🙏या कुन्देन्दुतुषारहारधवला🙏


संवाद


'सरस्वती के मंदिर में कैसे पुजारी'


बसंत पंचमी के दिन रविवार को आरएएस प्री. परीक्षा में हम शिक्षकों की ड्यूटी थी। शिक्षा के मंदिर में घटित व्याभिचार और भ्रष्टाचार की दो खबरें सरस्वतीपुत्रों के बीच प्रमुख चर्चा का विषय बनी रहीं। इसमें एक थी-चित्तौड़गढ़ के स्कूल में घटित शिक्षक-शिक्षिका का आपत्तिजनक वीडियो और दूसरी थी -दिल्ली में नैक निरीक्षण समिति द्वारा शिक्षासंस्थान को ए++ग्रेड देने के बदले घूस के आरोप में सीबीआई द्वारा आचार्य और कुलपति सहित अनेक लोगों को गिरफ्तार करना। व्याभिचार की खबर सोशल मीडिया पर जंगल में आग की तरह फैली हुई है और भ्रष्टाचार की खबर आज समाचारपत्र के पहली पृष्ठ पर जगह बनाई है।


नैतिक मूल्यों में आई गिरावट सर्वत्र दिखाई दे रही है।किंतु नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ानेवाले सरस्वती के मंदिर ही जब इसका केंद्र बनने लगे तो लोगों की आस्था के आधार टूट जाते हैं। अर्थ और काम को भारतीय ज्ञान परंपरा ने पुरुषार्थ चतुष्टय में स्थान दिया है किंतु उसे धर्मरुपी आधार और मोक्षरुपी मंजिल के साथ संबद्ध कर दिया है। अर्थात् धर्मानुसार अर्थ और काम का सेवन करते हुए मोक्षरुपी गंतव्य तक जाना है।


शिक्षा संस्थान जब स्वायत्त थे और आचार्य केंद्रित थे तब तक मूल्यों को अपने जीवन से पढ़ाने वाले लोग थे ; जब से शिक्षा संस्थानें स्वायत्त नहीं रहीं और राजनीति केंद्रित हो गई हैं तब से मूल्यों के क्षरण में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई हैं। अपवादस्वरुप बुरे लोगों का शिक्षा संस्थान में मिलना ही चिंता की बहुत बड़ी बात हो जाती है। जब अपवाद सामान्य स्वरुप लेने लगे तो यह मानवीय और राष्ट्रीय चरित्र के लिए खतरे की घंटी है।


'जो भींग चुका हो वो भला किस बात से डरता


जो घर में खड़ा था उसे बरसात का डर था।


जिंसो का तो बाजार में बिकना था जरूरी


बाजार में बिकते हुए जज्बात का डर था।।'


कुछ विभाग बहुत बदनाम हैं ,उनमें अच्छे आदमी खोजना मुश्किल है किंतु शिक्षा विभाग आज भी बदनाम नहीं है क्योंकि वहां अच्छे आदमी अच्छी संख्या में आज भी मौजूद हैं। लेकिन अब शिक्षा संस्थान जिस प्रकार से सुर्खियों में आ रहे हैं, उसे देखकर लोग यही कह रहे हैं कि 'बद अच्छा,बदनाम बुरा'


बसंत पंचमी के अवसर पर संगम के तट पर अमृत स्नान कल होगा। संगम पर गंगा और यमुना की धारा तो स्पष्ट दिखाई दे रही है किंतु सरस्वती अदृश्य है। उसका निहितार्थ बहुत गहरा है। तन तो स्पष्ट दिखाई देता है और मन का भी अनुभव होता है, इसी तरह गंगा और यमुना है। किंतु आत्मा न दिखाई देती है और न आसानी से अनुभव में आती है, वह सरस्वती की तरह अदृश्य है। लेकिन आत्मा सबसे महत्वपूर्ण है।


'यहां गंगा यहां जमना यही संगम मगर फिर भी


बहुत पीछे इलाहाबाद क्यूं है सोचना होगा


वो ज्ञानी है मगर नाशाद क्यूं है सोचना होगा


वफा की राह में बरबाद क्यूं है सोचना होगा।'


असली सरस्वती पूजा तो यही है कि सरस्वतीपुत्रों (शिष्य और गुरु) के साथ समाज और सरकार भी यह सोचे कि-


या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता


या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।


जो विद्या की देवी सरस्वती कुंदपुष्प, चंद्र और बर्फ के हार के समान श्वेत है और श्वेत वस्त्रों से सुशोभित हो रही है , उनके सरस्वतीपुत्रों का दामन सफेद की जगह स्याह क्यों बनता जा रहा है? श्वेत (white) रंग और स्याह (black) रंग में अंतर यही है कि श्वेत रंग सभी नकारात्मकता को लौटा देता है जबकि स्याह रंग सोख लेता है‌। हंसवाहिनी के पुत्रों को तो जल में कमल के समान होना चाहिए किंतु वे तो कीचड़ में धंसते जा रहे हैं। सरस्वती पूजा के उपलक्ष में मेरे मन में तो यही प्रश्न बार-बार उठ रहा है कि


'जो बांटता फिरता था दुनिया को उजाले


उसके दामन में आज अंधेरे ही अंधेरे क्यूं है?'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे


बसंत पंचमी की शुभकामना🙏🌹