संवाद


🙏भारतीय ज्ञान परंपरा (५)🙏


'आत्महत्या से अध्यात्म की ओर'


एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार अकेले साल 2021 में 81000 से ज्यादा विवाहित पुरुषों ने आत्महत्या की है, जिनमें से 35 फ़ीसदी पारिवारिक विवाद और फर्जी मुकदमों से पीड़ित थे।अतुल की आत्महत्या का एक घंटे का वीडियो कल रात मैंने देखा। क्षणिक भावावेश में आत्महत्या होती है-यह सोच ध्वस्त हो गई। फिर भी बहुत विचार कर की गई इस दिल दहला देने वाली आत्महत्या के पक्ष में खड़ा होना मुश्किल है। उसके कुछ कारण हैं जिसे हम सभी को सम्यक् स्मृति में सदैव रखना चाहिए।


                 भारतीय ज्ञान परंपरा कहती है कि यह सिर्फ देह हत्या है। विश्व युद्ध के समय में सार्त्र,कामू इत्यादि के अस्तित्ववादी दर्शन से प्रभावित होकर बहुतों ने जीवन को निरर्थक मानकर तथाकथित आत्महत्या की। अतुल ने वैवाहिक संबंधों की उलझनों से और व्यवस्था से परेशान होकर यह रास्ता आख़्तियार किया। हजारों लोग हर साल दहेज प्रताड़ना अधिनियम की बलि चढ़ जाते हैं।


मूल में वह मन है जो अकेले रहना भी नहीं जानता और साथ रहना भी नहीं जानता-


'आदमी की हयात कुछ भी नहीं


बात यह है कि बात कुछ भी नहीं


तूने सब कुछ दिया है इंसां को


फिर भी इंसा की जात कुछ भी नहीं।'


           सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के समय भी यह सवाल प्रमुखता से उठा था और अतुल की आत्महत्या के समय भी यह सवाल प्रमुखता से उठ गया है। बस एक अंतर है कि राजपूत के केस में जिम्मेदार लोगों का मामला स्पष्ट नहीं था जबकि अतुल के केस में साक्ष्य सहित सब स्पष्ट है।


             महात्मा बुद्ध अपने संन्यासियों के साथ शादियों में अक्सर पहुंच जाया करते थे। लोगों ने पूछा कि इसके पीछे कारण क्या है? उन्होंने कहा कि मै यह संदेश देने जाता हूं कि जिंदगी की समस्याएं और मन की समस्याएं इतनी जटिल हैं कि जब मरने का विचार उठता हो तो जीवन का एक रास्ता और भी है-वह है संन्यास का।


आध्यात्मिक जीवन शैली से भौतिकवादी जीवन शैली ने अपना संबंध विच्छेद कर लिया है। भारतीय ज्ञान परंपरा में बहुत ऋषियों ने ऐसी कठोर तपस्याएं कीं और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारत माता की संतानों ने बहुत यातनाएं सहीं किंतु संघर्ष का मैदान नहीं छोड़ा। बस उन सभी के मन में जीवन का कोई बहुत बड़ा उद्देश्य इसकी प्रेरणा दे रहा था।


            ऐसे तपस्वियों का जीवन-मूल्य कहता है कि तन के तल पर कोई असाध्य बीमारी आ जाए तो मन के तल पर उठ जाना चाहिए। हमारे कॉलेज की एक मैम को एक साथ पैरालिसिस और कैंसर दोनों का अटैक हो गया। पैरालिसिस ने सुंदर चेहरा विद्रूप कर दिया और कैंसर ने अंदर से तोड़ दिया। किंतु उन्होंने अपने मन को पढ़ाई में लगाकर अपना संघर्ष जारी रखा है जो बहुत ही अनुकरणीय उदाहरण है।


          मन के तल पर कोई समस्या हो तो आत्मा के तल पर उठ जाना चाहिए। अभी मानसिक समस्याएं बहुत बढ़ गई हैं, उसके पीछे एक मुख्य कारण यह भी है कि दूसरों से अपेक्षाएं हमारी बहुत बढ़ गई हैं। आत्मा के तल पर गया हुआ व्यक्ति दूसरों से किसी सुख की अपेक्षा नहीं करता और अपने अंदर में जो आनंद है,उसी को ढूंढता है।


'प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।


आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।।'


गीता के ऐसे श्लोक को आज का बुद्धिजीवी फिलॉसफी की बात कहकर उड़ा देता है किंतु इस पर ध्यान करें तो कहा गया है कि जो अपनी मन की सारी कामनाओं को छोड़कर आत्मा से आत्मा में ही तुष्ट रहता है, उसी की प्रज्ञा स्थिर रहती है।


         दूसरे शब्दों में कहें तो अधिकतर वैवाहिक और सांसारिक संबंधों में दूसरों से बहुत ज्यादा अपेक्षाओं से बंधे हुए हम लोग हो गए हैं। दूसरा कोई भी आपकी अपेक्षा पूर्ण करने के लिए यहां आया नहीं है। उसकी भी अपेक्षा आप पूर्ण नहीं कर रहे हैं। ऐसे में रास्ता है कि जीओ और जीने दो। किंतु यह सिद्धांत जितना सरल लगता है,व्यवहार में उतना ही कठिन है क्योंकि आस्थावान और आध्यात्मिक जीवन शैली वाले लोग ही इसे जीवन में उतार सकते हैं।


            मेरी नजर में अतुल के केस में दिक्कत यह है कि वह प्रश्न तो अर्जुन की तरह कर रहा है और स्वयं ही अपने प्रश्नों का उत्तर कृष्ण की तरह दे रहा है। तथाकथित आत्महत्या उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं था किंतु कृष्ण के बगैर उच्चस्तर का उत्तर दूसरा कोई सुझा भी नहीं सकता-


'जब निगाहों में सिमट जाते अंधेरे


जिंदगी बिखरे समय के खा थपेड़े


कौन धुंधलाई हुई परछाइयों में


जिंदगी के कण तमाम समेट लेता।'


           अर्जुन के पास कृष्ण नहीं होते तो सोचो जरा क्या होता! ऊंची दर्शन की बातों को कहकर मैं अतुल द्वारा व्यवस्था पर उठाए गए प्रश्नों को दरकिनार नहीं कर रहा। उन प्रश्नों पर वैसी ही गंभीर चर्चा होनी चाहिए जैसी संविधान पर हुई। अनेक लोगों से व्यक्तिगत बातचीत में यह बात उभर कर आई कि महिला आयोग की तरह पुरुष आयोग भी बनाया जाना चाहिए क्योंकि महिलाओं के हाथ में दहेज प्रताड़ना अधिनियम लड़कों के परिवार को प्रताड़ित करने का एक माध्यम बन गया है। पुनः यहां भी वही मन की समस्या आ गई। दहेज के लिए बहुओं को  यातनाएं दी गईं ,वे जलाई गईं-इससे सुरक्षा के लिए दहेज प्रताड़ना अधिनियम रूपी ब्रह्मास्त्र लाया गया। किंतु फिर यह मन समझ नहीं पाया कि ब्रह्मास्त्र का उपयोग किस प्रकार से करना चाहिए। इसके दुरुपयोग की अति होने पर अब यह ब्रह्मास्त्र पुनर्विचार योग्य हो गया है।


            मन पर काम करती है शिक्षा और उस शिक्षा की दुर्दशा आज ऐसी हो गई है कि शिक्षा देने वाला सिर्फ सूचना जुटाने और भेजने में लगा हुआ है। व्यवस्था ने शिक्षकत्व को मार दिया। उस पर से भारतीय ज्ञान परंपरा केंद्र सब जगह खोलकर यह याद दिलाया जा रहा है कि एक मन ऐसा होता था कि बुद्ध के साथ हजारों भिक्षु जीवन की सारी प्रतिकूलताओं को सहते हुए और कठोर तपस्या में निरत रहते हुए आनंदपूर्वक विहार किया करते थे। दूसरी तरफ एक आज की शिक्षा से उपजा हुआ मन है जिसने संयुक्त परिवार तोड़ा और अब एकल परिवार भी टूट रहा है। लिव इन रिलेशन वाली नई पीढ़ी की सोच तो शादी के विपरीत होती जा रही है-


'रौनकें तो गईं कारवां के साथ


अब तो रास्ते का गुब्बार बाकी है


आदमियत तो मर गई कब की


अब तो सिर्फ उसका मजार बाकी है।'


          जहां मां अपनी बेटी को पति से पैसा हड़पने का उपाय बताती हो ,पत्नी मासूम बच्चे को अपनी इच्छापूर्ति का हथियार बनाती हो और न्यायालय पीड़ित को अन्याय की चरम सीमा तक पहुंचाकर मरने पर मजबूर कर देता हो, उस मन और उस व्यवस्था के लिए मुझे कोई लौकिक उपाय नहीं दिखता; मुझे तो एक ही उपाय दिखता है-अध्यात्म।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹