संवाद


'समाज और शिक्षालय का दान प्रतिदान'


शैक्षिक दृष्टिकोण से सबसे पिछड़े जनजातीय इलाके में माधु ने जिंदगी भर की कमाई (18 लाख रुपए) स्कूल को दान में दे दी। पांचवी तक पढ़े इस व्यक्ति से शिक्षा की अहमियत जानना जरूरी है। राजस्थान के डूंगरपुर जिले के इस 62 वर्षीय व्यक्ति ने खेती करके और दूध बेचकर जो कुछ धन अर्जित किया, उसे अगली पीढ़ी के भविष्य निर्माण हेतु समर्पित कर दिया। धन ही नहीं अपना समय भी वे स्कूल के बच्चों को वागड़ी भाषा में कहानियां सुनाने और गिनती सिखाने में नियमित रूप से देते हैं।


                 माधु रेबाड़ी की सोच बहुत महत्वपूर्ण है,जिसके कारण प्राचीन काल में गुरुकुल व्यवस्था चला करती थी। समाज के संरक्षण के कारण ही गुरुकुल स्वायत्त भी होते थे और शिक्षा को समर्पित भी।राजकीय हस्तक्षेप नहीं के बराबर होता था और अध्ययन-अध्यापन के अतिरिक्त अन्य किसी गैरशैक्षिक कार्य में समय और श्रम नहीं जाया होता था। क्योंकि उस समय का समाज राजा से भी ज्यादा गुरु को महत्त्व देता था। राज्य से तो सिर्फ सुरक्षा मिलती थी किंतु गुरुकुल से ज्ञान,विज्ञान और मार्गदर्शन सदैव समाज को प्राप्त होता रहता था। उस समय समाज की सोच यह थी कि अन्न और धन से तो क्षणिक-तृप्ति होती है जबकि विद्या से स्थायी-तृप्ति-


'अन्नदानं महादानं विद्यादानं महत्तरम


अन्नेन क्षणिका तृप्ति:यावज्जीवं तु विद्यया।'


              माधु को यह भी देखना चाहिए कि जिस स्कूल को वे जीवन भर की कमाई दे देते हैं,वह स्कूल उनके समाज के बच्चों को कैसा जीवन दे रहा है। जीवन निर्माण करने वाले शिक्षक का समय और श्रम कहां जा रहा है?


                    समाज और शिक्षक का संबंध जब से शिथिल हुआ है तब से सरकारी शिक्षा का स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है और गरीब प्रतिभाएं अंधेरे में भटकती जा रही हैं। आजकल जो पीढ़ी स्कूल से निकल रही हैं, उनमें ज्ञान की प्यास नहीं दिखाई देती। इसका मूल कारण यह है कि स्कूल में प्यास को जगाने का जो प्रयास शिक्षक द्वारा शिक्षा के निजीकरण से पहले के जमाने में किया जाता था,वह अब नहीं किया जा रहा है।


                एक तरफ सरकारी शिक्षा से जुड़े हुए विद्यार्थियों के अभिभावक अपने बच्चे और शिक्षालय दोनों के प्रति पूर्णतया उदासीन है और दूसरी तरफ गैर शैक्षिक कार्यों में शिक्षकों को लगानेवाले आदेश शिक्षा की अहमियत ही नहीं समझते। जबकि उसी समाज में कोई प्राइवेट स्कूल चलता है तो पैरेंट्स मीटिंग और प्रगति का मूल्यांकन नियमित होने लगता है।


          जिस देश के सरकारी शिक्षालयों से बिना योग्यता वाली पीढ़ी बाहर निकल रही हो, वह पीढ़ी किस प्रकार के विकसित भारत का निर्माण करेगी; यह हम सबके लिए चिंता एवं चिंतन का विषय होना चाहिए।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹