संवाद


'प्रेम के पुजारी'


विज्ञान ने विश्व को एक गांव बना दिया- 'ग्लोबल विलेज'. धर्म इस गांव को प्रेमपूर्ण बना सकता है- A village full of love. किंतु हिंदू,मुस्लिम,सिख,ईसाई वाला धर्म नहीं, "प्रेम वाला धर्म"


प्रेम के मसीहा वैलेंटाइन का भारत में संस्कृति-रक्षक विरोध करते हैं क्योंकि संस्कृति-रक्षकों की नजरों में 'वैलेंटाइन डे' के नाम पर प्रेम नहीं,काम का प्रचार-प्रसार किया जाता है,जिसका परिणाम बढ़ते हुए 'लिव इन रिलेशन' के रूप में हमारे सामने आ रहा है। दूसरी तरफ विदेश में भारत के संत प्रभुपाद द्वारा शुरू किया गया 'इस्कॉन आंदोलन'(ISKCON-INTERNATIONAL SOCIETY FOR KRISHNA CONSCIOUSNESS) बढ़ता जा रहा है। 'हरे राम हरे कृष्ण' गाते हुए हजारों युवक और युवतियां सड़कों पर नाच रहे हैं और जीवन में प्रेम का फूल खिलाकर जगत में प्रेम की सुगंध फैला रहे हैं।


यह सोचने की बात है कि राधा कृष्ण का यह देश, मीरा के भजनों पर मंत्रमुग्ध होने वाला यह देश क्या प्रेम का विरोधी हो सकता है?


भारतीय संस्कृति तो प्रेम की विरोधी हो ही नहीं सकती, वह तो 'काम' का भी विरोध नहीं करती बल्कि 'कामदेव' के रूप में उसे भी दिव्य मानती है। तभी तो काम को पुरुषार्थ चतुष्टय के अंतर्गत रखा गया है-धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष।


यह बात समझने की है कि काम प्रकृति है,प्रेम संस्कृति और अश्लीलता विकृति। प्रत्येक जीव में कामभावना है अन्यथा सृष्टि आगे नहीं बढ़ सकती। अतः भारतीय संस्कृति का सबसे प्राचीनतम सांख्य दर्शन प्रकृति और पुरुष के संजोग से सृष्टि के आरंभ की दृष्टि देता है।


कामरुपी प्रकृति के दमन या विरोध के कारण आज विकृति फैल रही है। अश्लील साइट्स और सार्वजनिक जीवन की वाणी में भी बढ़ रही अश्लीलता ने जीवन और जगत को विकृत कर दिया है। 'India got latent' के आयोजकों के भारी जनविरोध ने एक अवसर दिया है कि हम मूल कारण को पहचानें और समझें।


जन्म,मृत्यु और प्रेम-ये तीन घटनाएं जीवन में सबसे ज्यादा बहुमूल्य हैं। जन्म है शुरुआत, मृत्यु है अंत और प्रेम है मध्य। दूसरे शब्दों में कहें तो जन्म और मृत्यु के बीच जो डोलती लहर है-वह है प्रेम। इसलिए प्रेम अद्भुत है,जिसका एक हाथ जन्म को छूता है तो दूसरा हाथ मृत्यु को। इसलिए एक तरफ प्रेम में जितना ज्यादा आकर्षण है उतना ही ज्यादा दूसरी तरफ भय भी है। प्रेम में आकर्षण है जन्म का। प्रेम के आकर्षण में बंधकर कामरुपी प्रकृति द्वारा जीव का जन्म संभव होता है। किंतु जन्म के साथ ही मृत्युरुपी मंजिल की ओर बढ़ने का सिलसिला शुरु हो जाता है‌ क्योंकि प्रेम का दूसरा छोर मृत्यु को छूता है।


मृत्यु का अर्थ यहां है- अपने को मिटाना, अपने अहंकार को मिटाना, अपने से ज्यादा अपने प्रेमी या प्रेयसी को महत्व देना।इसीलिए कबीर ने कहा कि- 'प्रेम गली अति सांकरी तामें दोउ न समाय।' आज की सबसे बड़ी समस्या यही है कि दोनों अपने आप को बचाना भी चाहते हैं और प्रेम को आगे बढ़ाना भी चाहते हैं।प्रेम से कोई भी बच नहीं पाता किंतु प्रेम में कोई मिटना भी नहीं चाहता। क्योंकि प्रेम की शर्त इतनी बड़ी है कि विरला ही पूर्ण कर पाता है-'राजा प्रजा जेहि रुचे सीस देइ ले जाए‌।' इस शर्त को पूर्ण नहीं करने से प्रेम की जगह राजनीति शुरू हो जाती है और प्रेम विकृत होना शुरु हो जाता है।


दरअसल काम है-दो शरीर का मिलन और प्रेम है- दो आत्मा का मिलन। जन्म के लिए दो शरीर का मिलन जरुरी है किंतु प्रेम की पूर्णता के लिए दो आत्मा का मिलन अनिवार्य है। सिर्फ शरीर का मिलन होगा तो प्रेम कामसंबंध बनकर रह जाएगा, दो आत्मा का मिलन होगा तो प्रेम प्रकृति से पार होकर परमात्मा बन जाता है। इस दशा में किसी कवि गुलजार के हृदय से यह भाव निकलता है-


प्यार को प्यार ही रहने दो,इसे कोई नाम न दो


सिर्फ अहसास है यह रूह से महसूस करो


हाथ से छूकर इसे किसी रिश्ते का इल्जाम न दो....


वैलेंटाइन डे या इस्कॉन आंदोलन में उसी प्रेम की गुहार है। बस जरूरत है प्रकृति से ऊपर उठने की, जहां प्रेम परमात्मा हो जाता है। किंतु हम ऐसे अभागे हैं जहां प्रेम बाजार की वस्तु बना दिया गया है।प्रकृति से ऊपर उठकर संस्कृति तो हम विकसित नहीं कर पाए इसके विपरीत विकृति के शिकार हो गए-


'बहुत मुश्किल से बचाई थी जो एहसास की दुनिया


इस दौर के रिश्ते उसे बाज़ार न कर दे


यह सोचकर नजरें वो मिलाता ही नहीं है


आंखें कहीं जज्बात का इज़हार न कर दे।'


कुछ लोग प्रेम से भाग जाते हैं और कुछ लोग प्रेम में गिर जाते हैं। पलायन करने वाले और हैवान बनने वाले से इतर कुछ लोग प्रेम में भगवान भी बन जाते हैं। संत वैलेंटाइन की चेतना हो या कृष्ण की चेतना, वह प्रेम से पूर्ण चेतना है। हमारा लक्ष्य उस प्रेम की ऊंचाई तक अपनी चेतना को पहुंचाने का होना चाहिए , जहां पहुंचकर ईशा कह सके-प्रेम ही परमात्मा है (Love is God).


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹