संवाद


'संविधान की प्रस्तावना और शिक्षक की भावना'


संविधान दिवस की सुबह संस्थाप्रधान का दायित्व निभाते हुए राज्यादेश के अनुसार 11:00 बजे सभी को कॉलेज में संविधान की शपथ दिलवाना था। सभी क्लासेज में घूमकर देखा तो दो-चार क्लासेज चल रही थीं जिसमें कुल मिलाकर छात्राओं की संख्या नगण्य थी। जब क्लास के बाहर बैठी हुई छात्राओं को मैंने आवाज़ लगाई और सभा कक्ष में बुलाया तो छात्राएं संख्या में दो सौ से ऊपर निकलीं।


        सभा भवन खचाखच भरा हुआ था और कुर्सियां कम पड़ गईं तो कुछ छात्राएं नीचे दरी पर बैठ गईं और कुछ छात्राएं बाहर खड़ा होकर सुन रही थीं। छात्राओं को यह मालूम नहीं था कि आज संविधान दिवस है। सभी गार्डन में बैठकर मोबाइल देखती रहती हैं फिर भी उन्हें संविधान दिवस का पता न होना, यह संकेत कर रहा है कि मोबाइल का वे दुरुपयोग कर रही हैं।


          संस्कृत का एक श्लोक कहता है कि मन का स्वामी होने पर जहर को भी अमृत बनाया जा सकता है जैसे शंकर विषपान करके भी देवों में महादेव हो गए ; अन्यथा अमृत भी जहर बन जाएगा जैसे राहु अमृत मिलने के बाद दो भागों में काटा गया-राहु और केतु :-


'अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्। 


अमृतं राहवे मृत्युः विषं शङ्करभूषणम्॥' 


          मानव के मन का दशा और दिशा शिक्षा तय करती है। मेरी चिंता यह है कि छात्राएं कालेज में पहुंच गईं उन्हें पढ़ना नहीं आ रहा है, शुद्ध  लिखना नहीं आ रहा है, आवेदनपत्र में प्राचार्य को प्रधानाचार्य लिखती हैं, पांच पंक्तियों में पांच से अधिक गलतियां होती हैं, बार-बार कहने पर मौलिक पुस्तकें नहीं खरीदती हैं, ठीक से अपना परिचय तक नहीं दे पाती हैं, पढ़ने के नाम पर कॉलेज पहुंचती हैं और सीखने की कोई इच्छा नहीं रखती हैं। बिना पढ़े हुए उनकी डिग्रियां बढ़ती जा रही हैं और उनको किसी भी बात को समझाना शिक्षकों के लिए मुश्किल होता जा रहा है।


          ऐसे में संविधान की प्रस्तावना जो एक ही पंक्ति में है और जिसमें एक-एक शब्द गूढ़ और गंभीर है,उसका शपथ दिलवाना और समझाना असंभव कार्य था किंतु शिक्षकों ने उसको भी संभव किया। लेकिन जिन विद्यार्थियों को आधारभूत जानकारी नहीं है, उन विद्यार्थियों को देखकर सभी शिक्षक किंकर्तव्यविमूढ़ हैं और भारत के भविष्य को लेकर बेहद चिंतित हैं।


             हम भारत के लोग क्या कर रहे हैं? कैसा भारत बनाना चाह रहे हैं? गैरशैक्षिक कार्यों में शिक्षकों को लगाकर स्कूल से हम एक ऐसी पीढ़ी कॉलेज में भेज रहे हैं जिसकी जड़ें खोखली हैं। फिर कॉलेज शिक्षकों  पर दोहरा भार आ गया। संधि,समास जैसी सरल बातें जिनको नहीं मालूम हैं ,उनको कॉलेज में लक्षणा, व्यंजना जैसी जटिल बातें पढ़ाओ। फिर नई शिक्षा नीति के तहत जिन पुस्तकों को हम स्नातकोत्तर में पढ़ते थे, उनको प्रथम वर्ष में पढ़ाओ। और वह भी कई समितियों की सारी सूचनाओं का काम करते हुए सेमेस्टर प्रणाली के तहत कम से कम क्लास में पढ़ाओ।


             यह तो जादू से ही संभव है। अब शिक्षकों को जादूगर बनना होगा। जबकि संस्कृत का श्लोक कहता है कि विद्या के क्षेत्र में प्रगति क्रमिक होती है,बहुत धीमे-धीमे होती है, बहुत मेहनत से होती है और जिज्ञासु को ही होती है-


'शनैः पन्थाः शनैः कन्था शनैः पर्वतलंघनम


शनैर्विद्या शनैर्वित्तं पञ्चतानि शनैः शनैः।'


           इसका मतलब है कि इन पांच कामों को धैर्य के साथ करना चाहिए‌, इसमें विद्या भी एक है। प्राचीन गुरुकुलों में पठन-पाठन के अलावा अन्य कुछ भी समय और ऊर्जा खाने वाली गतिविधियां नहीं होती थीं। शिष्य गुरु के साथ 24 घंटे ज्ञान की साधना में रत रहता था, तब भारत विश्वगुरु बना था। आज विद्यार्थी और शिक्षक का संबंध महज कुछ घंटे का है और उसमें भी नियमित नहीं है। आज पठन-पाठन गौण हो गया और गैरशैक्षिक कार्य प्रमुख‌। ऐसे में भारत विश्वगुरु का सपना भी कैसे देख सकता है?


              संविधान की प्रस्तावना की शपथ दिलाने के बाद और उसे विद्यार्थियों को समझाने के बाद मैं खुद ही समझ नहीं पा रहा हूं कि हम भारत के लोग शिक्षा को कहां ले जा रहे हैं, किस दिशा में ले जा रहे हैं? इससे कैसा भारत बनेगा, ऐसे भारत का क्या भविष्य होगा?


           जिस सरकारी शिक्षा में पढ़कर अपने शिक्षकों की कृपा से हम आचार्य पद तक पहुंच गए, उनके ऋण से हम कैसे उऋण हो पाएंगे? संविधान की प्रस्तावना को यदि विद्यार्थी पढ़ेंगे नहीं,समझेंगे नहीं और शिक्षकों को पढ़ाने और समझाने का पूरा वातावरण नहीं मिलेगा तो हमारा भारत कैसा भारत बनेगा?


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹