संवाद
'पूर्णता की तलाश में मरता मानव'
'महिला आयोग' की तर्ज पर 'पुरुष आयोग' बनाने की मांग प्रखर होती जा रही है। पुरुष-प्रधान-समाज में अबला स्त्री को सशक्त बनाने का अभियान इस मुकाम पर पहुंचा है कि कई पतियों ने स्त्री के पक्ष में बने कानून से परेशान होकर अपनी जान दे दी। 'The law needs to protect man... मानव की यह आवाज बढ़ती जा रही है।असली सवाल आयोग और कानून का नहीं है, असली सवाल तो है मन को समझने का।
मानव ऐसा जीव है जो न किसी के साथ रह सकता है और न अकेले रह सकता है। किसी के साथ रहने के लिए अहंकार छोड़ना पड़ता है और अकेले रहने के लिए आत्मा जगानी पड़ती है।
मानव का मतलब है-बेचैनी। वह एक तरफ पशुता को लिए हुए है तो दूसरी तरफ परमात्मा की संभावना भी लिए हुए है।
पशु का अर्थ है पाश से बंधा हुआ। पशु अपने तन से इतना बंधा रहता है कि उसके लिए 'तानव' शब्द प्रयुक्त करना उचित होगा। आहार,निद्रा,भय,मैथुन के आगे वह सोच नहीं पाता।
मानव के मन के पास आहार,निद्रा,भय,मैथुन के पार जाने की शक्ति है।उस शक्ति का नाम धर्म है। मन ज्यों ही इनका अतिक्रमण कर जाता है, वह आत्मवान हो जाता है।
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्
धर्मो हि तेषामधिकोविशेषो धर्मेणहीनाः पशुभिः समानाः॥
तन,मन,आत्मन ये जीव के व्यक्तित्व की तीन अभिव्यक्तियां हैं। जो तन पर टिका हुआ है ,वह पशु है। वह भी निश्चिंत है और जो आत्मा पर पहुंचा हुआ व्यक्तित्व है,वह भी निश्चिंत है। पशुओं में जो सरलता और शांति दिखाई देती हैं, वही सरलता और शांति संतों में भी दिखाई देती हैं। बस इतना अंतर है कि पशुओं की सरलता और शांति सुषुप्तावस्था की है जबकि संतों की सरलता और शांति जाग्रत-अवस्था की है।
मानव इन दोनों के बीच में है। मानव को छोड़कर सभी पशु पूरे के पूरे पैदा होते हैं। मानव अधूरा है,उस अधूरे में बेचैनी है।
पूरे होने के दो रास्ते हैं या तो आदमी वापस नीचे गिरकर पशु हो जाए या ऊपर उठकर परमात्मा हो जाए।जब काम,क्रोध,लोभ,मोह के आंतरिक नशा के साथ व्यक्ति शराब आदि बाहरी नशा में डूब जाता है तो वह पशु की तरह निश्चिंत हो जाता है। लेकिन मानव की एक संभावना संत की भी है।वह आंतरिक और बाहरी दोनों नशा के पार पहुंचकर प्रेम,प्रार्थना,ध्यान और आत्मानंद में डूबता है तो वह अपने आप को परमात्मा के करीब पाता है।
पशु शांत है क्योंकि उसको विकास का ख्याल नहीं है और संत भी शांत है क्योंकि उसका विकास पूर्ण हो गया है। सिर्फ मानव अशांत है।
मानव की अशांति या बेचैनी अभिशाप भी बन सकती है और वरदान भी। बेचैनी नकारात्मक दिशा में ले जाए तो अभिशाप बन जाती है और सकारात्मक दिशा में ले जाए तो वरदान।
मानव शर्मा के पास अच्छी शिक्षा थी,अच्छी नौकरी थी और अच्छा परिवार था। पत्नी निकिता में भी बहुत कुछ अच्छा था, एक विवाह पूर्व संबंध को छोड़कर जो मानव के लिए नागवार था। मानव स्वयं पूर्ण तो नहीं होता किंतु दूसरों से पूर्णता की कितनी चाह करता है। जबकि कवि शिवमंगल सिंह सुमन कहते हैं कि
'जीवन अपूर्ण लिए हुए पाता कभी,खोता कभी
आशा निराशा से घिरा हंसता कभी,रोता कभी।
गति-मति न हो अवरुद्ध,इसका ध्यान आठों याम है
चलना हमारा काम है,चलना हमारा काम है।।'
इसीलिए महात्मा बुद्ध प्राय: नवदंपति को आशीर्वाद देने पहुंच जाते थे। उनका संदेश यह था कि जब तुमको लगे कि संसार जीने के लायक नहीं है तो आत्महत्या मत करना बल्कि आत्मरूपांतरण करना। संसार छोड़कर संन्यासी बन जाना।
क्योंकि आत्मा की तो कभी हत्या हो ही नहीं सकती, हत्या तो होती है देह की। फिर यह हत्या वाला मन दूसरे देह में जन्म ले लेता है और फिर आत्महत्या का विचार आने पर वहीं पूर्व जन्मवाला कृत्य कर जाता है। मानव शर्मा के बारे में भी बार-बार आत्महत्या के प्रयास की बात आई है।
मैंने भी अपना जीवन जीया और परिजनों का भी जीवन देखा। मेरे अनुभव में अभाव,कष्ट और प्रतिकूलताओं के बावजूद जीवन समाप्त कर देने का विचार नहीं दिखाई देता था। क्योंकि जीवन परमात्मा का प्रसाद है और जैसा भी है,उसी का है। जिस जीवन को हम दे नहीं सकते, उसे लेने का ख्याल कहां से उठता है? जरूर अहंकार अपने आप को परमात्मा से भी ऊपर मानने लगा।
आज की बुद्धिप्रधान शिक्षा ने सिर्फ अहंकार को जन्म दिया है। इसी कारण इस शिक्षा जगत में अवसाद और आत्महत्या हद से ज्यादा बढ़ गए हैं। जरूरत है उस हृदयप्रधान शिक्षा की जो आत्मा को जन्म दे सके। आत्मवान महापुरुषों का जीवन पढ़ता हूं तो ऐसा लगता है कि वे जीवन की प्रतिकूलताओं को अपनी अग्निपरीक्षा के रूप में लेते थे जिससे गुजरकर जीवन कंचन के समान और निखर जाता था। पांडवों का 13 वर्ष का और राम का 14 वर्ष का वनवास उन्हें तोड़ने के बजाय और ऊंचाइयां दे गई। वनवासवाली हमारी संस्कृति
में आखिर यह विकृति कहां से आई कि मानव इतनी जल्दी टूट जाता है-
'इस विशद विश्वप्रवाह में किसको नहीं बहना पड़ा
सुख-दुख हमारी ही तरह किसको नहीं सहना पड़ा।
फिर व्यर्थ क्यूं कहता फिरूं,मुझपर विधाता वाम है
चलना हमारा काम है , चलना हमारा काम है।।'
इस अपूर्ण जीवन में पूर्णता की तलाश;और वह भी दूसरे व्यक्ति में मानव मन की सबसे बड़ी भूल है-
'मैं पूर्णता की खोज में दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ रोड़ा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे? जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है, चलना हमारा काम है।।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹