संवाद
🙏 'हमारा शैक्षिक संस्थान हमारा तीर्थ कैसे बने?' 🙏
यह अभीप्सा हम सभी शिक्षकों की हैं कि नालंदा विश्वविद्यालय की तरह 'हमारा शैक्षिक संस्थान भी हमारा तीर्थ बने'. तीर्थ का मतलब होता है-ऊर्जा का एक ऐसा क्षेत्र जहां पहुंचकर व्यक्ति अपने जीवनयात्रा रूपी नाव की पाल खोल दे तो वहां की हवाएं बहाकर मंजिल तक उसे पहुंचा दे। अपने हाथ से अकेले पतवार चलाते रहने से मंजिल मिलना बहुत मुश्किल है।
खासकर शैक्षिक दृष्टिकोण से अत्यंत पिछड़े क्षेत्र बांसवाड़ा के शिक्षा संस्थानों को देखता हूं और दूसरी तरफ ज्ञान के क्षेत्र में परम ऊंचाई को छुए हुए नालंदा विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा संस्थान के बारे में पढ़ता हूं तो दोनों में आकाश पाताल का अंतर दिखाई देता है। लेकिन मुझे नालंदा विश्वविद्यालय के परिसर उद्घाटन के अवसर पर कहे हुए माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी का वह वाक्य कानों में गूंजने लगता है जिसमें उन्होंने कहा था कि नालंदा केवल एक नाम नहीं है, यह एक पहचान है, एक सम्मान है। नालंदा मूल है और मंत्र भी है। नालंदा इस सत्य का उद्घोष है कि ज्ञान नष्ट नहीं हो सकता, भले ही पुस्तकें आग में जल जाएं। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि नवीन नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना भारत के स्वर्ण युग का शुभारंभ करेगी।
वस्तुत:नालंदा विश्वविद्यालय पुष्पक विमान की तरह ज्ञान के आकाश की ऊंचाइयों को छूता था। उस समय उस विमान के चार पहिए शिष्य,गुरु,सरकार और समाज में अद्भुत सामंजस्य और सहयोग था। ज्ञान के प्यासे विद्यार्थी दूरदराज से नालंदा विश्वविद्यालय रुपी तीर्थ की ओर आकर्षित होकर चले आते थे। ज्ञान के सागर ऐसे गुरु विद्यमान थे जो अहर्निश ज्ञान की बारिश किया करते थे। 10000 विद्यार्थियों पर 2000 शिक्षक वहां उपलब्ध थे। सरकार अर्थात् उस समय के राजा वहां चल रही ज्ञान आराधना में कोई बाधा न पहुंचे और कोई कमी न रह जाए इसका सदैव ख्याल रखते थे। समाज सदा ही विश्वविद्यालय की सेवा में तत्पर रहता था।
बांसवाड़ा के सरकारी शिक्षा संस्थानों को देखता हूं तो एकलव्य की इस धरती पर आज के विद्यार्थी में ज्ञान की कोई प्यास नहीं दिखाई देती,शिक्षक गैरशैक्षिक कार्यों में व्यस्त हैं, सरकारें सूचनाओं के मोह से ग्रस्त हैं और समाज में शिक्षा के प्रति कोई जागरूकता नहीं है। क्षेत्र में खुला नया विश्वविद्यालय भी डिग्री बांटने के केंद्र में तब्दील हो गया है।
लेकिन इसके बावजूद मैं आशावादी हूं क्योंकि उच्च शिक्षा के 25 वर्षों में आज के उतार के साथ मैंने शुरू के 10 वर्षों में चढ़ाव भी देखे थे।कॉलेज शिक्षा में जब प्रवक्ता पद पर श्री गोविंद गुरु राजकीय महाविद्यालय,बांसवाड़ा में ज्वाइन किया, उस समय क्लासेज नियमित चलती थीं और अधिक जिज्ञासा से भरे हुए विद्यार्थी रविवार को भी नियमित संवाद के लिए आ जाया करते थे, यह शिष्य गुरु संवाद केंद्र उसी का परिणाम है। गैरशैक्षणिक कार्य उस समय नाममात्र को थे,अतः अध्ययन अध्यापन में सारे समय का सदुपयोग होता था। विद्यार्थियों की अच्छी संख्या कॉलेज में आती थी और सत्र के अंत में होने वाले साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रस्तुतियों में भी विद्यार्थियों की संख्या और प्रतिभा दोनों झलकती थीं। कॉलेज में शिक्षकों की संख्या 100 से ऊपर थी और समितियों की संख्या बहुत कम।
धीमे-धीमे इस कॉलेज में शिक्षकों की संख्या घटकर एक तिहाई रह गई और समितियों की संख्या बढ़कर तीन गुना से भी ज्यादा हो गई। स्पष्ट है कि शिक्षकों को समितियों के कार्यों और सूचनाओं में इतना उलझा दिया गया कि क्लासेज कम से कम होती चली गई। धीमे-धीमे प्राचार्य सिर्फ सूचनाओं के लिए शिक्षकों को कहने लगे और शिक्षक सूचनाओं के जुटाने में व्यस्त होकर अपने क्लास को नजरअंदाज कर बैठे। कॉलेज में जो विद्यार्थी आते थे उन्हें विभिन्न कार्यक्रमों में संख्या दिखाने के लिए क्लास छोड़कर बैठाया जाने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि विद्यार्थी दूर भागने लगे। समितियों के बोझ तले दबा शिक्षक पाठ्यक्रम पूर्ण करने में असमर्थ होता गया और विद्यार्थी कॉलेज से दूर होता गया। आज स्थिति यह हो गई है कि कॉलेज सूने पड़ते जा रहे हैं, समितियों की संख्या बढ़ती जा रही हैं, सूचनाओं का भार बढ़ता जा रहा है और शिक्षण संस्थान की आत्मा मरती जा रही है-
'बेरुह अपना जिस्म लिए फिर रहा हूं मैं
गफलत की कितनी सख्त सजा दे गया कोई
मुझको जरा पहुंचने में ताख़ीर हो गई
मंदिर से मूरती ही उठा ले गया कोई।'
आज स्थिति यह है कि कॉलेज में एडमिशन लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही हैं, समितियों की संख्या बढ़ती जा रही हैं, गैरशैक्षिक कार्यों की संख्या बढ़ती जा रही हैं और समाज कल्याणकारी योजनाओं की संख्या बढ़ती जा रही हैं जबकि शिक्षकों की संख्या घटती जा रही हैं, क्लास में आने वाले विद्यार्थियों की संख्या घटती जा रही हैं और शिक्षा की गुणवत्ता घटती जा रही है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के बाद उम्मीद जगी थी कि शिक्षा के क्षेत्र में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन होगा। कॉलेज में सेमेस्टर प्रणाली लागू कर दी गई। हर 6 महीने के भीतर आंतरिक मूल्यांकन और मुख्य परीक्षा कराया जाने लगा। विद्यार्थियों के तीन विषयों में से एक विषय का भी पाठ्यक्रम पूर्ण नहीं होता और परीक्षा हो जाती हैं तथा अच्छे अंक भी मिल जाते हैं।
सेमेस्टर प्रणाली कितनी भी अच्छी क्यूं न हो किंतु वास्तविक धरातल पर यह बोझ बन गई हैं क्योंकि कई विषयों में जहां दस शिक्षक होने चाहिए सिर्फ एक शिक्षक काम कर रहा है। सिर्फ एक शिक्षक अब पढ़ाने का काम भी छोड़कर सूचनाएं जुटाने, परीक्षा लेने और मार्क्स अपलोड कराने के लिए दिन-रात परेशान हो रहा है।
ऐसी स्थिति में भी हम सभी शिक्षकों की यही कामना है कि हमारा शैक्षिक संस्थान हमारा तीर्थ बने क्योंकि विकसित भारत की संकल्पना वैसी ही होगी जैसी वहां की शिक्षा होगी। अतः नालंदा विश्वविद्यालय की तरह शिष्य,गुरु, सरकार और समाज शिक्षा के उद्देश्य के लिए समर्पित हो जाएं तो हमारी कामना सफलीभूत हो सकती है।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹