संवाद
'उपभोक्ता जागरूकता और प्रचार की प्रचुरता'
उपभोक्ता जागरुकता सप्ताह के अंतर्गत कई प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। उपभोक्ताओं के अधिकारों से सबको परिचित कराया जा रहा है।सात प्रमुख अधिकार यूएनओ द्वारा उपभोक्ताओं को दिए गए हैं-चयन,सुरक्षा,सूचना-प्राप्ति,क्षतिपूर्ति, सुनवाई और प्रतिनिधित्व, उपभोक्ता-शिक्षा और स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार। किंतु सारे अधिकारों के बावजूद न तो पर्यावरण स्वच्छ है और न साइबर ठगी के इस जमाने में उपभोक्ता सुरक्षित है।
उपभोक्तावादी संस्कृति ने उपभोग की लालसा को इतना बढ़ा दिया है कि सामान इंसान पर भारी पड़ने लगा है। महंगे मोबाइल की जिद के कारण बच्चे जान दे रहे हैं, प्री वेडिंग शूट, डेस्टिनेशन मैरिज जैसे नए रिवाज के कारण शादी समारोह लोगों को कर्जदार बना रहे हैं,दहेज में दिए जाने वाले महंगे सामानों के कारण पूरा सामाजिक ताना-बाना बिखर रहा है और मां-बाप भारी दबाव में है। मानव की सारी इंद्रियों को असीमित उपभोग के लिए उपभोक्तावाद ने तैयार कर दिया है-
'इच्छा का ही रहट चल रहा हर पनघट पर
पर सबकी प्यास नहीं बुझती है इस तट पर।'
अब अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि इच्छाओं की पूर्ति के लिए हर कोई हर जगह बेतहाशा भाग रहा है। गांधी जी कहा करते थे कि प्रकृति के पास आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुत है किंतु लालच की पूर्ति के लिए बहुत कम। मनुष्य की असीमित उपभोग की इच्छाओं के कारण प्रकृति खतरे में पड़ गई है। इसके बावजूद गांधी की बात नहीं सुनी गई और मानव सचमुच केवल उपभोक्ता बनकर रह गया है।प्रचार प्रसार का इतना प्रभाव मानव के मस्तिष्क पर पड़ रहा है कि जिन चीजों की जरूरत नहीं है,उन चीजों को भी खरीद लेता है।
भारतीय ज्ञान परंपरा में साक्षी और भोक्ता जैसे शब्द तो हैं किंतु उपभोक्ता नहीं-
'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥'
श्वेताश्वेतरोपनिषद का यह श्लोक कह रहा है कि एक ही वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं।उनमें से एक भोक्ता बनकर फलों को खा रहा है और उससे प्राप्त सुख-दुख को भोग रहा है किंतु दूसरा साक्षी भाव से सिर्फ देख रहा है।
भोक्ता बनने मात्र से जब व्यक्ति बंधन में पड़ जाता है तो उपभोक्ता बनकर वह कितने बड़े बंधन में स्वयं ही स्वयं को डाल रहा है।
उपभोक्ता का अर्थ हुआ वस्तु के अधीन हो जाना। पश्चिम ने बाजारवाद के प्रभाव में उपभोक्ता शब्द ईजाद किया और आज सबको सिर्फ उपभोक्ता मान लिया गया। उपभोक्ता तो वस्तु का गुलाम होकर सोया हुआ है। उपभोक्ता की वास्तविक जागरुकता सिर्फ उपभोक्ता के अधिकार को जानने मात्र में नहीं है। उपभोक्ता के अधिकार के साथ व्यक्ति को यह भी जानना चाहिए कि वस्तुएं उसका व्यक्तित्व न छीन लें। Individual को इनडिविजिबल (indivisible)भी होना चाहिए। indivisible का अर्थ है 'अखंड' होना चाहिए। वस्तुओं और दूसरों के पीछे भागता हुआ व्यक्ति अनेक खंडों में बंट गया है-
'जिंदगी से बड़ी कोई सजा ही नहीं
खता क्या है मेरी कुछ पता ही नहीं
इतने हिस्सों में बट गया हूं मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹