संवाद


'जागरण में ले जाती है नवरात्रि'


रात को नींद नहीं आई। करवट बदल बदल कर परेशान हो गया। गांव में लोग अभी भी खुले आकाश के नीचे सोते हैं और नींद नहीं आने पर तारे गिनते रहते हैं-


तारों का गो शुमार में आना मुहाल है


लेकिन किसी को नींद न आए तो क्या करे।


           अब तो बंद कमरे से आकाश भी नहीं दिखाई देता।फिर 3:00 बजे सुबह टहलने हेतु निकल पड़ा। मन में एक विचार आया कि त्रिपुरा सुंदरी माता के दर्शन हेतु चला जाए। बुद्धि ने कहा कि 20 किलोमीटर दूर पैदल और वह भी अकेले बहुत मुश्किल पड़ेगा। किंतु हृदय की आवाज सुन कदम उस ओर बढ़ने लगे। सड़क एकदम सुनसान थी और अंधेरा था। लेकिन नवसंवत्सर की चैत्रनवरात्रि में पिछले तीन दिन से शक्ति की आराधना का मंत्र चारों तरफ वातावरण में गूंज रहा था। जब टहलते टहलते चार घंटे में मंदिर पहुंचा तो वहां सुबह की आरती चल रही थी। सुबह का शुद्ध वातावरण और उस पर से आध्यात्मिक ऊर्जा से पूर्ण मंदिर के प्रांगण में चल रही सामूहिक आरती एक विशेष अनुभूति में ले गई।


           दूरी का पता न चला और समय का ख्याल न रहा। जब वहां से लौटा तब भी 5 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ा। तैयार होकर कॉलेज भी गया और क्लास भी लिया। मन में उमंग बना हुआ था,थकान का कोई नामोनिशान नहीं था। जब दोपहर के बाद कॉलेज से आकर सोया तो पैरों की सूजन और शरीर के थकान का पता चला। शाम को टहलने जाने की हिम्मत नहीं हुई। छत पर आकाश की ओर देखते हुए सोचने लगा कि क्यों हमारी संस्कृति में तीर्थ-यात्रा और मंदिर-दर्शन के लिए लोग इतना कष्ट उठा लेते हैं?


              यही किसी सरकारी आदेश के कारण पैदल इतनी दूर जाना पड़ता तो अत्याचार मालूम पड़ता और व्यक्ति बीमार हो जाता। दूर तक चलने का तन पर तो असर है किंतु मन और आत्मा बहुत प्रसन्न है। इसका मतलब है कि हमारे मन और आत्मा में इतनी संभावना छुपी हुई है कि इसे किसी विराट शक्ति से जोड़ दिया जाए तो तन अपनी सीमा भूल जाता है।


               भारतीय ज्ञान परंपरा में पर्व,त्यौहार और तीर्थ के माध्यम से एक ब्रह्माण्डीय शक्ति से जुड़ने का प्रयोग किया जाता था जिसे अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में भुला दिया गया।


              भौतिकता की आंधी में हम अपने पर्व,त्योहार और तीर्थ से कटते चले गए। खासकर बुद्धिजीवी वर्ग इसे अंधविश्वास बताने लगा। आलसी किस्म के लोग पर्व, त्योहार और तीर्थ का उपयोग अपनी क्षुद्र मनोकामना की पूर्ति के लिए करने लगे। स्वार्थी पंडित और पुरोहित इसका इस्तेमाल पैसा बनाने के लिए और कोरा भाग्यवाद फैलाने के लिए करने लगे। परिणाम यह हुआ कि धर्म का मुख्य केंद्र मंदिर और तीर्थ विवादित हो गया।


           विज्ञान और धर्म का मूलभूत अंतर यह है कि विज्ञान का एक वैज्ञानिक द्वारा किया गया प्रयोग दूसरा कोई भी किसी प्रयोगशाला में उसकी जांच कर सकता है किंतु धर्म का प्रयोग व्यक्तिगत अनुभूति का विषय होने के कारण दूसरे द्वारा जांचा नहीं जा सकता। मुझे जिस सात्विकता की अनुभूति हो रही है और जिस भरोसे की प्रतीति हो रही है, उसे दूसरे को न तो मैं ठोस वस्तु रूप में दिखा सकता हूं और न शब्दों में प्रामाणिक रूप से बतला सकता हूं। फिर भी अंदर में कुछ-कुछ हो रहा है, उसको मैं छुपा भी नहीं सकता। रोम रोम स्पंदित है, श्वास श्वास मां त्रिपुरा सुंदरी के सुवास से भर गया है, विराट आकाश की ओर आंखें उठा कर उस अहोभाव को प्रकट करने का मन हो रहा है और शब्दों से उसकी अभिव्यक्ति करने की इच्छा हो रही है।


             मैं सोच रहा हूं कि संसार को माया कहने वाले ज्ञानमार्गी शंकराचार्य किस अनुभूति से प्रेरित होकर चारों दिशाओं में मठ की स्थापना करने के लिए निकल जाते हैं और भज गोविंदम मूढ़मते लिखकर ज्ञान से भक्ति में उतरकर संतोष पाते हैं। तर्क की पराकाष्ठा पर पहुंचकर नरेंद्रनाथ दत्त किस भाव दशा में कम पढ़े-लिखे रामकृष्ण परमहंस के चरणों में सर झुका देते हैं।


         यह भावना का जगत अद्भुत है जो पाषाण को भगवान बनाकर पूजने लगता है। नीचे की ओर बहने वाला जल यदि 100 डिग्री पर गर्म हो जाए तो ऊपर की ओर उड़ने लगता है। विज्ञान की यह बात मुझे धर्म के जगत में भी सही प्रतीत होती हैं। क्षुद्र भावनाओं में पड़ा हुआ इंसान जो नीचे गिरता जाता है, तेरे-मेरे की भावना से ऊपर नहीं उठ पाता; वही भावना विराट शक्ति से जुड़ने पर सारी सीमाओं के पार हो जाती है और 'सर्वे भवंतु सुखिन:' के गीत गाने लगती है। क्षुद्र भावनाओं के वशीभूत होकर जो इंसान के साथ भी पाषाण सा व्यवहार करते हैं, वे ही विराट के साथ जुड़कर पाषाण को भी भगवान बना लेते हैं और उसकी भक्ति में आनंद से भर जाते हैं-


सैकड़ो पाषाण में से तू भी एक पाषाण होता


मैं न होती भावना फिर तू कहां भगवान होता!


स्नेह के लघु दीप में मैं वर्तिका बनकर जली हूं


तव चरण की कोर छूने अर्घ्य जल बनकर ढूली हूं


मैं न यदि निज को मिटाती दूर क्या व्यवधान होता


मैं न होती भावना फिर तू कहां भगवान होता!!


            आज जो अवसाद और आत्महत्याएं बढ़ी हैं, वह बुद्धिवालों के जगत में ज्यादा बढ़ी हैं क्योंकि वे बुद्धि में ही जीने लगते हैं और हृदय को भूल जाते हैं।यह सत्य है कि बुद्धि के बिना विज्ञान नहीं हो सकता किंतु यह भी सत्य है कि बुद्धि के साथ धर्म के जगत में प्रवेश भी नहीं हो सकता, वहां तो भावनाओं का ज्वार चाहिए। धार्मिक उत्कंठा से हमारे पर्व और त्योहार उद्भुत हुए हैं-अथातो धर्मजिज्ञासा, अथातो भक्तिजिज्ञासा.....।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹