🙏समाज के ज्वलंत प्रश्न🙏
संवाद
'कर्म बड़ा या भाग्य'
'क्या पूजा करने मात्र से नौकरी मिल जाती है और गंगा स्नान करने से पाप धुल जाते हैं?आखिर कर्म और भाग्य में से बड़ा कौन है?"-यह प्रश्न एक साथी ने पूछा। लखनदेवजी इस बात से परेशान हैं कि धर्म के नाम पर नई पीढ़ी ने शॉर्टकट का रास्ता अपनाना शुरू कर दिया है। हर घर में पूजा पाठ काफी बढ़ गया है और महाकुंभ के बाद तो गंगा स्नान भी। किंतु पढ़ने के लिए मेहनत और पाप के लिए प्रायश्चित गायब होता जा रहा है।
हमारी संस्कृति में स्पष्ट कहा गया है कि परिश्रम से ही कार्य की सिद्धि होती है सिर्फ मन की इच्छा से नहीं। सोए हुए सिंह के मुख में मृग अपने आप प्रवेश नहीं कर जाता। सिंह को भी दौड़कर शिकार पकड़ना पड़ता है-
'परिश्रमेण हि सिद्धयंति कार्याणि न मनोरथै:
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंति मुखे मृगा:।'
लेकिन मानव का मन कठिन मार्ग की अपेक्षा आसान मार्ग की ओर कदम बढ़ा देता है और उसके लिए तर्क भी ढूंढ लेता है। जैसे रामचरितमानस में तुलसीदास जी लिखते हैं-
'होईहें वही जो राम रचि राखा
क्यूं करि तर्क बढ़ावहिं साखा।'
अथवा
'अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम
दास मलूका कह गए सब के दाता राम।'
आलसी प्रवृत्ति के लोग इन वाक्यों को अपना जीवन मंत्र बना लेते हैं। फिर कुछ पंडित पुरोहित भी ऐसे मिल जाते हैं जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए उनके मार्गदर्शक बन जाते हैं। कौन सा व्रत करें,कौन सा कपड़ा पहनें और कौन से देव की आराधना करें बताकर अपनी जेब भरते हैं।
उसी रामचरितमानस में यह भी लिखा है कि
'कर्म प्रधान विश्व रचि राखा
जो जस करहि सो तस फल चाखा।
सकल पदारथ हैं जग मांही
कर्महीन नर पावत नाहीं।।'
गीता में भगवान कृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि कर्म में ही तेरा अधिकार है-कर्मण्येवाधिकारस्ते। इन बातों को ऐसे लोग भूल जाते हैं। उनकी नजर में यह बात प्रमुख हो जाती है कि सब कुछ छोड़कर मेरी शरण में आ जा-'सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
लूडो खेलो पैसे जीतो, लॉटरी, ऑनलाइन गैंबलिंग और शेयर मार्केट भी भाग्यवाद को बढ़ावा दे रहे हैं क्योंकि घर बैठे उनमें पैसे जीतने या बढ़ने की बात साफ दिखाई दे रही हैं।
परीक्षा में धांधली,पेपर लीक और जुगाड़ से कुछ प्राप्त करने वाले उदाहरण समाज में बढ़ते जा रहे हैं। गलत रास्ते से सफलता प्राप्त कर लेने वाले से समाज कोई प्रश्न नहीं पूछता।ऐसे में कर्म से या स्वयं से विश्वास उठते जाता है।कितना भी पाप करके सफलता प्राप्त कर लो और फिर गंगा में एक डुबकी लगाकर अपना पाप धो लो, यह बात सामान्य जनमानस में घर कर गई है। धार्मिक कर्मकांड और महाकुंभ का जिस प्रकार से प्रचार प्रसार किया गया, उससे आस्था के नाम पर अंधविश्वास को बढ़ावा मिला है जिसके कारण लोग शॉर्टकट का रास्ता अपना रहे हैं और भाग्य पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं।
हर मनुष्य में प्रतिभा का कोई न कोई बीज होता है। बीज की संभावना है वृक्ष बनने की। लेकिन यदि बीज को कोई पॉकेट में ही रख ले तो वह कभी वृक्ष नहीं बन सकता। जो व्यक्ति बीज को उपजाऊ भूमि में बो देगा और उसके चारों ओर सुरक्षा हेतु बागुड़ लगाकर खाद पानी देगा और अनुकूल ऋतु की प्रतीक्षा करेगा,उसका बीज वृक्ष बन जाएगा।
आज की युवा पीढ़ी को समझना होगा कि जो स्वयं अपनी सहायता नहीं करता अर्थात् अपने लक्ष्य ही प्राप्ति के लिए कठोर मेहनत नहीं करता, उसकी सहायता भाग्य या भगवान भी नहीं कर सकता। परिश्रमरूपी योग्यता से ही भाग्यरूपी फल प्राप्त होता है।
जहां तक गंगा स्नान से पाप के धूल जाने का प्रश्न है; वहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि भारतीय संस्कृति में कर्मवाद का सिद्धांत कहता है कि हर कर्म का फल अवश्य मिलेगा। बुरे कर्म का बुरा फल और अच्छे कर्म का अच्छा फल। गंगा स्नान से इतना ही लाभ हो सकता है कि मन के पवित्र हो जाने से बुरे कर्म की और आपकी प्रवृत्ति नहीं होगी। जब अच्छे कर्म होंगे तो आपका पुण्य बढ़ेगा और पहले के किए हुए बुरे कर्म की शक्ति कमजोर होगी। किंतु बुरे कर्म का फल तो भुगतना ही पड़ेगा।
जीवन में कर्म और भाग्य दोनों की भूमिका है किंतु किसी के लिए कर्म ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकता है और किसी के लिए भाग्य। असली समस्या तब खड़ी होती है जब कोई कर्म या भाग्य में से एक का चुनाव कर लेता है। कर्मवादी तनाव से भर जाएगा क्योंकि उसने भाग्य या भगवान को इनकार करके अपने ऊपर सारी जिम्मेवारी ले ली। भाग्यवादी आलसी हो जाएगा क्योंकि उसने अपनी भूमिका शून्य कर दी। जीवन रूपी मंदिर के निर्माण के लिए कर्म की नींव भी चाहिए और भाग्य का शिखर भी-
'भूमि आंखों की है बंजर या नमी की है कमी
ख्वाब आंखों में किसीके किसलिए पलते नहीं
है नहीं परिणाम केवल आदमी प्रारब्ध का
यह तरु पुरुषार्थ के सींचे बिना फलते नहीं।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹