संवाद
'अक्षर वही है:गीत हो या गाली'
'India got latent' के रणवीर इलाहाबादिया के विरुद्ध सुप्रीम टिप्पणी से असंस्कृत और संस्कृत शब्दों के प्रति एक सामाजिक बहस छिड़ गई है। भारतीय संस्कृति शब्द को ब्रह्म मानती है-'शब्द: ब्रह्म' अर्थात् एक शब्द संसार रूपी समुद्र में कंकर की तरह डालो तो वह एक लहर पैदा करती है, पहली लहर दूसरी लहर पैदा करती है और अनंत लहरें पैदा होकर समुद्र को घेर लेती हैं।
ठहरे हुए पानी में कंकर ना मार साँवरी
मन में हलचल सी मच जाएगी बावरी...... गाने में इसी भाव को व्यक्त किया गया है।
यदि शब्द सुसंस्कृत हो तो जगत का कल्याण हो जाता है। संस्कृत को इसीलिए देववाणी कहा जाता है क्योंकि दिव्य लोगों ने ऐसे गीत गाए जिससे चारों तरफ मंगल ही मंगल हो गया। उन्हीं गीतों में गायत्री मंत्र हैं-
ॐ भूर्भुवः स्व:तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
ऐसे अनेक गीत वैदिक ऋषियों ने प्रकृति की दिव्य शक्तियों पृथ्वी,आकाश,वायु,जल,अग्नि इत्यादि के बारे में गाए और उनसे पारिवारिक तथा आत्मिक संबंध स्थापित किए। विज्ञान भी यह मानता है कि जिस जगह पर ऐसे गीत या शब्द या मंत्र का उच्चारण होता है वहां सकारात्मक वातावरण बन जाता है।
गीत हो या गाली दोनों में वर्ण एक ही प्रयोग होते हैं किंतु गीत का प्रयोग व्यक्ति को आकाश की ऊंचाइयां दे देता है और गाली का प्रयोग पाताल की नीचाइयों में उतार देता है। वैदिक गीत उनसे निकले जो ध्यान की गहराइयों में उतरकर अपनी आत्मा को परमात्मा से जोड़ लिए। फिर उनके शब्द सत्यम् शिवम् सुंदरम् की कसौटी पर खरे उतरते गए।
किंतु जिन लोगों की आत्मा परमात्मा से जुड़ नहीं पाई उन लोगों के मुख से निकले हुए शब्द ब्रह्म तो नहीं बन पाए ,भ्रम बन गए। एक मायानगरी तैयार हो गई जो अश्लील श्रव्य और दृश्य को फैलाकर सस्ती लोकप्रियता हासिल कर लेती है और धन भी खूब कमा लेती है। लेकिन लोकमंगल की जगह अमंगल का लोक तैयार कर देती है जिसमें गिरकर हमारी पीढ़ी बर्बाद होने के कगार पर है।
आखिर उपाय क्या है? हमारी पीढ़ी घर परिवार में बड़े-वृद्धों के साथ रहती थी और पढ़ाई के नाम पर शिक्षक के साथ किताब और पुस्तकालय का साथ था। जीवन मंत्र देने वाले व्यक्ति के साथ संबंध ज्यादा था, मोबाइल इत्यादि यंत्र तो उस समय था ही नहीं।
जेन-जी वाली आज की पीढ़ी की पढ़ाई ऑनलाइन है;मोबाइल और लैपटॉप साथ है,साथ ही सोशल मीडिया का खुला संसार है। एक क्लिक पर गीत भी उपलब्ध है और गाली भी। मन को ऊंचाइयों पर ले जाने वाला व्यक्ति या वातावरण नहीं है तो मन पानी की तरह ढलान पर उतरने को तैयार है। गाली के शब्द या दृश्य उनकी आंखों के सामने स्क्रीन पर आ जाते हैं और कोमल मन को इतना चंचल बना देते हैं कि वह विक्षिप्तावस्था में पहुंच जाता है। फिर पढ़ाई और परीक्षा का तनाव और अधिक अवसाद में ले जाती है और आत्महत्या तक पहुंचा देती है।
रील वाली पीढ़ी रियल लाइफ से दूर जा रही है। उसके मन का भटकाव इतना बढ़ जाता है कि वह नशे की आदी हो जाती है,डिजिटल नशा तो और भी खतरनाक है।
जिस समाज में 'चोली के पीछे क्या है?....जैसा गाना लोकप्रिय हो जाता है और करोड़ों अरबों की कमाई कर जाता है, वही समाज एक अश्लील कमेंट पर इतना आक्रामक हो गया है कि जान से मारने की धमकी सिर्फ कुसूरवार को ही नहीं बल्कि उसके पूरे परिवार को मिल रही है। एक अति से दूसरी अति पर जाना और भी खतरनाक है।
समाधान तो यह है कि गीत और गाली ; सुर और असुर का संघर्ष आज का नहीं है, बल्कि सनातन काल से चला आ रहा है। लेकिन गीत के लिए साधना करनी पड़ती है, ध्यान लगाना पड़ता है और परमात्मा की आराधना में उतरना पड़ता है। गीत एक गुलाब के फूल की तरह है जिसे लगाने और बड़ा करने में समय,श्रम और साधना लगता है।
गाली तो खरपतवार की तरह है, यूं ही निकल पड़ती है और फैल जाती है। पूरे वातावरण को दुर्गंध से भर देती है। उस दुर्गंध में सांस लेना मुश्किल हो जाता है, घुटन महसूस होने लगती है। उसी घुटन को आज सुप्रीम कोर्ट के साथ समाज भी महसूस कर रहा है। सरकार भी आवाज उठाने लगी है। लेकिन एक गुलाब का फूल खिलाने के लिए जो शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए, उसकी ओर ध्यान किसी का नहीं जा रहा है और उसकी मांग कहीं से नहीं उठ रही है।
सरकारी शिक्षा की दुर्दशा सबके सामने है जिसके कारण सोशल मीडिया शिक्षा और शिक्षक की भूमिका में आ गया है। अब ऐसे में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि
'खिलौने के बदले में बारूद दी
बच्चों में अब गुलफिशानी कहां?
जलाकर शमा पूछते हो आप
पतंगों की अब जिंदगानी कहां??'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹