संवाद


'अच्छी शिक्षा,फिर परीक्षा'


बच्चे तनाव में नहीं आएं,इसलिए 'नो डिटेंशन', अब शिक्षा की गुणवत्ता बरकरार रहे इसलिए 'डिटेंशन'। 'पुनर्मूषिको भव' की कथा जो बचपन में पढ़ी थी, आज उसकी फिर से याद आ गई।


         शिक्षा के अधिकार के तहत 2010 में 'नो डिटेंशन पॉलिसी' लाने के पीछे मुख्य उद्देश्य था कि बच्चों के तनाव को दूर किया जाए और स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति को रोका जाए। किंतु इसका परिणाम यह हुआ कि पांचवी और आठवीं कक्षा के छात्रों को बिना योग्यता बढ़ाए अगली कक्षा में प्रवेश मिल गया।


          अब सरकार ने 'नो डिटेंशन पॉलिसी' को खत्म कर दिया है। अब पांचवी और आठवीं कक्षा के छात्र को आगे की कक्षा में प्रमोट होने के लिए परीक्षा पास करना अनिवार्य होगा। सरल शब्दों में कहें तो शिक्षकों को विद्यार्थियों को अयोग्य पाए जाने पर फेल करने का अधिकार होगा।असर की रिपोर्ट के अनुसार आठवीं क्लास पास किया गया विद्यार्थी चौथी क्लास का गणित हल नहीं कर पाता और दूसरी कक्षा का हिंदी पढ़ नहीं पाता। हम सभी शिक्षक कॉलेज में आए हुए विद्यार्थियों को देख रहे हैं कि वे ठीक से आवेदन पत्र तक नहीं लिख पाते और उनको किसी फार्म का कॉलम भरना नहीं आता। ‌उम्मीद है कि फेल होने के डर से शिक्षा के स्तर में आई गिरावट में सुधार होगा।


               लेकिन शिक्षा के स्तर में आई गिरावट को दूर करने के लिए एक पॉलिसी को लाना या हटाना पर्याप्त नहीं है। शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित होती है योग्य शिक्षकों के समर्पण भाव से और उनको पढ़ने-पढ़ाने के लिए मिलने वाले वातावरण से। फिनलैंड शिक्षा के क्षेत्र में विश्व में प्रथम स्थान पर चल रहा है। वहां पर विद्यार्थियों को 6 घंटे के स्कूल टाइम में से सिर्फ 90 मिनट का थ्योरी का क्लास होता है और बाकी सारे प्रैक्टिकल क्लासेज होते हैं। थ्योरी के क्लास में जो विद्यार्थी पढ़ता है, उसको जीवन में व्यावहारिक रूप से उतारने के लिए सारी सुविधाएं वहां पर प्रैक्टिकल क्लासेज में दी जाती हैं। शिक्षक छात्र का अनुपात ऐसा होता है कि शिक्षक व्यक्तिगत रूप से अपने प्रत्येक विद्यार्थी पर ध्यान दे सके। शिक्षा के क्षेत्र में वहां स्वायत्तता इतनी है कि शिक्षाविद् नए-नए प्रयोग करके विद्यार्थियों की गुणवत्ता को ऊंचाइयां देते रहते हैं। सरकार की भूमिका संसाधन उपलब्ध कराने तक सीमित है। सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 26% शिक्षा पर यहां सरकार खर्च करती है।


             भारत में आज सरकारी स्कूल की गुणवत्ता निम्नतम स्तर पर है और सरकारी शिक्षकों की साख योग्यता के बावजूद दांव पर है। सरकारी स्कूलों से पढ़कर महत्वपूर्ण पदों पर पहुंची हुई हमारी पीढ़ी शिक्षकों पर उठ रहे सवालों को हजम नहीं कर पा रही हैं। हमारे शिक्षक क्लास में नियमित पढ़ाने के बाद भी विद्यार्थियों में व्यक्तिगत रुचि लेते थे। कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी उनकी ऐसी थी कि समाज भी उनकी मिसाल आज तक दिया करता है। ऐसे शिक्षकों में एक थे झम्मन मा साहब। वे बच्चों को फसल के बारे में पढ़ाने के लिए खरीफ,रबी,जायद सारी फसलों की किस्में लेकर आते थे और मिट्टी के बारे में पढ़ाने के लिए काली,लाल,भूरी इत्यादि सारी मिट्टियों को दिखाने के लिए खेतों में ले जाया करते थे। हम लोगों के समय के मास्टर साहब प्रेम से खूब पढ़ाते भी थे और पाठ याद नहीं करने पर खूब मारते भी थे। उनके प्रेम और दंड की व्यवस्था ने जीवन बना दिया।


           शिक्षा में गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए शिक्षक की चेतना पूरी तरह से विद्यार्थी के जीवन और शिक्षण पर केंद्रित होनी चाहिए। किंतु आज शिक्षकों की चेतना में पूरी तरह से बिखराव आ गया है। मिड डे मील जैसी अनेक सरकारी योजनाओं से लेकर सूचनाओं तक के जाल में उनकी चेतना ऐसी फंसी है कि पढ़ने-पढ़ाने का मुख्य काम गौण हो गया है।


              भारतीय ज्ञान परंपरा में शिक्षालय समाज के सहयोग से चलते थे। शिष्य और गुरु के अध्ययन अध्यापन में किसी प्रकार का विघ्न न पहुंचे, इसका पूरा ख्याल रखा जाता था। शिक्षाविदों को इतनी स्वायत्तता थी कि वे देश और काल के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग किया करते थे। राज्य की भूमिका संसाधन उपलब्ध कराने तक सीमित थी। राजा को परामर्श की जरूरत पड़ती थी तो वे गुरु के आश्रम में जाते थे किंतु इसका ध्यान रखते थे कि वहां के अध्ययन-अध्यापन में कोई बाधा न पहुंचे।


         उस समय विद्यार्थी न तो अवसाद में पड़ते थे और न ही आत्महत्या करते थे। क्योंकि 'विद्यार्थियन:कुतो सुखम्, सुखार्थिन: कुतो विद्या' (अर्थात् विद्यार्थी को सुख कहां और सुखार्थी को विद्या कहां)का मूल मनोविज्ञान काम करता था। जमीन पर सोना,दो कपड़े में रहना, भिक्षा मांग कर खाना, गुरु के सोने के बाद सोने जाना और गुरु के उठने के पहले उठना और दिनभर अध्ययनयज्ञ व तप में रमे रहना यह आश्रम की दिनचर्या थी। जीवन की प्रारंभिक अवस्था में जीवन की सारी कठिनाइयों को अंगीकार कर लेने से उन्हें जीवन की कठिनाइयां कभी डिगा नहीं पाती थीं। किसी पाठ की परीक्षा में विद्यार्थी एक बार नहीं,कई बार अनुत्तीर्ण होते थे और जब तक पाठ पढ़ने की योग्यता नहीं प्राप्त कर लेते थे तब तक आश्रम नहीं छोड़ते थे। 'विद्यातुराणाम् न सुखम् न निद्रा' की सोच रखने वाली उस शिक्षा का दर्शन था-


'दरिया की जिंदगी पर हजार सदके जानें


मुझको नहीं गंवारा साहिल की मौत मरना।'


            आज हम अपने बच्चों को सारी सुख-सुविधा में रखना चाहते हैं और शिक्षक को डांटने तक नहीं देते,मारने की तो बात दूर। ऐसे लाड़-प्यार में और सुख-सुविधा में पले हुए बच्चे जीवन की असलियत का सामना करने के लिए बहुत कच्चे रह जाते हैं।


              जीवन की वास्तविकता यह है कि इसमें कांटे बहुत ज्यादा हैं,फूल बहुत कम। कांटों के बीच जो जीवन जीना सीख गया ,उसके जीवन में एक फूल भी इतना आनंद दे देता है कि कहना ही क्या! जिस प्रकार से जौहरी स्वर्ण की परीक्षा कसौटी पर कसकर करता है, उसी प्रकार से भारतीय ज्ञान परंपरा में विद्यार्थी की परीक्षा गुरु त्याग,शील,गुण और कर्म की कसौटी पर कसकर करता था-


'यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निर्घषणच्छेदन तापताडनैः


तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।' 


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹