संवाद


आंखें खोलने वाला अनुभव उच्च शिक्षा की दशा व दिशा पर


'कभी खुशी,कभी गम'


मेरे शिक्षण संस्थान के लिए यह खुशी का मौका था कि फ्यूजन फाइनेंस कंपनी ने 20 लाख का 20 किलो वाट का सोलर पैनल हरिदेव जोशी राजकीय कन्या महाविद्यालय, बांसवाड़ा को प्रदान किया। इसमें विशेष खुशी की बात यह थी कि बिन मांगे यह उपहार मिला। एक दिन मेरे को एक शिक्षक श्री विजय सोनी जी का फोन आया, जो सोशल मीडिया पर लिखे मेरे लेखों को पढ़कर मुझसे जुड़े हैं। उन्होंने कहा कि एक फ्यूजन फाइनेंस कंपनी ने 20 लाख के सोलर पैनल लगाने के लिए संस्था का नाम मुझसे पूछा है। शिक्षक होने के नाते मुझे शिक्षण संस्थान ध्यान में आया और उसमें भी कन्याओं का महाविद्यालय विशेष आकर्षित किया क्योंकि जेल की दीवारों के भीतर आप सभी शिक्षकगण शिक्षा की मीनारें खड़ी करने की कोशिश कर रहे हैं। यह छोटी सी बात मैंने अपने कॉलेज को सूचित किया और उसका एक बड़ा सा कार्यक्रम आज संपन्न हुआ जिसमें क्षेत्र के माननीय विधायक और गणमान्य शिक्षाविद् तथा नागरिकों ने समारोह की शोभा बढ़ाई।


           कंपनी के अधिकारियों ने पर्यावरणीय जिम्मेदारी और सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत कन्या महाविद्यालय में शिक्षा के विकास के लिए आगे भी हर संभव सहायता करने का आश्वासन दिया। उन लोगों ने 20 लाख का सोलर पैनल भी लगवाया और सारे कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए अतिथियों और सभी विद्यार्थियों के लिए नाश्ते-पानी से लेकर हर प्रकार की उत्तम व्यवस्था अपनी ओर से की।


          कंपनी के इस दान और दक्षिणा के प्रति आभार प्रकट करते हुए मुझे एक राजा की कहानी याद आई जो जितने ऊंचे हाथ से दान देता था,वो उतना ही नीचा अपने नयन कर लेता था। अर्थात् उदारता ऐसी कि खुले हाथ से दान और विनम्रता ऐसी कि आंखें झुकाए हुए। एक कवि ने उनसे पूछा-


'सीखी कहाँ से नवाबजूं ऐसी देनी देन ?


ज्यों- ज्यों कर ऊंचे चढ़ें ,त्यों त्यों नीचे नैन।'


राजा ने सकुचाते हुए जवाब दिया कि देने वाला तो ईश्वर है जो दिन रात देता है और लोगों को यह भ्रम है कि मैं देता हूं। यही सोचकर मेरी आंखें नीचे की ओर झुक जाती हैं-


'देनहार कोई और है ,जो देता दिन रैन


लोग भरम मो पे करें ,ताते नीचे नैन।'


             भारतीय संस्कृति में दान के साथ दक्षिणा की भी परंपरा थी और उसकी एक झलक आज कन्या महाविद्यालय में फ्यूजन फाइनेंस कंपनी ने दिखाई। उसी समय मुझे सरकारी राजस्व से मुफ्त योजनाओं की सौगात देने वाले राजनेताओं की भी याद आई और उनकी भावभंगिमाएं भी याद आई। आयकरदाता का पैसा जनता को मुफ्त में देकर अपना वोट कमाने वाले जमाने में उद्यमियों से सीखने की जरूरत है। जो अपने पुरुषार्थ से संपत्ति का सृजन करते हैं और बड़ी विनम्रता के साथ उसका एक बड़ा हिस्सा दान भी करते हैं,साथ में दक्षिणा भी देते हैं। इसी कारण से व्यवसायियों को हमारी संस्कृति ने 'श्रेष्ठी' कहा था। क्योंकि वे शिक्षा और संस्कृति जैसे श्रेष्ठ कार्यों को आगे बढ़ाने में अपने धन का सदुपयोग करते थे।


               आज के शिक्षण संस्थानों को जितनी सुविधाएं और सामान दिए जा रहे हैं, न जाने क्यूं शिक्षा का स्तर उतना ही गिरता जा रहा है। मैं काफी खुश था किंतु अंत में गम का शिकार हो गया। वरिष्ठ पत्रकार और फाइनेंस कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी ने कन्याओं की प्रतिक्रिया जानने के लिए एक कन्या को मुझे बुलाने के लिए कहा जो अच्छी तरह से अपनी बात आज के कार्यक्रम के संदर्भ में रख सके। अंत में अधिकांश कन्याएं जा चुकी थीं किंतु एक कन्या मुझे मिली जो नियमित क्लास में आती है। उस कन्या से पूछा गया-'बी.ए. का फुल फॉर्म क्या होता है?' उस कन्या ने जो मौन साधा तो मेरे हृदय की धड़कनें बढ़ गईं। शिक्षक के रूप में कार्यक्रम के सफलता की मेरी खुशी तो काफूर हो गई किंतु कन्या की चुप्पी का गम स्थायी हो गया।


            'कभी खुशी,कभी गम' फिल्म मेरे दिलोदिमाग में घूमने लगी। उच्च शिक्षा की असलियत भी सामने में नृत्य करने लगी। जो शिक्षक नियमित क्लास लेता है, अहर्निश शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए प्रयास करता है ; उसके विद्यार्थी द्वारा बी.ए. के फुल फॉर्म न बता पाना किसी हृदयाघात से कम नहीं था। आज की बड़ी खुशी में इस गम से बड़ा कोई गम नहीं था।


              आखिर वृक्ष पहचाना जाता है अपने फल से। शिक्षक पहचाना जाता है अपने विद्यार्थी से। जिस वृक्ष पर कड़वे फल लगते हों,उस वृक्ष को अमृत-वृक्ष कैसे कहा जा सकता है? जहां के विद्यार्थी बी.ए. का फुल फॉर्म न बता पाते हों , वहां के शिक्षक को अच्छा शिक्षक कैसे कहा जा सकता है?


              इस कम स्टाफ वाले कन्या महाविद्यालय में 12 स्थायी शिक्षकों में से चार आचार्य हैं। यहां की क्लासेज नियमित चलती हैं और शिक्षकों की गुणवत्ता बहुत अच्छी हैं‌। फिर ऐसा परिणाम क्यूं?


दरअसल शिक्षा द्वि-आयामी प्रक्रिया है। एकलव्य के सीखने की प्यास इतनी थी कि गुरु द्रोणाचार्य के द्वारा मना करने पर गुरु की मूर्ति बनाकर उसने धनुर्विद्या सीख ली। एकलव्य की इस धरती पर आज विद्यार्थियों के सीखने की प्यास न पता कहां गायब हो गई? मौलिक पुस्तकें वे खरीदते नहीं है, क्लास में नियमित वे आते नहीं हैं। पासबुक की विकृति और कम से कम पढ़कर सिर्फ पास होने की प्रवृत्ति आज उन्हें इस मुकाम पर लाई कि न उन्हें अच्छी प्रकार से बोलना आता है ,न शुद्ध लिखना और न शुद्ध पढ़ना।


            आज मेरी हालत उस रामकथावाचक के समान हो गई है जिसने 9 दिन तक राम कथा सुनाई। सभी 9 दिन सही समय पर आकर कथा को अंत तक सुनने वाला एक श्रोता ने कथावाचक के दिल को जीत लिया। कथावाचक ने मंच से उसकी खूब तारीफ की और कहा कि श्रोता हो तो ऐसा जिसने पूरी श्रद्धा के साथ सभी दिन सही समय पर आकर राम कथा सुनी। अंत में कथा वाचक ने कहा कि हे रामभक्त!कोई जिज्ञासा हो तो पूछो? रामभक्त श्रोता ने पूछा कि-सारी कथा मुझे मालूम चल गई, सिर्फ यह बता दें कि सीता किसकी पत्नी थी- राम की या रावण की?


          सरकार द्वारा करोड़ों के स्कॉलरशिप हर कॉलेज में बांटे जा रहे हैं, करोड़ों की स्कूटियां जंग खा रही हैं ; उद्यमी वर्ग भी हर प्रकार की सहायता को तैयार है फिर भी यदि शिक्षा की यह हालत है तो समाज को, सरकार को,शिक्षक को और शिक्षार्थी को मिलजुलकर यह सोचना चाहिए कि कमी कहां पर हैं? शिक्षा रूपी गाड़ी के ये चार पहिए (समाज,सरकार,शिक्षक,शिक्षार्थी) जब तक आपस में मिलजुलकर शिक्षा पर विचार नहीं करते तब तक गुणात्मक परिवर्तन संभव नहीं।


            हमारे समय में सरकारी शिक्षा में पठन-पाठन प्रमुख था,जिसके कारण वहां के विद्यार्थी बहुत अच्छे पदों पर सुशोभित हुए। आज के समय में सरकारी शिक्षा में समान-वितरण जितना बढ़ता जा रहा है, पठन-पाठन का स्तर उतना ही गिरता जा रहा है।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹