🙏🌹Happy New year 25🙏🌹


संवाद


'नए के स्वागत का ढंग'


नववर्ष भारतीय ज्ञान परंपरा में चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि को मनाया जाता है जब प्रकृति दुल्हन का रूप धर स्नेह सुधा बरसाने लगती हैं।शस्य-श्यामला धरती माता घर-घर खुशियां लाने लगती हैं। पाश्चात्य परंपरा में भी वर्ष का प्रारंभ मार्च महीने से ही होता रहा था।


       पहली जनवरी से वर्ष प्रारंभ करने की परिपाटी ब्रिटिश पार्लियामेंट में पारित एक विधेयक के अनुसार सन् 1752 से अस्तित्व में आई और तदनुसार उपनिवेशवाद के प्रभाव में पूरे विश्व में प्रचलित हो गई। यह खगोलीय गणना और प्राकृतिक स्थितियों के विपरीत अधिनायकवाद की मानसिकता का परिचायक है, जिसका तार्किक विरोध एक अज्ञात कवि ने किया है। उसकी कविता को 'भारत वैभव' पुस्तक में डॉ.ओमप्रकाश पांडेय जी ने उद्धृत किया है-


"ये नववर्ष हमें स्वीकार नहीं,है अपना ये त्योहार नहीं


है अपनी ये तो रीत नहीं, है अपना ये व्यवहार नहीं।


धरा ठिठुरती है सर्दी से,आकाश में कोहरा गहरा है


बाग बाजारों की सरहद पर,सर्द हवा का पहरा है।


सूना है प्रकृति का आंगन, कुछ रंग नहीं उमंग नहीं


हर कोई है घर में दुबका,नववर्ष का ये कोई ढंग नहीं।


उल्लास मंद है जनमन का ,आयी है अभी बहार नहीं


ये नववर्ष हमें स्वीकार नहीं,है अपना ये त्योहार नहीं।


ये धुंध कुहासा छंटने दो ,रातों का राज्य सिमटनें दो


प्रकृति का रूप निखरने दो,फाल्गुन का रंग बिखरने दो।


प्रकृति दुल्हन का रूप धर,जब स्नेह सुधा बरसाएगी


शस्य श्यामला धरती माता, घर-घर खुशहाली लाएगी।


तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि को नववर्ष मनाया जाएगा


आर्यावर्त की पुण्यभूमि पर जब गान सुनाया जाएगा।


अनमोल विरासत के धनिकों को,चाहिए कोई उधार नहीं


ये नववर्ष हमें स्वीकार नहीं,प्राकृतिक है ये त्योहार नहीं।"


              1 जनवरी से शुरू होने वाला ये नववर्ष भले ही कुछ लोगों को स्वीकार नहीं हो किंतु नए को सभी स्वीकार करते हैं और उसका स्वागत सभी करते हैं।


             भौतिकवादी संस्कृति में नए का स्वागत नया सामान लाकर किया जाता है किंतु आध्यात्मिक संस्कृति में नए का स्वागत नया मन वाला इंसान लाकर किया जाता है।


           पश्चिम के प्रभाव में नया सामान बदलने की प्रवृत्ति इतनी बढ़ी कि लोग जीवन साथी भी नया बदलने लगे। लेकिन पुराने मन के साथ नया सामान हो या नया इंसान हो; दोनों जल्दी पुराने पड़ जाते हैं। फिर ऊब (boredom) पैदा होने लगती है और फिर नए की खोज शुरू हो जाती है।


          पूरब की संस्कृति ने एक नई दृष्टि दी जिससे हर वर्ष ही नहीं ,हर दिन और उसका हर पल नया हो जाता है।वह नई दृष्टि है-


'भविष्यं नानुसंधते, नातीतं चिन्त्यत्यसौ


   वर्तमान निमेषं तु हसन्नेवानुवर्तते।'


अर्थात् न तो भविष्य की चिंता करता है और न अतीत की ; सिर्फ वर्तमान पल में हंसते हुए जीता है।


          भारतीय ज्ञान परंपरा मानती है कि परमात्मा ऐसा सृजनशील है कि पुनरुक्ति नहीं करता। मनुष्य के अंगूठे के चिन्ह ही नहीं बल्कि हर वृक्ष की पत्ती का चिन्ह भी नया नया बनाता है। हमने वो आंखें खो दीं जिससे हर क्षण नया दिखता है। राष्ट्रकवि दिनकर जी के शब्दों में-


'नयी कला,नूतन रचनाएँ,नयी सूझ,नूतन साधन,


नये भाव, नूतन उमंग से , वीर बने रहते नूतन।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹