संवाद


🙏भारतीय ज्ञान परंपरा(२)🙏


'जिज्ञासा और शास्त्रार्थ की परंपरा कहां है?'


भारतीय ज्ञान परंपरा केंद्र का कॉलेज में मुझे नोडल बनाया गया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का एक महत्वपूर्ण घटक भारतीय ज्ञान परंपरा है। नोडल का यह मुख्य दायित्व बनता है कि नियमित रूप से कई अकादमिक गतिविधियों द्वारा संकाय सदस्यों एवं विद्यार्थियों के बीच भारतीय ज्ञान परंपरा का प्रचार-प्रसार करे।


           दायित्व पाकर मुझे हर्ष एवं शोक दोनों की अनुभूति एक साथ होने लगी।


          हर्ष इसलिए कि 'अथातो ब्रह्म जिज्ञासा', 'अथातो भक्ति जिज्ञासा' वाली भारतीय संस्कृति में जिज्ञासा के बल पर ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अद्भुत गहराइयां पाई गईं। उसका अंशमात्र भी जानकर व्यक्ति अभिभूत हो जाता है। शोक इसलिए कि जिस एकलव्य ने गुरु के द्वारा मना करने पर उनकी मूर्ति बनाकर धनुर्विद्या सीख ली,उस एकलव्य की धरती पर जिज्ञासा का लोप हो गया है। महाविद्यालय वीरान हो गए हैं, क्लासेज सूनी हो गई हैं, मौलिक पुस्तकों की संस्कृति की जगह पासबुक की विकृति ने जगह बना ली है, ज्ञान-केंद्र की जगह शिक्षा संस्थान सूचना-केंद्र बनते जा रहे हैं।


                  हर्ष इसलिए कि हमारी ज्ञान परंपरा में शास्त्रार्थ की अद्भुत परंपरा रही है-


'विषयो विशयश्चैव पूर्वपक्षस्तथोत्तरम् 


निर्णयश्चेति पञ्चाङ्गं शास्त्रेऽधिकरणं विदुः‌।'


अर्थात् किसी भी विषय पर निर्णय के पूर्व कई आयामों से उस पर विचार किया जाता था। व्याख्या और विश्लेषण की ऐसी क्षमता थी कि 'तत् त्वमसि' एक सूत्र वाक्य पर भारतीय दर्शन में कई संप्रदाय विकसित हो गए।शोक इसलिए कि आज गोष्ठी के नाम पर खानापूर्ति ज्यादा होती है। पाठ्यक्रम ही जब पूरा नहीं हो पा रहा तो किसी विषय पर गहरे विचार-विमर्श का अवकाश कहां है?


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹