🙏विकसित भारत युवा संसद की वागड़ में आयोजित भाषण-प्रतियोगिता का विश्लेषण🙏
संवाद
'वैचारिक दरिद्रता कैसे दूर हो'
शैक्षिक दृष्टिकोण से पिछड़े माने जाने वाले वागड़ क्षेत्र में "विकसित भारत युवा संसद" के अंतर्गत 'वन नेशन,वन इलेक्शन' विषय पर भाषण प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। निर्णायक के रूप में प्रतिभागियों की संख्या और अभिव्यक्ति का स्तर देखकर मैं काफी चिंता में पड़ गया। आयोजन को सफल बनाने के लिए शिक्षकों ने हर माध्यम से इसका प्रचार-प्रसार किया किंतु परिणाम आशानुरुप न रहा।
नोडल अधिकारी के मुख से समापनसत्र में निकला कि लाखों की संख्या में डांस और डायलॉग का वीडियो सोशल मीडिया पर डालने वाली युवा पीढ़ी वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए मंच पर आने से डरती हैं और आ जाने पर विश्वासपूर्ण-वाणी उनके मुख से नहीं निकलती। प्रतिभासंपन्न विद्यार्थी भी विश्वास की कमी के कारण भाषण-प्रतियोगिता में पत्र वाचन कर रहे हैं।सरकार द्वारा स्किल डेवलपमेंट के लिए कितना पैसा और परिश्रम लगाया जा रहा है किंतु अपने में किसी स्किल को विकसित करने की प्यास यहां की युवा पीढ़ी में न जाने कहां गायब हो गई?
एकलव्य के पास प्यास थी सीखने की तो गुरु द्रोण के द्वारा मना करने पर गुरु की मूर्ति से ही सीख लिया। उस एकलव्य की धरती पर आज के विद्यार्थी गुरु के बुलाने पर भी पास आने की उत्सुकता नहीं दिखाते। आयोजक संस्था से एक भी विद्यार्थी ने भाषण प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया जबकि हर प्रकार की सहायता के लिए शिक्षक तैयार थे। करोड़ों की स्कालरशिप एक एक शैक्षिक संस्था में यहां सरकार द्वारा शिक्षा के विकास के लिए बांटी जा रही है। स्कॉलरशिप का पैसा पाने के लिए विद्यार्थी जितना दौड़ धूप लगा रहे हैं, उसका अंशमात्र भी शिक्षा पाने के लिए नहीं लगा रहे हैं।
स्कॉलरशिप पुस्तक खरीदने के लिए और पढ़ने के लिए दी जाती हैं किंतु मोबाइल खरीदने और पोशाक खरीदने में उस राशि को व्यय किया जा रहा है। पुस्तक के नाम पर पासबुक और पढ़ाई के नाम पर सिर्फ परीक्षा के दिन बैठकर कुछ भी लिख देना यहां का आमचलन बन चुका है। आश्चर्य की बात है कि ऐसे विद्यार्थी बिना योग्यता बढ़ाए हर क्लास पास हो रहे हैं और सरकारी योजनाओं की धनराशि हो या सामान सारी औपचारिकता काफी मेहनत द्वारा पूरी करके प्राप्त कर रहे हैं।
विकसित भारत का सपना देखने वालों को जब ऐसे युवा दिखाई पड़ जाते हैं तो एक तरफ उन्हें सपने की ऊंचाई दिखाई देती हैं तो दूसरी तरफ ज्ञान और चरित्र की खाई के दर्शन होते हैं। ऐसे में मन गहरी निराशा में डूबने लगता है।
28 साल पहले श्री गोविंद गुरु कॉलेज में जब मैंने व्याख्याता के रूप में कार्यभार ग्रहण किया था तब ऐसे विद्यार्थी थे जो क्लास के बाद भी रविवार को चर्चा के लिए नियमित मेरे घर पर आते थे और शिष्य गुरु संवाद चलाते थे। नए नए विषयों पर उनके साथ चर्चा के कारण शिक्षक होने की सार्थकता का एहसास होता था और उनके साथ आत्मीय संबंध भी बनता था।
कोरोना काल के बाद तो ऐसी पीढ़ी आ रही है जिनके साथ निरर्थकता का बोध सघन हो रहा है और विद्यार्थी शिक्षक की बीच किसी भी प्रकार का संबंध नहीं बन रहा है। विद्यार्थी को शिक्षा नहीं सिर्फ सूचना चाहिए। फिर महाविद्यालय में बैठे हुए शिक्षक को सूचनाप्रदाता पद पर होने का या किसी अन्य पेशे अथवा व्यवसाय में होने की अनुभूति हो रही है। जबकि
'शिक्षक न पद है, न पेशा है, और न व्यवसाय है
न हीं गृहस्थी चलाने वाली कोई आय है
वह तो सभी धर्मों से ऊंचा धर्म है
गीता में उपदेशित मा फलेषु वाला कर्म है।'
अपने विषय में नये विचार और नए ज्ञान की तो बात छोड़िए, ऐसे माहौल में शिक्षक का अपना अर्जित विषय ज्ञान भी सुरक्षित रख पाना मुश्किल हो रहा है। इसके कारण शिक्षक आत्महीनता का शिकार हो रहा है।
जिस शिक्षा जगत का विद्यार्थी प्रतिभाहीन हो और शिक्षक आत्महीन हो, उस शिक्षा जगत से कैसा विकसित भारत बनाएंगे।
शिक्षा जगत का यह अंधेरा कितना भी घना हो किंतु कुछ टिमटिमाते सितारे नजर में आ ही जाते हैं। उन सितारों के लिए अनुकूल परिवेश बनाकर और पढ़ाई से उन्हें जोड़कर पनप रही वैचारिक दरिद्रता को दूर किया जा सकता है। इसके लिए कुलगुरुओं को आगे आना चाहिए; क्योंकि-
'भारत की पावन वसुधा पर गुरुपद पूजित और महान
वेदों में भी किया गया इस पावन पद का बड़ा बखान
देवों से भी पहले जिसका नाम उच्चारा जाता है
जो सच्चा पथदर्शन देकर मंजिल तक पहुंचाता है।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹