🙏मृत श्रद्धालुओं को श्रद्धांजलि🙏


संवाद


'अमृत स्नान में मृत्यु की झलक क्यूं'


अमृत स्नान की बेला में 30 श्रद्धालुओं की भगदड़ से हुई मौत ने महाकुंभ की खुशी में मातम की झलक दिखा दी। अमृत स्नान,समुद्र मंथन इत्यादि से संबंधित कथाओं की दरअसल दो दृष्टियां हैं-एक पौराणिक दृष्टि और दूसरी वेदांतिक दृष्टि। पौराणिक दृष्टि जनसाधारण की दृष्टि है जबकि वेदांतिक दृष्टि असाधारण साधक की दृष्टि है।


भीड़ का मनोविज्ञान पुराण के अनुसार चलता है। अतः अमृत स्नान करने से सभी पापों का नाश हो जाता है,पितरों की  मुक्ति हो जाती है और अखंड पुण्य की प्राप्ति हो जाती है ; ऐसा मानकर करोड़ों लोग मौनी अमावस्या के विशेष दिन विशेष स्नान को टूट पड़े। अनियंत्रित अत्यधिक भीड़ के कारण मौनी अमावस्या मौन अमावस्या में तब्दील हो गई।


वेदांत की दृष्टि यह है कि अमृत स्नान कहीं बाहर नहीं बल्कि स्वयं के भीतर ही है। तन  मृत है , मन निरंतर परिवर्तनशील है किंतु सबसे गहरे में स्थित आत्मा अमृत है। मरणधर्मा तन से अमृत आत्मा में स्नान ही असली अमृत स्नान है-मृत्योर्मा अमृतं गमय।कबीर ने कहा कि-


'जिन खोजा तीन पाईया गहरे पानी पैठ


मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।'


अधिकांश लोग स्वयं के भीतर जाने से डरते हैं,अतः संगम पहुंचकर स्नान कर अमृत पाने हेतु दौड़ पड़ते हैं,जिसका परिणाम होता है भगदड़ में मौत।


कथा कहती है कि समुद्र मंथन से अमृतकलश मिला और देव दानव की छीनाझपटी में प्रयाग,हरिद्वार,उज्जैन, नासिक-इन चार जगहों पर अमृत की बूंदे गिरीं। इन चार जगहों पर हर 12 वर्ष पर महाकुंभ का आयोजन होता है।


एकांत साधना में जिन्होंने अमृत पाया वे सभी साधक महाकुंभ के समय जनकल्याण के लिए अमृत स्नान हेतु एकत्रित होते हैं और अपनी गहरी साधनाओं के बारे में परस्पर विचार-विमर्श करते हैं जिससे जगत के कल्याण के लिए कई नए रास्ते उभर कर आते हैं। हिंदू परंपरा में दर्शन शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होते हैं-एक है महान आत्माओं का दर्शन अर्थात् 'देखना' और दूसरा है साधकों के गहरे विचार-विमर्श और परस्पर आदान-प्रदान से उभरा हुआ 'दर्शन' अर्थात् वेदांतिक दृष्टि।


भागवत इत्यादि पुराण जन साधारण के लिए हैं जिससे ज्ञान के साथ मनोरंजन भी होता है किंतु भगवद्गीता भगवान कृष्ण ने अर्जुन जैसे असाधारण जिज्ञासु और साधक के लिए कही। गीता की वेदांतिक दृष्टि से मनोभंजन होता है जिससे आत्मज्ञान उपलब्ध होता है। गीता में कहा गया है-


'नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य, नास्ति अयुक्तस्य भावना'


अर्थात् अयुक्त व्यक्ति की न बुद्धि होती है और न भावना। अयुक्त वह है जो अपने अंदर नहीं झांकता, वह अपनी मुक्ति के लिए कभी गंगा स्नान को जाता है तो कभी अमृत स्नान को। युक्त वह है जो अपने अंदर झांक कर साधना द्वारा अमृत आत्मा में स्नान कर लेता है फिर बाहरी तीर्थ पर अमृत स्नान के लिए जनसाधारण के कल्याण की भावना से संगम पर भी स्नान करने आता है।


अपनी एकांत की साधना से अमृत स्नान कर चुके योगियों की जीवनी पर और विचारविमर्श पर लोगों ने संगम तट से रील नहीं बनाया। लोगों ने रील बनाया मनोरंजन के लिए जिससे महाकुंभ मदारियों का जमावड़ा लगने लगा। कभी कोई मॉडल गर्ल चर्चा में आ जाती है तो कभी मोनालिसा।मनोरंजक रील की जगह योगियों की रियल लाइफ पर बनी मनोभंजक बातें आतीं तो सनातन परंपरा की गहराई और ऊंचाई दोनों से विश्व अभिभूत हो जाता।


जिस प्रकार से अक्षर के देवता गणेश हैं। किंतु जनसाधारण अक्षर की साधना नहीं करता बल्कि गणेश की बड़ी मूर्ति लाकर उनकी पूजा उपासना कर लेता है और अपना मनोरंजन कर लेता है। गणेश मूर्ति की पूजा का भी अपना महत्व है कि जनसाधारण को परंपरा द्वारा अक्षर के देवता गणेश से जोड़े रखा जाए। कभी असाधारण प्रतिभा के धनी तिलक आते हैं और उसी गणेश मंडप से राष्ट्र की अक्षर आराधना की अलख जगा देते हैं।


आज फिर जरूरत है बालगंगाधर तिलक की जो महाकुंभ के असली महात्म्य को समझा सके और लोगों को महाकुंभ में जुटे साधकों की तरफ देखने को प्रेरित कर सके। वे साधक हिमालय की गुफाओं में खुद के भीतर अमृत आत्मा को पाकर कैसे दिव्य और भव्य बन गए हैं। उसी दिव्यता और भव्यता का जीवन जीने का संदेश देने के लिए वे महाकुंभ में जनसाधारण के बीच आए हैं। फिर वे अपनी साधना हेतु एकांत में लौट जाएंगे। लेकिन लौटने के पहले भोग की तरफ दौड़ रही दुनिया को योग का आध्यात्मिक मार्ग बताते हुए वे साधक अल्लामा इकबाल के शब्दों में यही कह रहे हैं-


'अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी


तू अगर मेरा नहीं बनता न बन, अपना तो बन।'


जनसाधारण के लिए प्रचलित मुहावरे में कहें तो 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'...


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹