संवाद


'प्रजावत्सलता की जीवंत प्रतिमा अहिल्याबाई'


गौतम की नारी अहिल्या शापवश प्रस्तर बन गई थी और मुक्ति के लिए राम के चरणरज की प्रतीक्षा कर रही थी किंतु इंदौर की रानी अहिल्या अपनी मृत्यु के इतने वर्षों के बाद भी जीवंत प्रतिमा बन चुकी हैं जिनसे जीवन आदर्शोन्मुख होता है।हर सरकार और विचारधारा की अपनी प्राथमिकता होती है। इसलिए इतिहास का पुनर्लेखन और महापुरुषों का चयन एक महत्वपूर्ण विषय बन जाता है। इतिहास और महापुरुष का चुनाव भावीपीढ़ी का मार्गदर्शन करते हैं। शिक्षा जगत की इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं क्योंकि इतिहास और महापुरुष के बारे में ज्ञान अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का कार्य शिक्षक ही करते हैं।


इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अगली पीढ़ी के दिलोदिमाग में बिठाने के पीछे मेरी नजर में सबसे मुख्य उद्देश्य यह है कि इस सृष्टि का माध्यम जो स्त्री है;वह अबला नहीं सबला है। खासकर कन्या महाविद्यालय में यह संदेश-विशेष हर कन्या तक पहुंचना ही चाहिए कि तुम्हारे व्यक्तित्व में एक अहिल्या की संभावना छिपी हुई है। जब तुम अहिल्या को जानोगी तो वह संभावना मूर्त रूप लेने लगेगी।


       एक विचार जिंदगी बदल देता है जिसका उदाहरण है कि एक कुम्हार मिट्टी से चिलम बना रहा था। एक शिक्षक गुजरा और बोला कि कुम्हार भाई! यह क्या कर रहे हो? कुम्हार ने कहा कि चिलम बना रहा हूं। शिक्षक ने कहा कि चिलम स्वयं भी जलेगी और दूसरों को भी जलाएगी। क्यों नहीं इसी मिट्टी से तुम घड़ा बनाते हो जो स्वयं भी शीतल रहेगा और दूसरों को भी शीतलता पहुंचाएगा? शिक्षक तो कह कर चला गया किंतु कुम्हार उस मिट्टी से घड़ा बनाने लगा। मिट्टी से आवाज आई कि क्या हुआ कुम्हार भाई?


कुम्हार ने कहा कि मेरा विचार बदल गया। मिट्टी ने कहा कि तुम्हारा तो विचार बदला, मेरा तो जीवन बदल गया।


              रानी अहिल्याबाई का विचार जीवन को पलायन से संकल्प की ओर ले जाता है, निराशा से आशा की ओर आंखें खोलता है, घर की चारदीवारी से बाहर निकाल कर राज्य की रखवारी तक पहुंचा देता है। एक कोमल लड़की अपने जीवन की कठोर चुनौतियों का सामना करके इतिहास प्रसिद्ध महारानी अहिल्याबाई बन जाती हैं।


            किसी के लिए भी अपने प्रियजन की मौत तोड़ देने के लिए काफी होती है। पति की मौत के बाद वे भी सती हो जाना चाहती थीं लेकिन ससुर की प्रेरणा ने उन्हें अपनी ज़िम्मेदारियों की ओर मोड़ा। 1754 में उनके पति की मौत , 1766 में उनके ससुर की मौत और 1776 में उनके बेटे की मौत ने उनके जीवन की ऐसी अग्निपरीक्षा ली जो इतिहास में बहुत कम सुनने को मिलती है। लेकिन परम शक्ति शिव की भक्त अहिल्याबाई इस अग्निपरीक्षा से ऐसी गुजरी जिसकी मिसाल भी इतिहास में दूसरी नहीं मिलती है। मृत्यु जीवन का सबसे बड़ा सत्य है किंतु उस मृत्यु को भी जीवन बना लेने की कला उनको महाकाल शंकर से प्राप्त हुई-


'बढ़ती चली गई उमर हर एक घूंट पर


पिया है हमने विष भी इतना कमाल से।'


             वे सभी राज्यादेश में नीचे अपना नाम अहिल्याबाई नहीं लिखकर शिवशंकर लिखती थी। राज्य की उन्नति के लिए और जनता के कल्याण के लिए उन्होंने इतने प्रकार के कार्य किए जिन्हें देखकर लगता है कि अक्षय शक्ति का स्रोत उन्हें प्राप्त हो गया हो।


           न्यायप्रियता और प्रजावत्सलता के उनके किस्से ऐसे हैं,जिन पर विश्वास करना आज मुश्किल होता है। मंदिरों का जीर्णोद्धार, धर्मशालाओं का निर्माण तथा कला और संस्कृति के विकास में उनका अद्भुत योगदान रहा। इसी कारण से लोकतंत्र के जमाने में राजतंत्र के जमाने की शख्सियत अहिल्याबाई जी आदर्श के रूप में हैं क्योंकि वे हर प्रजा का पालन ऐसे करती थीं जैसे कोई मां अपने पुत्र का करती हैं।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹