संवाद


'मूल्यविहीन माल राजनीति'


महाराष्ट्र के एक नेता ने अपनी पार्टी के उम्मीदवार को 'ओरिजिनल माल' कहा और विरोधी पार्टी की महिला उम्मीदवार को इंपोर्टेड माल।'इंपोर्टेड माल और ओरिजिनल माल' वाले बयान को लेकर हंगामा मचा किंतु एकतरफा हंगामा। सिर्फ महिला उम्मीदवार ने 'माल' संबोधन पर एफआईआर  दर्ज करवाई किंतु पुरुष उम्मीदवार ने कोई आपत्ति तक नहीं जताई जबकि उनको तो 'ओरिजिनल माल' कहा गया।


             जगत में दो प्रमुख दृष्टि है-भौतिकवादी दृष्टि और आध्यात्मिक दृष्टि। राजनीति की दृष्टि भौतिकवादी दृष्टि होती है। उनके लिए हर कोई माल है,वस्तु है,साधन है। इसी कारण से यह लोकोक्ति प्रचलित है कि 'राजत्व रक्त संबंध नहीं जानता'(kingship knows no kinship). महाराष्ट्र की राजनीति तो इसका ज्वलंत उदाहरण है,जहां पार्टियां ही नहीं परिवार तक टूट गए। इस राजनीति के लिए तो गीत की यह पंक्ति एकदम सटीक है-


'देते हैं भगवान को धोखा, इंसां को क्या छोड़ेंगे


कसमे वादे प्यार वफ़ा, सब वादे हैं वादों का क्या?


कोई किसी का नहीं है अपना,नाते हैं नातों का क्या?


            आध्यात्मिक दृष्टि पदार्थ में भी परमात्मा देखती है। विज्ञान भी इस बात को मानने लगा है कि मटेरियल में मैटर से पार कुछ है, जिसको धर्म ने 'चेतना' नाम दिया। चेतना स्त्री हो या पुरुष , दोनों में है; लिंग-निर्धारण तो 3 महीने के बाद होता है।


              किसी भी चेतना को 'माल' बताना उसकी निम्नतम स्थिति को दर्शाना है। फिर वह किसी के उपयोग के लिए हैं ,साधन की तरह इस्तेमाल किए जाने के लिए है, उसकी नियति 'यूज एंड थ्रो'(Use and throw) के लिए है। माल या वस्तु की कीमत (price) होती है, अपना कोई मूल्य (value)नहीं होता। इसी का परिणाम है आज की मूल्यविहीन राजनीति।


           कभी विचारधारावाली और मूल्यवाली राजनीति होती थी। लाल बहादुर शास्त्री और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं ने विचारधारा की और मूल्य की राजनीति का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। किंतु आज विचारविहीन और मूल्यविहीन राजनीति ने सभी चेतना को माल बना दिया है। घोर आश्चर्य  की बात है कि जनता जनार्दन भी अपने आप को माल की तरह इस्तेमाल किए जाने के विरोध में नहीं है। अन्यथा मुफ्त की रेवड़ी के आधार पर चुनाव नहीं लड़े जाते।


              किसी भी चेतना के लिए यह कबूल नहीं हो सकता कि तुम मुझे भीख में या मुफ्त में कुछ दो। हर चेतना ऊपर से खाली हाथ आती है और खाली हाथ जाती है, सिर्फ अपने चैतन्य की शक्ति से यहां पर कुछ अर्जित करती है और यहीं पर समर्पित करके चली जाती है-


'अपना क्या है इस जीवन में सब कुछ लिया उधार


सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार।'


              आज की राजनीति में बांटनेवाला और खरीदनेवाला हर राजा नंगा है और मुफ्त की रेवड़ी पर मतदान करने वाली हर प्रजा भिखारी। नेता का अर्थ होता है जो आगे ले जाए या आगे जाने का रास्ता दिखाए। दुर्भाग्य से आज की राजनीति सिर्फ नीचे ले जा रही है और नीचे जाने का रास्ता दिखा रही है। एक धर्म के नाम पर बांट रहा है तो दूसरा जाति के नाम पर बांट रहा है तीसरा किसी और नाम पर बांट रहा है ;लेकिन बांट तो हर कोई रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है-चेतना का वस्तुकरण। क्योंकि वस्तुओं को ही कोई बांट सकता है, चेतना को नहीं।


          भारतीय संस्कृति नेता उनको मानती हैं जिन्होंने जीवन-चेतना को ऊंचाईयां दीं और यह बताया कि तुम तन नहीं हो,मन नहीं हो,तुम चेतना हो। यह चेतना कभी महात्मा बुद्ध के रूप में तो कभी महात्मा गांधी के रूप में हमारे बीच में से ही विकसित होती है और 'सत्यमेव जयते' का उद्घोष कर जाती है।


           वस्तुवादी नेता तो 'सत्तामेव जयते' के रास्ते पर चल रहे हैं और सभी को माल समझ रहे हैं। सभी को मुफ्त की रेवड़ी के आधार पर बिकने वाला मान रहे हैं। जब तक जनता जनार्दन को यह बात समझ में नहीं आती तब तक भारत की अधोगति को रोका नहीं जा सकता। किसी कवि ने क्या खूब कहा है-


'दौर ए इलेक्शन में कहां कोई इंसान नजर आता है


कोई हिंदू ,कोई दलित तो कोई मुसलमान नजर आता है,


बीत जाता है जब इलाकों से इलेक्शन का दौर


तब हर इंसान रोटी के लिए परेशान नजर आता है।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹