🙏विश्व दर्शन दिवस की शुभकामना🙏
संवाद
'मेरी शिक्षा,मेरा दर्शन'
21 नवंबर 2024 'विश्व दर्शन दिवस' के रूप में यूनेस्को द्वारा मनाया जा रहा है। 'मैं सोचता हूं,इसलिए मैं हूं'(Cogito ergo sum) कहने वाले फ्रांसीसी दार्शनिक 'रेने देकार्त' को मॉडर्न फिलॉसफी का जनक माना जाता है। फिलासफी सोचने पर जोर देती हैं किंतु भारतीय संस्कृति देखने पर।दर्शन अदृश्य को देखने की कला का नाम है। चक्षु से तन दिखाई देता है किंतु प्रज्ञा-चक्षु से अदृश्य मन और आत्मा। किसी शायर के शब्दों में -
'देना है तो निगाह को ऐसी रसाई दे
मैं देखूं आईना तो मुझे तू दिखाई दे।'
विश्व दर्शन दिवस 2024 की थीम है -'दर्शन- सामाजिक अंतर को पाटना'. एक तरफ बांसवाड़ा के विद्यार्थियों को देखता हूं और दूसरी तरफ जयपुर,दिल्ली जैसे बड़े शहर के विद्यार्थियों को देखता हूं तो मैं सोचता हूं कि यहां के विद्यार्थी वहां के विद्यार्थियों के सामने प्रतियोगिता में कैसे टिक पाएंगे? यहां के विद्यार्थी न मौलिक पुस्तकें खरीदते हैं और न पढ़ते हैं जबकि वहां के विद्यार्थी अच्छे शिक्षालय और अच्छे कोचिंग में खूब पढ़ते भी हैं और खूब सोचते भी हैं। ऐसे में 'दर्शन दिवस' के आलोक में जब मैं अपने जीवन और शिक्षा के बारे में सोचने लगा तो ऐसा लगा कि विद्यार्थियों को हर शिक्षक द्वारा बताया जाना चाहिए कि किन विचारों ने , किन दर्शनों ने और किन शिक्षकों ने उनके जीवन को कैसे बदला?
पीछे मुड़कर जब जीवन को देखता हूं तो याद आता है नौवीं क्लास में दी गई बड़े भाई साहब द्वारा एक किताब। उस किताब में प्रतिभा का संबंध पवित्रता के साथ जोड़ा गया था। यह पहला दर्शन था जिसने मुझे सिखाया कि यदि तन पवित्र हो और मन पवित्र हो तो खेल हो या पढ़ाई अपनी प्रतिभा ऊंचाई पाएगी। गंदे मोहल्ले में रहते हुए भी इस किताब में दिए गए दर्शन के कारण मेरे जीवन में बिगड़ने वाली उम्र में भी जिंदगी संवरती गई। तन तो जरूर उस मोहल्ले में था किंतु मन हमेशा पढ़ाई या खेल में लगा रहता था।नौवीं क्लास का मेरा एक दोस्त गलत संगति और दर्शन से पढ़ाई में अच्छा होने के बावजूद पटरी से उतर गया।
निवास स्थान से थोड़ी दूर पर रामकृष्ण मिशन आश्रम था,जहां मैं जाया करता था और वहां से ₹2 या ₹5 की किताबें खरीद कर लाया करता था। विवेकानंद साहित्य के कुछ वाक्यों में छिपा दर्शन ऐसा था कि अंदर की ओर जीवन मुड़ता चला गया। वहां के संन्यासियों की काली माता की भक्ति और ज्ञान की शक्ति ने हृदय पर बहुत प्रभाव डाला। घर में सुख सुविधाओं की कमी थी किंतु खेलने और पढ़ने की सुविधा के कारण मैं अपने को बहुत अमीर मानता था। 'गीता पढ़ने की अपेक्षा तुम फुटबॉल के द्वारा स्वर्ग के अधिक समीप पहुंच सकोगे'-स्वामी जी की इस पंक्ति ने खेल के प्रति मेरे जुनून को और बढ़ा दिया। खेल के मैदान में मुझे दर्शन मिला कि खेल हार जीत से ऊपर है और जीवन भी एक खेल से ज्यादा नहीं है। मेरे क्रिकेट के गॉडफादर श्री सुशील मिश्रा जी ने खेलने के साथ मुझे सदैव पढ़ने की नसीहत दी।
खेल की बदौलत जब पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज में एडमिशन हो गया तो दर्शन के प्रति प्रेम के कारण दर्शनशास्त्र को एक विषय के रूप में मैंने चुना। दो अन्य विषय संस्कृत और राजनीति विज्ञान थे जिनको मैंने हृदय से नहीं बल्कि बुद्धि से ले लिया था।
खिलाड़ियों की दुनिया में पढ़ने-लिखने का प्रचलन बहुत कम होता है किंतु विवेकानंद के दर्शन के कारण मेरी पढ़ाई थोड़ी बहुत चलती रही।
कॉलेज के चार-पांच साल बहुत द्वंद्व के थे। खेलता तो मैं बहुत ज्यादा था किंतु दर्शन विषय के प्रति प्रेम के कारण पढ़ाई में भी मेरी गति हो गई। इस समय मेरी संगति में कुछ चार्वाक दर्शन के 'खाओ,पियो और मौज करो' के सिद्धांत पर चलने वाले खिलाड़ी थे। उन चार्वाक दर्शन प्रेमी साथियों में से कुछ के घर की स्थिति बहुत अच्छी थी।सामान्य दिनों में तो उनका जलवा कायम रहता था किंतु जब रिजल्ट निकलता था तो हम सभी को पता चल जाता था कि संस्कृत के ऋषियों ने क्यों कहा कि
'विद्यार्थिन: कुतो सुखम्,सुखार्थिन: कुतो विद्या'.... अर्थात् विद्यार्थी को सुख कहां और सुखार्थी को विद्या कहां!
खेलते हुए जब मैं प्रथम श्रेणी से पास हो जाता तो उनको मेरे अलग-थलग रहने का रहस्य पता चलता। लेकिन कुछ ऐसे भी पढ़ने वाले साथी थे जो साधारण घर के होने के बावजूद चार्वाक दर्शन से प्रभावित होने के कारण अय्याशी की जिंदगी जीते थे फिर भी टॉप कर जाते थे। उनकी संगति ने मुझे आकर्षित किया किंतु थोड़े दिनों के बाद ही एहसास हो गया कि पढ़ाई और खेल के साथ उनकी लाइफ स्टाइल नहीं चल सकती।
लेकिन प्रकृति अपना खेल खेलना नहीं रोक देती। किसी के साथ बैठना और समय का पता न चलना; यह सब जीवन में चलता रहा। इसके कारण एक ओर जीवन सरस हो जाता किंतु दूसरी ओर तनाव भी बढ़ जाता क्योंकि मन में गूंजते रहता-
'मैं कहां से लाऊंगा रेशम की साड़ी
वो गाड़ी वो बंगला नहीं दे सकूंगा
मेरा दिल ही एक मेरी मिल्कियत है
जो चाहो तो इसको वही दे सकूंगा।
मगर दिल की दुनिया बसाने से पहले
मेरी जान मुझको बहुत सोचना है
तुझे अपना साथी बनाने से पहले
मेरी जान मुझको बहुत सोचना है....
इसी समय मुझ पर तुषारापात हो गया। जिस क्रिकेट में स्टार बनने के सपने देखता था, उसमें 3 साल का बैन लग गया। खेल बंद करके पढ़ाई की दुनिया में रास्ता बनाना मुझे असंभव लगा। लेकिन रामकृष्ण मिशन आश्रम के संन्यासी सोमेश्वरानंद जी ने जीवन दर्शन समझाया। उन्होंने कहा कि तुम्हारी मेहनत का फल अवश्य मिलेगा। इस जगत में अव्यवस्था है किंतु ऊपर के जगत में व्यवस्था है।अब खेल के दरवाजे बंद होने पर पढ़ाई का दरवाजा खोलने की कोशिश करो।
इसी समय एम.ए. (संस्कृत) के टॉपर श्री ध्रुवकांत ठाकुर से मुलाकात हुई और उनके साथ रहने वाले अन्य श्री अरुण सिंह जी,श्री लीलानंद झा जी, श्री रमेश झा जी जैसे व्यक्तित्वों से घनिष्ठता बढ़ी। इनको दूसरे मोहल्ले से अपने मोहल्ले में मैं अपने किराए के घर के नजदीक लाया। सभी के घर की माली हालत बहुत खराब थी किंतु उन सभी का पढ़ने का जज्बा ऐसा था कि उनके निवास स्थान को 'मठ' कहा जाता था,जहां अहर्निश पठन-पाठन का यज्ञ चला करता था। मंगलवार और शनिवार को वे सभी उपवास रखते थे ताकि पैसे बचे तो कुछ किताबें खरीद ली जाए। उनका दर्शन था-
'दो रोटी कम खाएंगे, किताब नई लाएंगे'
मैं तो सिर्फ उनके साथ उठता बैठता था और उनको सुनता था। ध्रुव भैया ने मुझको संस्कृत का व्याकरण पढ़ाया और अरुण भैया ने साहित्य सिखाया। इस माली हालत के बीच से आईपीएस में श्री ध्रुवकांत ठाकुर की सफलता ने हम सभी में आशा का सूरज जगा दिया। इन सभी से यही सीखने को मिला कि जीवन में सादगी हो और किताबों से प्रेम हो तो जीवन में धन का अभाव ज्यादा नहीं खटकता।
कई परीक्षाओं में असफलता को झेलते हुए सेंट्रल स्कूल के बाद कॉलेज शिक्षा में बांसवाड़ा में ज्वाइन किया। यहां दर्शनशास्त्र की प्रवक्ता डॉ.अंजना रानी से आईएएस की तैयारी के क्रम में मुलाकात हुई और घनिष्ठता बढ़ी। जिस दर्शन से मुझे बचपन से बेहद लगाव था, वह दर्शन जीवन-संगिनी बन गई। दर्शनशास्त्री की प्रतिभा के प्रकाश में मेरी पढ़ाई की कमियां बहुत साफ दिखाई देती। विद्यार्थी जीवन में मठ में जिस प्रकार का पढ़ने-पढ़ाने का वातावरण था,गृहस्थ जीवन में भी सौभाग्य से वही वातावरण मुझको मिल गया। क्योंकि हम दोनों को शिक्षक और साथी बहुत अच्छे मिले थे और निःशुल्क पढ़ानेवालों की संगति से यहां तक हम सभी पहुंचे थे, अतः कॉलेज के समय के बाद प्रत्येक रविवार को शिक्षा का नि:शुल्क यज्ञ 'शिष्य-गुरु संवाद' शुरू हुआ।
गोल्डमेडलिस्ट दर्शनशास्त्री की संगति से मैं ओशो दर्शन के संपर्क में आया। घर के दर्शन के कारण फिर से विद्यार्थी जीवन शुरू हो गया। अब मुझे एहसास होता है कि भारतीय संस्कृति ने दर्शन विषय को सबसे ज्यादा महत्व क्यूं दिया? आज भी शिक्षा जगत की बड़ी उपाधि एम.फिल. (Master of philosophy) और पीएचडी. (Doctorate in philosophy) हैं,चाहें आप जिस विषय से हासिल करें; मूल में तो दर्शन ही है।
मेरी कंडीशनिंग खेल जगत की है और खिलाड़ियों को मैच में सबके सामने अच्छा प्रदर्शन करना होता है। किंतु घर में देखता हूं तो पाता हूं कि दर्शनशास्त्री की कंडीशनिंग कुछ और प्रकार की है। सब कुछ जानते हुए भी चुपचाप रहना और जो भी काम मिल जाए उसमें डूब जाना। शिष्य-गुरु संवाद के सभी भाषणों और लेखों में सिर्फ शब्द और वाणी मेरी है किंतु विचार और दर्शन किसी और का।
दर्शन जैसे विषय के नजरअंदाज किए जाने से शिक्षा जगत आज दिशाभ्रम का शिकार हो गया है।राजस्थान के उच्च शिक्षा में हमें आचार्य बना दिया गया है किंतु सूचनादाता की भूमिका प्रमुख बन गया है। शिक्षा की दीन-हीन स्थिति को आज सभी छुपा रहे हैं।सामान्य गुरु की तो बात छोड़िए,आज कुलगुरु भी सत्य बोलने का साहस नहीं कर रहे हैं। क्लासेज कम होती जा रही हैं और डिग्रियां बढ़ती जा रही हैं। नई शिक्षा नीति के तहत सेमेस्टर प्रणाली का मुख्य उद्देश्य था कि विद्यार्थी नियमित क्लासेज में आएं।नियमित पढ़ाई और नियमित टेस्ट से शिक्षा की गुणवत्ता बढ़े। किंतु दुर्भाग्य से बिना पढ़ाई के परीक्षा ही परीक्षा हो रही है।
जिस भारतीय संस्कृति का पहला विषय दर्शन था,वह स्कूली शिक्षा से गायब है।कॉलेज शिक्षा में विलुप्त होते प्राणियों की तरह गिनती के दर्शनशास्त्री बचे हैं।और उन दर्शनशास्त्रियों को सुनने वाला कोई नहीं है।
ऐसे में विश्व दर्शन दिवस का महत्व और बढ़ जाता है क्योंकि दर्शन सत्य की खोज है। आज का सत्य यह है कि शिक्षा व्यवस्था दुर्दशाग्रस्त है।'सत्यमेव जयते' की उद्घोषणा करने वाला भारत सम्यक् दर्शन को पुनः उपलब्ध हो-
'सत्येन रक्ष्यते धर्मो , विद्या योगेन रक्ष्यते।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹