🙏फर्श से अर्श पर पहुंचाने वाली एक मां की याद में🙏
संवाद
'ध्रुव तारे सी मां'
वायरल फीवर की चपेट में आने से सुबह जल्दी उठने वाले शख्स का भी बिस्तर जल्दी नहीं छूटता। बिस्तर से उठकर 8:00 बजे ज्यों ही व्हाट्सएप देखा तो एक दुखद समाचार पढ़ने को मिला। मेरे फ्रेंड फिलॉस्फर गाइड श्री ध्रुव कांत ठाकुर,डीजी मेरठ का मैसेज था कि कल शाम 6:30 बजे उनकी माताजी ने अंतिम सांस ली।
इस नश्वर संसार में कोई भी अमर नहीं है। किंतु मरणधर्मा शरीर के जाते ही उस अमृत आत्मा की सारी झलक एक साथ आंखों के सामने आ जाती है। मुझे याद आ रहा है कि 1993 में UPSC में सिलेक्शन होने पर ध्रुव भैया मेरे को अपने गांव ले गए। माताजी ने बड़े प्यार से गले लगाया, वे उस समय मौन में थीं,अतः माथे पर हाथ फेर कर खूब प्यार लुटाया। उनके वर्षों की तपस्या बेटे की सफलता के साथ साकार हुई थी। झोपड़ी वाले उस छोटे गांव में उनकी सफलता और उनके आने की खबर जंगल की आग की तरह फैल गई।
परिजनों और गांव वालों से बातचीत में मुझे पता चला कि ध्रुव भैया तीन बहनों के बाद पैदा हुए थे और जब माध्यमिक स्कूल में पहुंचे ही थे कि पिताजी चल बसे। अभाव में पिता का साया सर से उठना इतनी बड़ी विपत्ति थी कि कोई भी टूट जाए। इतने बड़े दुख ने माताजी को मौन कर दिया।
गांव में एक लोकोक्ति प्रचलित थी -'तेंतर बेटा राज रजावे'अर्थात् 3 बहनों के बाद जो बेटा पैदा होता है,वह बहुत भाग्यशाली होता है। इस लोकोक्ति ने माताजी के हृदय को कुछ संबल अवश्य दिया होगा , तभी तो वे बेटे की पढ़ाई के लिए व्रत,उपवास इत्यादि करने लगीं और जी जान लगाने लगीं। प्रतिभा के धनी ध्रुव भैया कम उम्र में क्लास दर क्लास आगे बढ़ते गए और उस क्षेत्र में उपलब्ध संस्कृत शिक्षा संस्थान से आचार्य की डिग्री प्राप्त कर ली।
फिर वे पटना विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. करने के लिए पटना आ गए। यहां पर विश्वविद्यालय में टॉप करने की खुशी में वे मिठाई बांटने संस्कृत विभाग में आए थे। मैं एम.ए. की क्लास में था, अचानक बाहर आया और मेरी उनसे पहली मुलाकात हुई। खुशी की मिठाई तो उन्होंने मुझे दिया ही, साथ ही मिलने का निमंत्रण भी दिया।
उस समय मेरा जीवन संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहा था। जिंदगी भर क्रिकेट की साधना करने के बाद 3 साल का क्रिकेट खेलने पर प्रतिबंध लग चुका था और पढ़ाई में कोई विशेष गति नहीं मिल रही थी। ध्रुव भैया मेरे निवास स्थान से 6 किलोमीटर दूर मोहल्ले में रहते थे,जहां मैं उनसे मार्गदर्शन के लिए जाया करता था। वहां एक सस्ते कमरे में तीन और साथी रहते थे, वहां पहुंचकर एक गुरुकुल का एहसास मुझे होता था।
इन सब की जिंदगी से प्रभावित होकर मैंने इन सबके लिए अपने मोहल्ले में अपने घर के बगल में रुम ढूंढा जिसे हम लोग 'मठ' कहा करते थे। मठ का स्थान अगल-बगल संकीर्ण और गंदगी के गरीब लोगों से घिरा था; फिर भी छोटे कमरे में दिन रात मंत्रोच्चारण और अध्ययन-अध्यापन के कारण मेरे लिए वह स्थान मंदिर से कम नहीं था।
गरीब घर से आए हुए विद्यार्थी ध्रुव भैया और अरुण भैया के मार्गदर्शन में अपनी साधना आगे बढ़ाते। किराए के घर में पास में ही मैं परिवार के साथ रहता था। मेरे यहां जब कोई रिश्तेदार या गांव से परिवार आ जाता तो मैं मठ पर पढ़ने पहुंच जाता। मठ के लोग मंगलवार और शनिवार को उपवास करते और हनुमान चालीसा का पाठ करते। मुझे आश्चर्य होता कि इतने दुबले पतले शरीर वाले सभी लोग उपवास करके अपनी काया को क्यों कष्ट दे रहे हैं? बाद में मुझे पता चला कि उनके घर से पैसे बहुत कम आते हैं जिसमें पटना जैसे जगह में रहकर पढ़ना चुनौतीपूर्ण है। उपवास करके वे खाने का पैसा बचाकर किताब खरीदा करते थे।क्योंकि जगत प्रसिद्ध शंकराचार्य जिन मंडन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ करने दक्षिण से उत्तर भारत पधारे थे, उन मंडन मिश्र के इलाके के ये विद्यार्थी बचपन से एक नारा सुनते आए थे-"दो रोटी कम खाएंगे, किताब नई लाएंगे।"
निश्चितरुपेण इतना सादगीपूर्ण और संस्कारित जीवन में मां की भूमिका महत्वपूर्ण रही होगी।मुझे भी याद आता है कि मेरी मां हर समय पढ़ने के लिए कहती और जब कभी कोई दोस्त खेलने के लिए बुलाने हेतु दरवाजे पर आवाज लगाता तो कह देती कि वह घर में नहीं है। मैं कहता कि झूठ बोलने पर पाप लगेगा तो मां कहती कि पाप का फल मैं भुगत लूंगी किंतु तू पढ़ ले। जब ध्रुव भैया जैसे पढ़ने वाले लोग आते तो मां उनका बहुत स्वागत करती।
अंबेडकर नगर(UP) में जब SP के रूप में ध्रुव भैया पोस्टेड थे तब उनसे मिलने मैं गया था। उनकी मां का वही सरल स्वभाव और वही पुजारिन सा जीवन जारी था। बड़ी देर तक उनसे बात हुई तो जीवन की दो गहरी बातें मुझे सीखने को मिली। पहली बात उन्होंने कही कि स्थान और समय बदलने से मूल स्वभाव नहीं बदलता और दूसरी बात उन्होंने बताया कि पद और पैसा से ज्यादा महत्वपूर्ण है प्रेम और शांति।
मां के प्यार की गहराई को समझ पाना और उनके त्याग की ऊंचाई को देख पाना आसान नहीं है। बेटा जब बड़ी उपलब्धि हासिल करता है तो उसकी प्रतिभा और मेहनत का जितना योगदान होता है उससे भी ज्यादा योगदान उस मां का होता है जो दिन रात अपने बेटे के लिए परमात्मा से आशीर्वाद मांगती रहती है-
'धूप में भी जो छांव सा पहर दिखता है
मां की दुआओं का वो असर दिखता है।'
पिताजी के असामयिक अवसान के बाद मां ने अपनी दोहरी भूमिका किस प्रकार से निभाई और बेटे को फर्श से अर्श की ऊंचाई पर पहुंचने की राह किस प्रकार से दिखाई,इसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। किंतु मुझे लगता है कि आज बेटे के हृदय में कुछ इस प्रकार के भाव और शब्द उभर रहे होंगे-
'फिर कभी देखा नहीं मां के गले में हार को
फीस के दिन बिक गई जो वह निशानी याद है
वक्त से पहले ढली जो वह जवानी याद है
मुझको अपने जिंदगी की हर कहानी याद है।'
आज अपने फ्रेंड-फिलॉस्फर-गाइड की मां के देहावसान पर अश्रुपूरित श्रद्धांजलि व्यक्त करता हूं। परमात्मा दिवंगत आत्मा को मुक्ति प्रदान करे और परिजनों को वियोग सहने की शक्ति। ऊं शांति:शांति: शांति:🙏🙏🙏
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹