संवाद


'शिक्षक के लिए अवकाश और सेवानिवृत्ति नहीं होती'


शिष्य-गुरु संवाद के लिए आज का रविवार एक विशेष अनुभव का दिन रहा। संस्कृत के ज्ञान और प्रसार को समर्पित दो विद्वानों से मिलने का सौभाग्य मिला। सेवानिवृत्त होने के बाद वे दोनों अपनी संस्कृत साधना में अहर्निश लगे रहते हैं। उनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि अपनी संस्कृति और संस्कृत की गहरी अनुभूतियों को अगली पीढ़ी तक वे कैसे पहुंचाएं? उनकी विशेष कृपा मुझ पर बनी रहती हैं। वे बड़े प्रेम से मुझे याद करते हैं और कुछ समय निकालने का और साथ बैठने का आमंत्रण भी देते हैं।


         कॉलेज में अतिव्यस्त होने के कारण थकान इतनी ज्यादा हो जाती है कि चाह कर भी उनकी सत्संगति का सौभाग्य नहीं मिल पाता। मेरी सोच है कि जिस प्रकार से मंदिर जाने के लिए शुद्ध तन और मन दोनों का होना जरूरी है,उसी प्रकार से किसी विद्वान के पास जाने के लिए आपका तन और मन दोनों ज्ञानार्जन की अनुकूल अवस्था में होना चाहिए। पति-पत्नी दोनों के उच्च शिक्षा में होने के कारण कॉलेज की जिम्मेदारियां पूरी करने के बाद घर की जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए ही जब समय और ऊर्जा पर्याप्त नहीं बचता तो फिर चाहते हुए भी पुरानी पीढ़ी के प्रेम और ज्ञान को ग्रहण करने का समय और ऊर्जा कहां से बचे।


            लेकिन आज रविवार होने के कारण उस ज्ञान और प्रेम के मंदिर में जाने का समय और सौभाग्य मिला। पहले पंडित गोपीकृष्ण भट्ट जी के घर गया। 90 वर्ष पार की अवस्था में भी उनका स्वाध्याय और सक्रियता देखकर आश्चर्य होता है। अभी भी बिना चश्मे के मोबाइल पर लिखे सारे मैसेज पढ़ लेते हैं और उनका जवाब भी भेजते हैं। सोशल मीडिया पर लिखे मेरे हर लेख को पढ़ने के बाद वे उस संबंध में चर्चा को उत्सुक रहते हैं। खूबियों को बताकर प्रोत्साहन भी देते हैं और कमियों को बताकर मार्गदर्शन भी प्रदान करते हैं। इस वृद्धावस्था में भी वे बच्चों की तरह जिज्ञासा से भरे हुए हैं। वे मेरे सारे प्रश्नों को ध्यान से सुनते हैं और अपने अनुभव से प्रेमपूर्वक जवाब देते हैं। एक घंटे की चर्चा में मैंने उनसे जानना चाहा कि स्वाध्याय और जिज्ञासा की यह प्रवृत्ति जो इस वृद्धावस्था में भी आपके पास है, वह प्रवृत्ति आज की नई पीढ़ी में कैसे लाई जाए? उन्होंने विस्तार से जवाब दिया और जवाब इतना प्यारा था कि नई पीढ़ी और समाज तक पहुंचाने के लिए मैंने रिकॉर्ड भी कर लिया। उनका मूल संदेश था कि आत्मा को ज्ञान की प्यास होती है और परमात्मा की कृपा बनी रहे तो स्वाध्याय गहरा हो जाता है। आज की नई पीढ़ी मोबाइल के कारण न तो इस आत्मा से जुड़ पा रही है और न परमात्मा से।


          सत्संगति का पुण्य अर्जित करने के कारण फिर संस्कृत के दूसरे विद्वान से भी मिलने का आज सौभाग्य मिल गया। उच्च शिक्षा में 137 पुस्तकें लिख चुके डी.लिट्.डॉ.राकेश शास्त्री जी के घर जब पहुंचा तो उनसे मिलकर निराशा भी हुई और आशा भी जगी। आशा इस कारण से कि 150 पुस्तकें लिखने का उन्होंने संकल्प ले रखा है और निराशा इस कारण से कि 70 वर्ष की अवस्था में ही तबीयत के प्रतिकूल हो जाने के कारण उनके मुख से निकल रहा था कि ऐसा लगता है कि अब मेरा काम पूरा हो गया। उनके मुख से ऐसा वचन सुनकर मेरा दिल बैठ गया। उनकी धर्मपत्नी डॉ. प्रतिमा शास्त्री जी भी थोड़ी चिंतित दिखीं और इस बात पर जोर दे रही थीं कि पढ़ाई-लिखाई कि अब आप चिंता मत कीजिए। लेकिन जिस व्यक्ति की शताधिक पुस्तकें चौखंबा प्रकाशन जैसा प्रसिद्ध प्रकाशन छाप चुका हो और बनारस ,दिल्ली, उत्तराखंड जैसे प्रसिद्ध शिक्षा संस्थानों में जिनकी पुस्तकें लोकप्रिय हो चुकी हो वो पढ़ाई-लिखाई की चिंता और चिंतन से कैसे मुक्त हो सकता है?


           उनकी तो विशेष पीड़ा यह है कि संस्कृत के स्थानीय विद्वान भी उनके साथ संस्कृत चर्चा के लिए समय नहीं निकाल पाते ; फिर पुस्तकों के अध्ययन और प्रोत्साहन की बात कौन करे? उच्च शिक्षा में ज्वाइन करने के बाद से ही उनके पुस्तकों की गुणवत्ता से मैं विशेष प्रभावित रहा और चित्रात्मक पद्धति से कठिन विषयों को सरल बनाकर विद्यार्थियों के लिए किए गए उनके कार्य का सदैव प्रशंसक रहा।


            किंतु स्थानीय स्तर पर पासबुक से पढ़ने वाले विद्यार्थियों के कारण उनके पुस्तकों को जितनी लोकप्रियता मिलनी चाहिए थे ,वो बांसवाड़ा में नहीं मिली। साथ ही स्थानीय स्तर पर विश्वविद्यालय खुल जाने के बावजूद उनके ज्ञान का अनुभव नई पीढ़ी में नहीं बंट सका।


शिक्षा के हालात पर दो घंटे की गहरी और गंभीर चर्चा के बाद उन्होंने सप्रेम अपनी 10 पुस्तकें मुझे दीं और यह नसीहत भी दी कि इन पुस्तकों को पढ़ने के बाद समीक्षा और संवाद के लिए समय भी निकालूं।


            मैं जब घर लौटा तो इसी विचार में खोया रहा कि स्वाध्याय और शिक्षा को समर्पित पुरानी पीढ़ी अपना ज्ञान और प्रेम दोनों बांटने के लिए कितनी उतावली है। लेकिन कॉलेज में आ रही नई पीढ़ी स्वाध्याय और शिक्षा से दूर होकर पासबुकजीवी बन गई है। और बीच की पीढ़ी के हम सभी आचार्य गैरशैक्षिक कार्यों में अति व्यस्त होकर न तो पुरानी पीढ़ी के ज्ञान और प्रेम को ग्रहण कर पा रहे हैं और न नई पीढ़ी को स्वाध्याय और शिक्षा की ओर मोड़ पा रहे हैं।


               अवकाश का यह रविवार संस्कृत के इन दोनों समर्पित विद्वानों से मिलने के बाद मेरे लिए एक तरफ ज्ञान और प्रेम का उपहार भी दे गया लेकिन इसके साथ ही चिंता और चिंतन का एक भार भी दे गया-


'हाथ खाली खानकाहों से कोई आता नहीं


कुछ तो सुकून मिलता है और रोशनजमीरी साथ-साथ


मिलती नहीं दुनिया में कोई भी दूसरी मिसाल


जहां एक साथ हो बादशाहत और फकीरी साथ-साथ।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹