🙏महावीर जयंती की शुभकामना🙏
संवाद
'अहिंसा से ही धरा स्वर्ग बनेगी'
भारतीय संस्कृति अद्भुत हैं जो किसी विश्वविजेता को महावीर नहीं कहती बल्कि जो स्वयं को जीत ले उसे महावीर कहती हैं। वर्धमान महावीर बन जाते हैं जब उनकी संवेदना इतनी वर्धमान अर्थात् व्यापक हो जाती है कि सूक्ष्म से सूक्ष्मतम जीव का भी ख्याल रखने लगती हैं। 'जिन' का अर्थ होता है विजेता। लेकिन यह विजेता अद्भुत हैं जो अहिंसा के मार्ग से जीतता है और 'अहिंसा परमो धर्म:' की उद्घोषणा करता है।
अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी जैन धर्म से बहुत प्रभावित थे। एक बार साबरमती आश्रम में सरदार पटेल पानी गर्म कर रहे थे। गर्म पानी से भाप निकल रहा था। गांधी जी ने कहा कि सरदार! इसे किसी बर्तन से ढक दो। सरदार पटेल ने कहा कि क्या जरूरत है? गांधी जी ने कहा कि गर्म पानी से निकलने वाले भाप के कारण हवा में मौजूद कुछ सूक्ष्मजीवों की हानि हो सकती हैं। इसलिए इसे तुरंत ढक दो। सरदार पटेल गांधी के इस दृष्टिकोण से आश्चर्य में पड़ गए। जो अहिंसक होता है वह सभी जीवों में बसे प्राण को अपने समान मानने लगता है। इसीलिए संस्कृत के ऋषियों ने भी धर्म की परिभाषा एक सूत्र में यही की थी- 'आत्मन:प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्'अर्थात् जो स्वयं की आत्मा के प्रतिकूल लगे ऐसा व्यवहार किसी के साथ मत करो।
हिंसा से विनाश के कगार पर पहुंच चुके इस संसार को महावीर का अहिंसारूपी धर्म और दर्शन ही बचा सकता है। पश्चिम की दृष्टि में संघर्ष को विकास का आधार मान लिया गया है और 'survival of the fittest' का सिद्धांत दिया गया। दो विश्वयुद्ध और सतत चलने वाला स्थानीय युद्ध इसी सोच का परिणाम है।
महावीर को 'अरिहंत' कहा जाता था अर्थात् जिसने अपने सारे शत्रुओं को जीत लिया। इसके मूल में सोच यह है कि विश्व के प्रति हम मित्रवत् दृष्टि भी रख सकते हैं और अरिवत् दृष्टि भी। महावीर के अनुसार सब हमारे मित्र हैं और महावीर अहिंसक बन गए, जिसके कारण उनका कोई भी शत्रु न रहा। इसका मतलब यह नहीं है कि महावीर को पत्थर मारने वाले लोग नहीं हुए और उनके कानों में कील ठोकने वाले नहीं हुए। ऐसे परपीड़क लोग हुए लेकिन महावीर ने उनको भी अपना मित्र माना इसलिए अरिहंत कहलाए।
उनकी दृष्टि में आत्मा में रागादि भावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है। जब हमारे मन में किसी के प्रति न राग होगा और न द्वेष होगा तो हमारे लिए अहिंसक होना सहज हो जाएगा। क्योंकि भाव जगत में पक्षपात आने पर ही हिंसा शुरू होती है। यदि भाव निर्मल हो तो विचार भी निर्मल होगा और विचार निर्मल होने पर कर्म भी निर्मल होगा। अहिंसक चित्त के निर्माण के लिए इससे ज्यादा वैज्ञानिक पद्धति दूसरी ढूंढनी मुश्किल है।
आज 'अहिंसा परमो धर्म:' के साथ 'धर्म हिंसा तथैव च' को जोड़कर हिंसा को जायज ठहराने का प्रयास किया जा रहा है। जबकि कहीं भी हमारे धर्म ग्रंथों में 'धर्महिंसा तथैव च' का उल्लेख नहीं है। हमारी आत्मा महावीर की तरह अहिंसक बनें तो यही धरती स्वर्ग बन जाएगी।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹