संवाद
🙏भारतीय ज्ञान परंपरा(१)🙏
'मातृ-पितृ-गुरुहंतावाला हिंसक-चित्त कैसे बदले?'
भारतीय ज्ञान परंपरा केंद्र का मुझे नोडल बनाया गया तो मन में एक प्रश्न उभरा कि आधुनिक शिक्षा के जमाने में प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति की क्या प्रासंगिकता है?
मध्यप्रदेश के एक सरकारी स्कूल में 12वीं कक्षा के छात्र ने प्रिंसिपल की हत्या कर दी और दिल्ली में एक युवक ने अपने मां-बाप समेत बहन की हत्या कर दी। दिल दहला देने वाली इन दोनों घटनाओं में एक समान बात यह है कि प्रिंसिपल द्वारा और पिता द्वारा पढ़ने के लिए टोका जा रहा था।
आधुनिक शिक्षा जगत जब मरने और मारने की घटनाओं में अति पर पहुंच जाए तो उस शिक्षा जगत पर विचार तो होना ही चाहिए।
मानव जाति के लंबे इतिहास काल में कभी शिक्षा जीवन देने वाली थी। वह शिक्षा जब जीवन लेने वाली बन जाए तो पीछे मुड़कर यह देखना होगा कि आखिर शिक्षा या विद्या का मूल उद्देश्य क्या है?
प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में कहा गया है कि विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है-'विद्यया अमृतमश्नुते।' उस प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के मूलमंत्र को अंगीकार करने वाले स्वामी विवेकानंद,महात्मा गांधी,अरविंदो घोष,महर्षि रमन, ओशो और अभी जीवित लोगों में श्री रविशंकर, सद्गुरु,बाबा रामदेव, ब्रह्मकुमारी शिवानी जी जैसे लोगों को देखने पर 'विद्या विनय को देती है', 'विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है' और 'ज्ञान अनंत आनंद है' जैसे कथन सही प्रतीत होते हैं।
दूसरी तरफ आधुनिक शिक्षा पद्धति में धन,पद,प्रतिष्ठा के शिखर पर बैठे हुए लोगों के बीच भी मूल्यविहीनता को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इसके मूलमंत्र में कुछ गड़बड़ है। जब इस शिक्षा को प्राप्त करने वाले लोग बहुत बड़े पैमाने पर अवसाद,आत्महत्या और अनैतिकता के शिकार होने लगें तो इसकी मूल फिलॉसफी पर विचार होना चाहिए।
मेरे जीवन का अपना अनुभव कहता है कि कोर्स की पुस्तकें जब कभी भी तनाव से भर देती थी तो कोर्स के बाहर की स्वामी विवेकानंद , ओशो जैसे महापुरुषों की पुस्तकें मुझे तनाव से मुक्त कर देती और आनंद से भर देती।
आखिर दोनों में अंतर क्या है?
मेरी दृष्टि में अंतर यह है कि आधुनिक शिक्षा पद्धति ने जीवन को प्रतियोगिता बना दिया जबकि प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति जीवन को प्रेमपूर्ण बनाती है। कबीर ने उसी प्रेमपूर्ण जीवन पद्धति की उद्घोषणा की थी, जब यह कहा था कि 'ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय'.
प्रतियोगिता के जगत में हर कोई एक दूसरे का शत्रु है क्योंकि 100 बच्चों में से टॉप कोई एक बच्चा करेगा और 99 बच्चे उससे पीछे रह जाएंगे। टॉप करने वाला अहंकार से भर जाएगा और पीछे रहने वाले सब आत्महीनता से भर जाएंगे। उसको समाचारपत्र प्रमुखता से छाप कर सिरमौर बनाएंगे और विश्वविद्यालय गोल्डमेडल देकर सर पर चढ़ाएंगे। यह जीवन और जगत के प्रति दुश्मनी की दृष्टि है। हर जगह हर एक को सबसे आगे निकलने की एक बीमारी ने घेर लिया है। ऐसे चित्त की अंतिम परिणति हिंसा में ही है। वही हिंसा कभी अपने को मार रही है तो कभी दूसरे को मार रही है।
इसके विपरीत प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में बाहर की दौड़ ही नहीं थी बल्कि अंदर की खोज थी-'को अहम्?' अर्थात् मैं कौन हूं? इस खोज में सबसे सशक्त साधन था- ध्यान और ज्ञान। लेकिन वह भी ध्यान और ज्ञान को उपलब्ध गुरु के सान्निध्य में चौबीसों घंटे उसके पास रहकर ध्यान और ज्ञान की साधना। ध्यान बताता था कि ज्ञान बाहर नहीं है बल्कि अंदर में छुपा हुआ है। ध्यान से अंदर में जाकर जब आत्मज्ञान होता था तो यह भी पता चलता था कि सभी आत्मा उसी परमात्मा का अंश है।
तब ऋषि यह घोषणा करता था कि-'आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स पंडित:'अर्थात् अपने समान जो सबमें देखता है,वह पंडित है। ऐसा आत्मवान व्यक्ति जीवन और जगत के प्रति प्रेम से भर जाता था। इस प्रेम के कारण उसके जीवन में त्याग घटता था। तभी तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस आईसीएस की नौकरी छोड़कर अपनी मातृभूमि की सेवा में अपना सब कुछ त्याग कर देते हैं।
बाहर की चीजें धन,पद इत्यादि सब सीमित है, उसमें प्रतियोगिता होगी। लेकिन धन,पद ही जीवन का सब कुछ नहीं है, वह तो केवल साधन है ; साध्य तो प्रेम है। प्रेम से जीवन तृप्त होता है।
लेकिन आधुनिक शिक्षा ने साधन को जरूरत से ज्यादा महत्त्व दे दिया। और साध्य को पूरी तरह से शिक्षा जगत से गायब कर दिया। राजा मिडास को वरदान मिला कि जिसको छूएगा, वही स्वर्ण का हो जाएगा। लेकिन उसका जीवन अभिशाप हो गया क्योंकि सिर्फ स्वर्ण के साथ नहीं जीया जा सकता। आज पूरा शिक्षा जगत राजा मिडास के रास्ते पर चल रहा है।
ऐसे में भारतीय ज्ञान परंपरा यह याद दिलाएगी कि धन, पद,प्रतिष्ठा जिससे मिलता है ; वह अविद्या है। आजकल शिक्षा में कौशल विकास पर बहुत जोर है,इसको हमारे ऋषियों ने अविद्या कहा। भारतीय ज्ञान परंपरा में विद्या की तो यही परिभाषा है कि जो तुम्हें आनंद से भर दे, अमृत से भर दे- 'विद्यया अमृतमश्नुते'.
'तुमको जो खुद से मिला सके वही शिक्षा है
अन्यथा एक भिखारी की दूसरे भिखारी को दी गई भिक्षा है।'
राजमहल की सारी सुख सुविधाओं में जो गौतम को नहीं मिला, वह जंगल की एकांत साधना में ध्यान से मिल गया और उन्हें बुद्ध बना गया। ज्ञान प्राप्ति के बाद वे अपना ज्ञान और प्रेम को बांटने फिर से अपने राज्य में लौटे किंतु राजमहल में नहीं लौटे ; क्योंकि ज्ञान और प्रेम के महल में जिसका निवास हो जाता है, उसके लिए सब जगह राजमहल हो जाता है। ऐसी प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा ही माता-पिता-गुरु तथा स्वयं की हत्या करने वाले हिंसक-चित्त को बदल सकती है।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹