🙏जो शिक्षा से कभी निवृत्त नहीं होता,उस शिक्षक की सेवानिवृत्ति🙏


संवाद


'शिक्षा के अंधकार में एक गुरु अरुण'


व्यावसायिक शिक्षा के आज के जमाने में भारतीय वैदिक संस्कृति के शिक्षामूल्य जहां भी बचे हुए हैं, उन्हें सुरक्षित रखना और संसार के सामने लाना बहुत जरूरी है। आज कोई यह मानने को तैयार नहीं होगा कि अब भी कुछ शिक्षक ऐसे हैं जो अपना अर्जित ज्ञान अपने विद्यार्थियों में निःशुल्क और निःस्वार्थ अहर्निश बांटते रहते हैं।


               ऐसे ही एक शिक्षक डॉक्टर अरुण कुमार सिंह जी उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग के इंटर कॉलेज से 29 वर्षों की सेवा के बाद प्रिंसिपल के पद से सेवानिवृत हो रहे हैं। प्रिंसिपल के रूप में भी वे प्रिंसिपल रूम में कम और क्लास रूम में ज्यादा समय बिताते थे। जब कभी बड़े अधिकारी संस्था की जांच के लिए आते थे तो उनकी सबसे बड़ी शिकायत रहती थी कि डॉ.अरुण अपनी कुर्सी पर बैठे हुए आज तक नहीं मिले‌।कागजों और फाइलों में मशगूल रहने की अपेक्षा वे हमेशा विद्यार्थियों में और अपने विषय-अध्यापन में मशगूल रहते थे। शिक्षा के सबसे प्रतिष्ठित केंद्र पटना विश्वविद्यालय से एम.ए. शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद उन्होंने अपनी सरकारी सेवा उत्तराखंड राज्य के सबसे पिछड़े पहाड़ी क्षेत्रों में दी क्योंकि उनका दर्शन है कि चिरागों की वहीं ज्यादा जरूरत है,जहां ज्यादा अंधेरा हो।


                उपनिषद कहते हैं कि एक अक्षर भी देनेवाले या सिखानेवाले का जो अभिनंदन नहीं करता है,उसके सारे तप और ज्ञान वैसे ही बह जाता है जैसे फूटे हुए खड़े से पानी बह जाता है-


'एकाक्षर प्रदातमम् नाभिनंदति,


तस्य श्रुत तपो ज्ञानं स्रवत्यां घटाम्बुवत्.....


    मुझे तो डॉ.अरुण कुमार सिंह सर ने अक्षर ज्ञान के साथ जीवन ज्ञान भी दिया। सबसे बढ़कर इतना प्रेम दिया कि कब वे मेरे गुरु होते हैं और कब मित्र होते हैं,पता ही नहीं चलता। आज उनकी सेवानिवृत्ति के क्षण में किन शब्दों से मैं इनका अभिनंदन करूं....


              अंधकारपूर्ण रात्रि से मैं स्नातक के दौरान गुजर रहा था। एक तो जिंदगी भर जिस क्रिकेट की साधना की थी, उस पर बैन लग गया था और दूसरा कोई नया रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था, जिस पर जीवन को आगे बढ़ाया जाए। इधर-उधर हाथ पैर मार रहा था और अंधेरे में रास्ता टटोल रहा था।


                 तभी जीवन में एक शख्स ध्रुव भैया(मेरे सीनियर और वर्तमान में मेरठ के डीजी) से मुलाकात होती है और उनके साथ रहने वाले अरुण भैया से परिचय होता है। दोनों ही लंगोटिया यार और सुख-दुख दोनों के पार। दोनों ही अत्यंत गरीब और ग्रामीण पृष्ठभूमि से निकलकर पटना विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर की परीक्षा में अपनी प्रतिभा का पताका फहरा चुके थे।ध्रुव भैया और अरुण भैया के कारण जो संस्कृत मुझे जटिल और नीरस लगता था, वह संस्कृत मुझे सरल और सरस लगने लगा।


               दोनों ही शख्स अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहे थे और मेरा मार्गदर्शन भी। मुझे कुछ आता नहीं था, इसीलिए प्रश्न बहुत पूछता था। इतने प्रश्नों से कोई परेशान हो सकता था किंतु इन दोनों ने मेरे प्रश्नों का जवाब सिर्फ पुस्तक से ही नहीं बल्कि अपने जीवन से भी दिया। संस्कृत पढ़ने के लिए जो संस्कार, सदाचार और समर्पण चाहिए था,वो इन दोनों से मैं सीखता गया तब मुझे पता चला कि ज्ञान को भारतीय संस्कृति में आनंद क्यों कहा गया है। सबसे ज्यादा संघर्ष और तनाव का समय भी कितना हर्ष और समभाव से गुजर सकता है,यह उनके साथ रहने से पता चला।


           अरुण भैया बांसवाड़ा कॉलेज में 26.8.1996 को मुझे ज्वाइन करवाने भी मेरे साथ आए थे क्योंकि उस समय मेरी तबीयत बहुत खराब थी।जीवन में व्यक्ति को जो मिलता है वही जगत को देता है। 'शिष्य गुरु संवाद केंद्र' निःशुल्क और निःस्वार्थ भाव से प्रारंभ से लेकर अभी तक विद्यार्थियों को जो कुछ दे रहा है, उसमें मेरा कुछ नहीं है ;अरुण सर जैसे गुरुओं का आशीर्वाद हैं।


           उनकी सेवानिवृत्ति पर मैं रुद्रप्रयाग जाकर अपना अहोभाव प्रकट करना चाहता था, किंतु उन्होंने मना कर दिया कि औपचारिकता में ज्यादा परेशान मत होओ। मेरा तन तो बांसवाड़ा में है लेकिन मन रुद्रप्रयाग में। भाव से भरा मन परमात्मा से यही प्रार्थना कर रहा है कि अरुण भैया जैसे फ्रेंड ,फिलॉस्फर और गाइड सबके नसीब में हो। अभी मेरे मन:प्रासाद में प्रसाद जी की पंक्ति गूंज रही है-


अरुण यह मधुमय देश हमारा।


जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।


🙏गुरुरेव परोधर्मो गुरुरेव परा गति:🙏


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹