संवाद
🙏भारतीय ज्ञान परंपरा(३)🙏
'कर्त्तव्य मूल है,अधिकार फूल'
भारतीय ज्ञान परंपरा केंद्र का नोडल बनाए जाने के बाद मेरी सबसे बड़ी चिंता यह है कि ज्ञान को पूर्णतः समर्पित ऋषियों की वेद,उपनिषद इत्यादि की गूढ़-गंभीर बातें पासबुक पढ़ने वाली आधुनिक पीढ़ी को कैसे बताया जाए?
मानवाधिकार दिवस (10 दिसंबर)को विद्यार्थियों से यह जानना चाहा कि यह दिवस क्या है और इसकी इस वर्ष की थीम क्या है? विद्यार्थियों को मानवाधिकार दिवस ही नहीं मालूम था तो उसकी थीम क्या मालूम होती। सामान्य प्रश्न पूछा कि अधिकार का मतलब क्या है? इस प्रश्न पर भी चुप्पी ने मुझे घोर आश्चर्य में डाल दिया। जबकि वर्ष 2024 में मानवाधिकार दिवस की थीम है-"हमारे अधिकार,हमारा भविष्य,और अभी".(Our Right,Our Future,Right now)
मैंने विद्यार्थियों को कहा कि अब तुम कोई भी प्रश्न मुझसे पूछो। इस पर भी वे मुंह खोलने को तैयार नहीं थे। जिस भारतीय ज्ञान परंपरा में प्रश्नोपनिषद जन्मा , उस भारत की आधुनिक पीढ़ी में कोई प्रश्न नहीं जन्मता है।मैं भी उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं था। सांची नाम की एक कन्या ने आखिर प्रश्न पूछा कि मानवाधिकार क्यूं जरुरी होता है? सारी कन्याएं इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए चर्चा को तैयार हो गई और भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुसार उपवन में बैठकर विद्यार्थियों के साथ विचार-विमर्श कर शिक्षक होने का कुछ अहसास हुआ।
दो विश्वयुद्धों की त्रासदी से खिन्न होकर संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने 10 दिसंबर 1948 को मानवाधिकारों का घोषणापत्र प्रस्तुत किया। विश्व के मानववादी चिंतकों और सरकार के प्रतिनिधियों के बीच यह आम सहमति बनी कि राष्ट्रीय राज्यों की शक्ति में इतनी वृद्धि हो चुकी है कि मानवाधिकारों की स्पष्ट घोषणा के बिना आम जन सुरक्षित नहीं है। हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराने वाले पूंजीवादी देश अमेरिका ने मानवाधिकारों की घोषणा की पहल की थी और उस सभा में सोवियत रूस सहित आठ समाजवादी देश अनुपस्थित थे।
मानवाधिकारों की घोषणा के इतने वर्षों के बाद भी मानवाधिकारों का हनन आज भी किसी देश में रुका नहीं है; चाहे वह पूंजीवादी देश हो या समाजवादी देश। आज भी रूस यूक्रेन युद्ध हो या हमास इजरायल युद्ध ;दोनों में आम नागरिकों,रिहायशी इलाकों,शरणार्थी शिविरों और अस्पतालों को निशाना बनाया गया है। यह इस बात का प्रमाण है कि सरकारों की कथनी और करनी में बड़ा अंतर है।
मानवाधिकार का झंडा उठाने वाले अमेरिका में ओशो को गिरफ्तार किया गया- बिना किसी गिरफ्तारी वारंट के और बिना किसी कारण को बताए हुए। वहां उन्हें स्लो प्वाइजन दे दिया गया। हर जमाने में सत्य बोलने वाले सुकरात को जहर पीना ही पड़ता है। आज भी मानवाधिकारवादी कई कार्यकर्ता पाखंडी सरकारों के दमन के शिकार हैं। वस्तुत:सर्वशक्तिशाली राज्य और निरीह मानवाधिकारियों के बीच संघर्ष खत्म होने वाला नहीं है क्योंकि मानवाधिकारों की बात करने वाले निरंकुश प्रवृत्ति के लोग अपने कर्त्तव्य को महत्व नहीं देते हैं।
भारतीय ज्ञान परंपरा में अधिकारों की बात कम की गई है, कर्त्तव्य की बात सबसे ज्यादा। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' का उपदेश दिया। अर्थात् कर्म में ही व्यक्ति का अधिकार है। दूसरे शब्दों में कहें तो कर्त्तव्य मूल है और अधिकार उस वृक्ष पर खिला हुआ फूल है।
आज पश्चिम के प्रभाव में सर्वत्र अधिकारों की मांग सबसे ज्यादा उठने लगी हैं लेकिन पूरब सदा से यह जोर देता रहा है कि हमारा जीवन एक यज्ञ के समान है। लेकिन सिर्फ उनके लिए जो इस यज्ञ में स्वयं की आहुति देने को तैयार है। भारतीय संस्कृति में ऋण की बात है,यज्ञ की बात है। ऋषि ऋण, पितृ ऋण,नृ ऋण इत्यादि ऋणों को चुकाने के लिए हमें पंचमहायज्ञ करने हैं।
जीवन का अधिकार,शिक्षा का अधिकार,मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार इत्यादि भी हमें इसलिए चाहिए कि हम अपने कर्त्तव्यों की पूर्ति कर सकें। आज शिक्षा जगत में भी विद्यार्थी अधिकारों की बात करते रहते हैं किंतु वे अपने कर्त्तव्यों पर ध्यान नहीं दे रहे।इस कारण से दूर दराज के इलाकों में भी विद्यालय,महाविद्यालय और यहां तक कि विश्वविद्यालय खोले जा रहे हैं किंतु शिक्षा का स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है। करोड़ों की स्कॉलरशिप, करोड़ की स्कूटियां और अन्य सामान सरकार शिक्षालयों और शिक्षकों के माध्यम से विद्यार्थियों को दे रही हैं। किंतु पढ़ने-पढ़ाने का कर्त्तव्य रूपी मूलमंत्र जब तक नहीं दिया जाए तब तक भारतीय ज्ञान परंपरा को अपनाने वाला देश यह नहीं बन सकता-
'उजाले इस कदर बे-नूर क्यूं हैं
किताबें जिंदगी से दूर क्यूं हैं?
काश!ऐसा हो कि पत्थर को भी चोट लगे
हमेशा आईने ही चूर क्यूं है???'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹