🙏बच्ची की निर्मम हत्या का दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण🙏


संवाद


'जाह्नवी की हत्या करनेवाला मन'


जह्नु (ऋषि) से उत्पन्न नदी गंगा को जाह्नवी कहा गया है। उस पवित्र गंगा के किनारे हमारी संस्कृति ने ज्ञान की आराधना की।


तेरह वर्षीय जाह्नवी की निर्मम हत्या से बांसवाड़ा हिल गया और जब हत्यारे के रूप में गांव के ही दो नाबालिग पकड़े गए तो आक्रोशित समाज स्तब्ध रह गया। और मूल कारण जानकर तो हर कोई हैरान और परेशान है कि मोबाइल खरीदने के लिए रूपयों की चोरी करने आए और बालिका द्वारा देख लिए जाने पर सबूत मिटाने के लिए उन नाबालिगों ने उसकी हत्या कर दी।


             अब हत्यारों को फांसी चढ़ाने की मांग हो रही है। यह तो सिर्फ विषवृक्ष की पत्तियां काटना हुआ। यदि उसको जड़ से नहीं उखाड़ा जाए, तो दूसरी पत्तियां उग सकती हैं।शिक्षा कहती है कि घटना का मूल कारण समझकर और उसका विश्लेषण करके सबक लेना भी जरूरी है।


             मेरी जहां तक समझ है,उसके अनुसार भोगवाद जनित हिंसा का यह मामला है। पारिवारिक परिवेश और शिक्षा दोनों ही आज उपभोक्तावादी संस्कृति की गिरफ्त में है-'खाओ पियो और मौज करो (eat,drink and be merry). सामान पर ध्यान ज्यादा चला गया है और इंसान के मन पर उसी मात्रा में ध्यान कम हो गया है। अधिकांश मां-बाप बच्चों को ज्यादा से ज्यादा सामान देकर अपना प्यार जता रहे हैं-कपड़े,मोबाइल,गाड़ी और खाने का सामान इत्यादि। फिर मोबाइल और टीवी पर प्रचार द्वारा और भी ज्यादा सामान को मन में बिठाया जा रहा है और भोगवादी जीवन शैली के लिए लुभाया जा रहा है। फिर शिक्षालय भी ड्रेस,स्टेशनरी,किताबें आदि के द्वारा सामान की सूची बढ़ा दे रहे हैं और संस्कार देने के लिए कुछ विशेष नहीं कर रहे हैं-


'खिलौनों के बदले में बारूद दी


बच्चों में अब गुलफिशानी कहां


जलाकर शमा पूछते हो आप


पतंगों की अब जिंदगानी कहां?'


                 जब मैं अपने पारिवारिक परिवेश और शिक्षा का स्मरण करता हूं तो मां बाप या किसी परिजन का प्यार और ध्यान हमेशा मिलता था। शिक्षालय में भी शिक्षक आज की तरह सामान वितरण और अन्य जगह पर अपना ध्यान नहीं लगाते थे बल्कि विद्यार्थी के ऊपर उनका पूरा ध्यान था। कुछ शिक्षक तो शिक्षालय से आने के बाद घर पर भी जाकर विद्यार्थी के बारे में अभिभावक से जानकारी लेते थे। मां-बाप,परिजन और शिक्षक का समय और ध्यान मिलने से मन हरा-भरा रहता था और बड़ों को देखकर जीवन सदाचार की ओर बढ़ता था। क्योंकि उस समय सादगी और ईमानदारी दो बहुत बड़े जीवन मूल्य थे।


                आज पैसा और पद सबसे बड़े जीवन मूल्य बन गए हैं। 'सपना मेरा मनी मनी' और 'किसी भी कीमत पर कुर्सी' जीवन का ध्येय वाक्य बन चुका है। समाज में धनवाले या पदवाले ही पूजे जा रहे हैं-


'अपूज्यानां यत्र पूज्यंते, पूज्यानां तू विमानना


त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम्।'


इस श्लोक के माध्यम से हमारे ऋषि कहते हैं कि जहां पर सदाचारी की जगह दुराचारी पूजे जाते हैं, वहां अकाल,मरण और भय व्याप्त रहता है।


               भारतीय ज्ञान परंपरा शिक्षा का उद्देश्य मनोभंजन मानती है, मनोरंजन नहीं। आज बच्चे हो या बड़े वही काम करते हैं जिसमें मन लगता है, जबकि गुरुकुल में काम वही सिखाया जाता था जिससे कल्याण होता था और आत्मा जगती थी।


'मन के हारे हार है,मन के जीते जीत' कहावत यही कहती है कि मानव के लिए मन सबसे महत्वपूर्ण है। अतः आत्मज्ञान प्राप्तकर मन का मालिक बनो। मन का मालिक कम से कम सामान में अपनी झोपड़ी में भी इतना खुश रहता था ,जितना महलों में भी कोई राजा नहीं हो पाता था। जंगल का प्रशिक्षण यदि विश्वामित्र ने नहीं दिया होता तो राम राजमहल छोड़कर जंगल में जाने की खबर सुनकर विक्षुब्ध हो जाते। यह उस समय की शिक्षा का कमाल था कि जंगल भी उनके जीवन के लिए मंगल हो गया;दूसरे शब्दों में राम वन गए और बन गए।


            आज जंगल का निर्माण नहीं किया जा सकता और सामान का प्राचुर्य है तो उसे हटाया भी नहीं जा सकता किंतु मन को ऐसा बनाया जा सकता है कि महल में भी जंगल की तरह रहे। राजा जनक संसार में भी संन्यासी की तरह रहे। अत्यंत अभाव की जिंदगी जीकर बहुत बड़े पद पर पहुंचने वाले अपने साथियों को देखता हूं तो पाता हूं कि उनके जीवन की सादगी और ईमानदारी अभी भी बरकरार है। यह बात जरूर है कि उनके बच्चों की जीवन शैली में परिवर्तन आया है किंतु संस्कार और चरित्र के साथ उन्होंने कोई समझौता नहीं किया है।फलत: उनके बच्चे सामान रहते हुए भी संस्कार से समृद्ध हैं।


             लेकिन जिन परिवारों में बच्चे पर ध्यान नहीं है और जिन शिक्षालयों में भी केवल आजीविका प्राप्त कराने वाली शिक्षा पर ध्यान दिया जा रहा है,जीवन पर नहीं, वहां के बच्चे पैसे के लिए किसी हद तक चले जाते हैं। ऑनलाइन गैंबलिंग उन्हें रातों-रात धनी बनने का सपना दिखाती है।अश्लील-हिंसक वीडियो गेम्स  उनके मन को इतना


बिगाड़ देते हैं कि वे हैवान बन जाते हैं।


संस्कृत का एक श्लोक कहता है कि अर्थ के लोभी व्यक्ति के लिए कोई गुरु और बंधु नहीं होता और काम के आतुर व्यक्ति के लिए न भय होता है,न लज्जा-


'अर्थातुराणाम् न गुरुर्न बंधु:,


कामातुराणाम् न भयं न लज्जा।'


अर्थ और काम को भारतीय संस्कृति बुरा नहीं मानती हैं, बल्कि उसे पुरुषार्थ-चतुष्टय में रखती है-धर्म,अर्थ,काम, मोक्ष। अर्थात् धर्म के द्वारा नियंत्रित अर्थ और काम से व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर लेता है।


आज धर्म के नाम पर मंदिरों और तीर्थों पर भीड़ बढ़ जाती हैं, जबकि धर्म है अपने कर्त्तव्य का बोध। मां,बाप,परिवार समाज,शिक्षक और सरकार जब तक अपने कर्त्तव्य के बोध से नहीं भरते हैं, तब तक मन बिगड़ता रहेगा और जीवन को नरक के बंधन में भेजता रहेगा। किंतु कर्त्तव्य बोध के जगते ही यही मन मुक्ति का कारण बन जाता है-


'मन एव मनुष्यानाम् कारणं बंधमोक्षयो:'


अर्थात् मन बंधन का भी कारण है तो मुक्ति का भी। इस मन को हैवान बनाएं या भगवान; यह इंसान पर निर्भर करता है।


'शिष्य-गुरु संवाद' प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹