🙏भारतीय नव वर्ष युगाब्द ५१२७, विक्रम संवत २०८२,शक संवत १९४७ की और चैत्र नवरात्र की शुभकामना🙏


संवाद


'अपनी जड़ों को पहचानें और सींचे'


भारतीय ज्ञान परंपरा में नववर्ष चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि को मनाया जाता है। किंतु मेरे जैसे अधिकांश भारतीय 1 जनवरी को नववर्ष मनाते हैं और हैप्पी न्यू ईयर की शुभकामना सबको प्रेषित करते हैं। अंग्रेजी नववर्ष को मनाना कोई अपराध नहीं है किंतु अपने नववर्ष को भूल जाना अक्षम्य अपराध है।उपनिवेशवादी शिक्षा ने हमें अपनी जड़ों से काट दिया। उन जड़ों को पहचाने बिना और उनको सींचे बिना हमारा जीवनरूपी वृक्ष हरा भरा नहीं हो सकता।


                      थोड़ी सी आंख खोलें तो स्पष्ट दिखाई देता है कि इस समय प्रकृति दुल्हन का रूप धर स्नेह सुधा बरसा रही है।शस्य श्यामला धरती माता घर-घर खुशियां ला रही हैं। शीत ऋतु का अंत हो चुका है और वसंत अपनी पूर्णता पर संपूर्ण सृष्टि में नवजीवन का संचार कर रहा है। वृक्षों पर नवीन कोंपलें उग आई हैं, फूलों की सुगंध से वातावरण सुवासित हो उठा है ,कोयल ने कूकना शुरू कर दिया है और खेतों में फसलों ने लहराना शुरू कर दिया है।


              क्या यही बात हमें जनवरी माह में दिखाई देती है? उस समय संपूर्ण धरा सर्दी से ठिठुरती है और आकाश कोहरे से घिरा होता है। बंद कमरों में दुबका इंसान बिस्तरों से भी बाहर निकलना नहीं चाहता क्योंकि प्रकृति  बाहर उत्सव के लिए बुला नहीं रही है-


'सूना है प्रकृति का आंगन, कुछ रंग नहीं उमंग नहीं


हर कोई है घर में दुबका,नववर्ष का ये कोई ढंग नहीं।'


               पाश्चात्य परंपरा में भी पहले वर्ष का प्रारंभ मार्च महीने से ही होता था।पहली जनवरी से वर्ष प्रारंभ करने की परिपाटी ब्रिटिश पार्लियामेंट में पारित एक विधेयक के अनुसार सन् 1752 से अस्तित्व में आई और तदनुसार उपनिवेशवाद के प्रभाव में पूरे विश्व में प्रचलित हो गई। यह खगोलीय गणना और प्राकृतिक स्थितियों के विपरीत अधिनायकवाद की मानसिकता का परिचायक है। अतः अप्राकृतिक ढंग से डीजे की म्यूजिक पर शराब और शबाब के साथ 31 दिसंबर को लोग होटल के बंद कमरों में नए वर्ष का स्वागत रात 12:00 बजे करते हैं। ऐसे में मन में एक प्रश्न उठता है-


'सैर करके चमन का मिला क्या हमें


रंग कलियों का अब तक घुला ही नहीं


तन के तट पर मिले हम कई बार पर


द्वार मन का अभी तक खुला ही नहीं।'


          भारतीय नवसंवत्सर में मन का ही नहीं बल्कि आत्मा का भी द्वार खुल जाता है क्योंकि इसी दिन चैत्र नवरात्र का शुभारंभ होता है जिसमें शक्ति की आराधना कर साधक मनोबल तथा आत्मबल प्राप्त करते हैं। यह तिथि भगवान राम के राज्याभिषेक से भी जुड़ा हुआ है जो अधिकारों को भूलकर अपने कर्तव्यों की याद दिलाती है।


     भोग प्रमुख देहवादी संस्कृति के प्रतीक अंग्रेजी नववर्ष ने हमारा जीवन अश्लीलता और हिंसा से भर दिया जिसके कारण व्याभिचार और अनाचार चारों ओर बढ़ता जा रहा है। त्याग प्रमुख अध्यात्मवादी संस्कृति के प्रतीक 'नवरात्रियुक्त संवत्सर' का आरंभ हमें आत्मावलोकन और आत्मपरिष्कार के लिए प्रेरित करता है।


         भोग की ज्वाला में जलती हुई पीढ़ी को त्याग की ओर उन्मुख करने के लिए नवसंवत्सर के अवसर पर भारतीय ऋषियों की यह उद्घोषणा समझना होगा और समझाना होगा कि त्याग से ही अमृत की प्राप्ति होती है- 'त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः' (कैवल्योपनिषद)


            भारतीय दर्शन,खगोलशास्त्र और परंपराओं के आधार पर शुरू हुआ यह नवसंवत्सर ज्ञान की हमारी चरम साधना की याद दिलाता है जिसके बल पर भारत विश्वगुरु बना था। अपने नवसंवत्सर से जुड़कर जब हमें हमारी जड़ों की याद आएगी और जब हम जड़ों को सींचेंगे तब जीवनरूपीवृक्ष हरा-भरा होगा और फल- फूलों से लदेगा।


अंग्रेजी शिक्षा के कारण हमें तो आज अपने संवत,माह,पक्ष,तिथि,वार के नाम का भी ज्ञान नहीं है फिर उसके लाभ को हम कैसे पाएंगे? अभी तो हमारी स्थिति उस भिखारी के समान है जो रत्नों की खान के ऊपर बैठा है लेकिन उस जमीन के नीचे क्या खजाना छुपा है,उसे पता ही नहीं है;अतएव भीख मांग रहा है। अतः नवसंवत्सर को उत्सवपूर्वक मनाएं और उस सम्यक्-शिक्षा की ओर कदम बढ़ाएं जो हमारे ज्ञान के खजाने से हमें परिचित कराती हैं।


🙏भारतीय नववर्ष मंगलमय हो🙏


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹