संवाद
'संविधान की शिक्षा बनाम शिक्षा का संविधान'
संविधान के 75 वर्ष पूर्ण होने पर संसद में हुई चर्चा ने संसद के प्रति गौरव से भर दिया। संसद नहीं चलने देने की इतने दिनों की शिकायत को दो दिन की चर्चा ने दूर कर दिया। पक्ष और विपक्ष दोनों ने याद दिलाया कि हमारे महान संविधान-निर्माताओं ने देश की समस्याओं और चुनौतियों को कितनी बारीकी से समझा था और कितना विस्तार से उसके समाधान के लिए उपाय सुझाए थे।
माननीय प्रधानमंत्री से लेकर सत्ता पक्ष के अन्य नेतागण देश को यह भरोसा दिलाने में कामयाब दिखे कि संविधान सुरक्षित हाथों में हैं,वहीं पर माननीय नेता प्रतिपक्ष व अन्य नेतागण यह आवाज उठाने में सफल रहे कि संविधान के सामने खतरे क्या-क्या है। प्रधानमंत्री की वक्तृत्व शैली ने हमेशा की तरह जहां दिल को छुआ,वहीं पर नेता-प्रतिपक्ष की आक्रोशित शैली ने जनसरोकार के मुद्दों से देश को रूबरू कराया।
संविधान पर चर्चा सुनकर भारतीय ज्ञान परंपरा की एक महत्वपूर्ण उक्ति ध्यान में आई -'वादे वादे जायते तत्त्वबोध:' सरल शब्दों में कहें तो किसी भी विषय के अनेक आयाम होते हैं,उन सारे आयामों को जानना जरूरी होता है किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए। दक्षिणपंथी हों या वामपंथी,समाजवादी हों या पूंजीवादी सभी ने संविधान के सामने सर झुकाए और अपने अपने तर्क बताए। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए जो समुद्र मंथन किया था, वह आज भी सार्थक हैं और भविष्य के लिए भी मार्गदर्शक है।
भारत का नागरिक होने के नाते हम भारत के लोगों को उस संविधान पर गर्व होना चाहिए जिसका संदेश यह है कि
'निश्चिंत रहो तुम जब तक मैं खड़ा हूं तिमिर के तट पर
कभी भी रोशनी को खुदकुशी करने नहीं दूंगा
तुम्हें आश्वस्त करता हूं पदार्थों के छलीयुग को
कभी भी आत्मा का तेज मैं हरने नहीं दूंगा।'
हम भारत के लोगों ने उस संविधान को अंगीकृत किया, अधिनियमित किया किंतु आत्मार्पित नहीं किया। आत्मा तक किसी बात को ले जाने का सबसे सशक्त माध्यम भारतीय ज्ञान परंपरा में शिष्य गुरु संवाद रहा है।
संविधान पर गर्व सिर्फ संविधान के आगे सर झुकाने से नहीं प्रकट होता बल्कि उस संविधान को ध्यान से पढ़कर, अच्छी तरह से समझकर,चिंतन-मनन करके उस संविधान की मूल आत्मा को आत्मसात करने से होता है। क्योंकि संविधान पर चर्चा के बाद नागरिकों को ही यह मूल्यांकन करना है कि यह देश संविधान के अनुसार कितना चला है और कितना चल रहा है।
शिक्षित और सजग नागरिकों को तैयार करने वाले शिक्षालय ही जब दुर्दशा के शिकार हों तो भारतीय ज्ञान परंपरा के गूढ़ रहस्यों को और भारतीय संविधान निर्माताओं के गंभीर चर्चाओं को हम भारत के लोग कैसे समझ सकेंगे?
भारतीय ज्ञान परंपरा के ग्रंथों में कर्त्तव्य-चेतना की पुकार है। गीता में भी भगवान कृष्ण ने अर्जुन को यही उपदेश दिया कि- 'कर्मण्येवाधिकारस्ते... इसका अर्थ है कि कर्म में ही तेरा अधिकार है। प्रधानमंत्री जी के 11 संकल्पों में से प्रथम संकल्प यही है कि नागरिक और सरकार सभी अपने कर्त्तव्यों का पालन करें।
किंतु भारतीय संविधान निर्माताओं ने अधिकार-चेतना पर जोर दिया था क्योंकि उन्हें लगा कि शक्तिशाली राज्य के सामने निरीह नागरिकों को यदि कुछ विशेष अधिकार नहीं उपलब्ध हों तो वे अपने कर्त्तव्य पालन के योग्य नहीं बन सकते। फिर बाद में 42वें संविधान संशोधन द्वारा 1976 में मौलिक कर्त्तव्यों का समावेश किया गया क्योंकि अधिकार-चेतना ने कर्त्तव्य- चेतना को विस्मृत कर दिया था।
सत्ता पक्ष हमेशा कर्त्तव्य की याद दिलाता है और विपक्ष हमेशा अधिकार की। किंतु सम्यक शिक्षा यही बताती है कि कर्त्तव्य की जड़ें जितनी गहरी जाएगी, अधिकार की इमारत उतनी ही ऊंची उठती जाएगी। उसी सम्यक शिक्षा के अभाव में आज तक संविधान जन-जन तक नहीं पहुंचा है। 75 वर्ष पूर्ण होने पर संविधान की शक्ति का एहसास तो हम भारत के लोगों को हुआ है किंतु प्रत्येक नागरिक को जब तक संविधान का इल्म नहीं होगा तब तक संविधान के नाम पर हम भारत के लोगों के साथ छलावा होता रहेगा।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹