छात्र ही इसका लाभ उठा पा रहे हैं। जिन घरों में रोटी की कमी हो गई है,वहां स्मार्ट फोन और इंटरनेट की उपलब्धता की आशा नहीं की जा सकती। ऐसे अभावग्रस्त छात्रों के लिए ऑनलाइन एजुकेशन उनकी निराशा को और बढ़ा रही है।इन कारणों को ईमानदारी से स्वीकार करने और उसमें सुधार करने का वक्त आ गया है।
अन्यथा एक तरफ उच्च योग्यता प्राप्त सरकारी शिक्षकों का आत्मबल गिर जाएगा और दूसरी तरफ सरकारी शिक्षण संस्थान की कीमत पर निजी शिक्षण संस्थान और व्यावसायिक कोचिंग संस्थान फलते-फूलते चले जाएंगे।
यह बात सभी को समझनी होगी कि शिक्षक-छात्र संबंध और शिक्षा किसी शिक्षालय की आत्मा होते हैं। उस आत्मा को बचाने पर सारा जोर होना चाहिए।
कलाम साहब के जीवन का यही संदेश है। कलाम का अर्थ होता है वाणी । भारत रत्न ने अपनी कलाम से और कलम से छात्रों को सदैव प्रेरित किया और उनके मसीहा बन गए।
अभी हमारी शिक्षा-व्यवस्था की स्थिति उस सेठ की तरह है,जिसने मकान में आग लगने पर सबसे पहले अपने खाता-बही को बचाया जिसमें लेन-देन का हिसाब किताब था ,इसके बाद रुपयों और जेवरातों की अलमारी को बचाया किंतु अपने एकमात्र पुत्र को जो शयन कक्ष में सो रहा था, उसे भूल गया। सारी संपत्ति का इकलौता वारिस उस आग में जलकर मर गया।
मुझे यही डर दिन-रात सता रहा है कि कहीं हम सब भी आयुक्तालय को भेजी जाने वाली सूचनाओं की फाईल और अन्य जरूरी सामान ही तो नहीं बचा रहे हैं ? और कहीं हमारे ज्ञान का उत्तराधिकारी छात्र हमारी आंखों से ओझल तो होता नहीं जा रहा है??
"मुश्किल से बचाई थी जो एहसास की दुनिया,
इस दौर के रिश्ते उसे बाजार न कर दे।
यह सोचकर नजरें वो मिलाता ही नहीं है,
आंखें कहीं जज्बात का इजहार न कर दे।।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹