संवाद


'दीया की अस्मिता,पटाखा का अहंकार'


दीया मौन में जलता रहा,पटाखा खूब शोर करता रहा। सुबह में जब अंधेरे में घूमने निकला तो कई दरवाजे पर दीये की लौ बड़े शांत भाव से जल रही थी और बाहर सड़कों पर फोड़े गए पटाखे के कचरे बिखरे पड़े थे।


       दीया अस्मिता का प्रतीक है और पटाखा अहंकार का। अस्मिता का अर्थ होता है- 'हूं' जबकि अहंकार कहता है 'मैं सबसे बड़ा हूं' जो दुनिया का सबसे गहन अंधकार है।अंधकार कितना भी घना हो, दीया चुपचाप जलता है और वातावरण को रौशन कर देता है। अंधकार के प्रति कोई दुश्मनी का भाव भी नहीं होता, दीया तो सिर्फ अपना स्वभाव प्रकट करता है। पटाखा शोर करके अपने होने के एहसास को याद दिलाता है। जितना ज्यादा शोर,उतना ज्यादा होने का एहसास।


           बुद्ध ने काफी सोच समझ कर 'अप्प दीपो भव' का उपदेश दिया था। दीया छोटा हो या बड़ा हो ; उसका आकार महत्वपूर्ण नहीं होता, महत्वपूर्ण होती है उसकी रोशनी। दीये के प्रकाश में सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। पटाखा का आकार बहुत महत्वपूर्ण होता है और उसका शोर यह घोषणा करता है कि मैं सबसे बड़ा।


     दीये की अस्मिता अपने अस्तित्व के प्रति सचेत है और उससे पूर्ण तृप्त है ; पटाखा का अहंकार दूसरे के अस्तित्व को मिटा देना चाहता है और अपने होने को बड़ा दिखा देना चाहता है। अस्मिता उस सुबह के समान होती है, जिसमें सूरज आया नहीं फिर भी सब कुछ दिखने लगा जबकि अहंकार जेठ की दोपहर की तरह होता है जिसमें सूरज की तरफ आंख खोलकर देखना भी संभव नहीं होता।


           दीपोत्सव की संस्कृति में पटाखे की विकृति ने उजाले और अंधेरे के संघर्ष को और ज्यादा कठिन कर दिया है। बारूद के आविष्कार के बाद इसके व्यावसायिक उपयोग ने इसे अपनी खुशी को प्रकट करने का एक सशक्त माध्यम बना लिया है जो ठीक राक्षसों के अट्टहास के समान है। हवा को प्रदूषित करने के पाप के साथ वातावरण की शांति को भंग करने का महापाप इतने विश्वास के साथ किया जाता है कि पटाखा-विरोधी को परंपरा-विरोधी साबित कर दिया जाता है।


            ज्ञान की रोशनी में थोड़ी सी भी गहराई से देखा जाए तो पटाखा हमारी परंपरा पर आक्रमण है।


ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधिॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: -यजुर्वेद का यह शांति मंत्र  'तमसो मा ज्योतिर्गमय '  के मंत्र के साथ यह संदेश देता रहा है कि हमारी परंपरा प्रकाश और शांति की साधक है। धुआं और शोर फैलाने वाली पटाखा की विकृति तो बाहर से आई है और व्यावसायिक बुद्धि ने इसे घर-घर फैलाया है। रूस -यूक्रेन और हमास -इजरायल युद्ध ने जितना ज्यादा प्रदूषण फैलाया है,उससे कम प्रदूषण पर्व के नाम पर दिवाली पर छोड़े जाने वाले पटाखों ने नहीं फैलाया है। जब लड़ाई के मौके और खुशी के मौके पर पर्यावरण समान रूप से प्रदूषित होता हो तो दोनों में अंतर क्या रहा?


        'दीया तले अंधेरा'  कहावत इससे ज्यादा क्या चरितार्थ हो सकती है कि जिस दीये को जलाकर हमने अंधकार को दूर कर जगत को रोशन किया, उसी के पास पटाखे से प्रदूषण फैलाकर पर्यावरण संकट का अंधकार और बढ़ा लिया। हमारे ऋषियों की दृष्टि में दीये की रोशनी से अंतरजगत में उजाला न हुआ, अन्यथा हमारा मन रोशनी के साथ प्रदूषण को स्वीकार नहीं करता-


'अवशेन्द्रियचित्तानां हस्तिस्नानमिव क्रिया।


दुर्भगाभरणप्रायो ज्ञानं भारः क्रियां विना॥'


अर्थात् जिन व्यक्तियों का मन और इंद्रिय उनके खुद के नियंत्रण में नहीं हैं ,उनका व्यवहार हाथी के स्नान जैसा होता हैं। पानी में नहाकर अंत में हाथी खुद के बदन पर वापस धूल डाल देता है। 


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹