🙏साहित्य और समाज🙏


संवाद


'पुस्तक और स्वाध्याय की संस्कृति जहां,साहित्य वहां'


साहित्य,संगीत और कला से विहीन व्यक्ति साक्षात् पशु के समान होता है। भर्तृहरि ने बरसों पूर्व इस सत्य की घोषणा की थी-


साहित्य-संगीत-कलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः।


क्योंकि मानव में मन नामक इतना शक्तिशाली यंत्र दिया गया है कि यदि उसे उच्चकोटि का साहित्य मिले तो स्वर्ग की सृष्टि होती है और निम्नकोटि का साहित्य मिले तो नरक की।


उच्चकोटि के साहित्य के अभाव में बांसवाड़ा का समाज परिवेश की मूल समस्याओं को नहीं देख रहा है, अतः यहां का भविष्य अंधकार के सिवाय और क्या हो सकता है। जनजातीय क्षेत्र बांसवाड़ा का शैक्षिक परिदृश्य पासबुक की विकृति का शिकार है। समाज के शिक्षाविद् और साहित्यकार के लिए यह चिंता और चिंतन का विषय नहीं है,इससे ज्यादा दुर्भाग्य और कुछ नहीं हो सकता।


           साहित्य का जन्म होता है जहां पर नई-नई पुस्तकों को पढ़ने की इच्छा बलवती हो और नए-नए विचारों को देने की प्रवृत्ति सबल हो। किंतु शिक्षालयों में पुस्तकालयाध्यक्ष नहीं और शहर में किताबों की कोई उत्कृष्ट दुकान नहीं,जहां महानसाहित्य की पुस्तकें निरंतर उपलब्ध कराई जाती हों। पासबुक की दुकानें चलाने वाले  अनपढ़ लोग नहीं बल्कि पढ़े-लिखे लोग हैं किंतु उनकी निगाह आर्थिक लाभ पर है।


             इसीलिए विचारगोष्ठियों में विचारों की समृद्धि के दर्शन बहुत मुश्किल से होते हैं। मंच पर बैठने का शौक बहुत ज्यादा हो और नए विचार देने की तत्परता बहुत कम हो; वहां पर साहित्य कैसे ऊंचाइयां लेगा? खबर यह है कि आजकल शिक्षक भी पासबुक से ही पढ़ाने लगे हैं। जब नई पीढ़ियों के हाथ में सिर्फ पासबुक ही हो तो बेचारा शिक्षक क्या करे? शिक्षालयों में कक्षाएं जब दीन दरिद्र हो जाती हैं तब वहां का साहित्य ही नहीं मरता,समाज भी मर जाता है।


                नए विश्वविद्यालय से कुछ उम्मीद जगी थी किंतु वहां भी जोर साहित्य के प्रचार और समाज के सुधार पर नहीं है। बड़े-बड़े आयोजनों में बड़े-बड़े शिक्षाविदों को बुला लिया जा रहा है किंतु उन्हें सुनने और समझने के लिए श्रोताओं के टोटे पड़ रहे हैं। संगोष्ठियां खानपान,मेलजोल और प्रमाणपत्र के आदान-प्रदान तक सिमट कर रह गई हैं। कोई भी यह नहीं सोच रहा है कि विद्यार्थियों में पढ़ने की ललक जगाए बिना राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियां  बेईमानी हैं। अपने घर के अंधेरे में बाहर का ज्यादा प्रकाश असह्य हो जाता है।


                   गलती कहां पर हो रही है? हमारी गलती यह है कि हम जीवन के क्रम को समझने में भूल कर रहे हैं। सबसे पहले विद्यार्थियों में प्रारंभिक शिक्षा से ही योग्यता बढ़ाने पर जोर दिया जाना चाहिए। योग्यता बढ़ती है गुरुकुल पद्धति से। गुरुकुलपद्धति में शिष्य और गुरु का सारा समय और श्रम अध्ययन-अध्यापन पर केंद्रित होता था। शिष्य की छोटी-छोटी अशुद्धियों को सुधारने के लिए गुरु नए-नए प्रयोग करता था।एक एक बात को समझाने के लिए कई नए नए तरीके आजमाता था। नहीं सीखने पर दंड देता था और विषय की ही नहीं,जीवन की भी परीक्षा लिया करता था। प्रश्न और चिंतन-मनन की पद्धति पर इतना ज्यादा जोर होता था कि विचारगोष्ठियां सप्ताहों और महीनों तक चला करती थीं-


'विषयोविशयश्चैव पूर्वपक्षस्तथोत्तरम्


निर्णयश्चेति पञ्चाङ्गं शास्त्रेऽधिकरणं विदुः।'


अर्थात् विषय , विशय, पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष, और निर्णय इन पांचों से मिलकर शास्त्र का अधिकरण बनता है।


           संगोष्ठियों का मैं समर्थक हूं किंतु संगोष्ठियों का आयोजन ऊपर से थोपा नहीं जाना चाहिए या महज खानापूर्ति के लिए नहीं होना चाहिए बल्कि धरातल से उठे ज्ञान की प्यास को बुझाने के लिए किया जाना चाहिए। इस जनजातीय क्षेत्र के एकलव्यों की प्यास न जाने कब मर गई और क्यूं मर गई? गुरु के मना करने पर भी जिस एकलव्य ने धनुर्विद्या सीखने का अपना इरादा नहीं बदला बल्कि गुरु की मूर्ति से ही सीख लिया, उस एकलव्य की जाति के विद्यार्थी गुरुओं से दूर भाग रहे हैं। इसका परिणाम सबके सामने हैं। डमी अभ्यर्थियों के मामले में यह क्षेत्र सबसे ज्यादा बदनाम हो गया है। जो भी समाज योग्यता को बढ़ाए बिना सिर्फ महत्वकांक्षा को बढ़ाने पर जोर देता है, उस समाज और क्षेत्र की नियति बदनामी के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकती।


            साहित्यविहीन समाज में जीवन-मूल्य नहीं आ सकता। शिक्षालयों में बांटे जा रहे सामान के लिए जो समाज इतना जागरुक है कि मां-बाप सहित परिवार के पूरे लोग कागज जुटाने से लेकर अन्य जरुरी खानापूर्ति तक में दिन रात लग जाते हैं, वही समाज विद्यार्थी का जीवन किधर जा रहा है,उसकी पढ़ाई हो रही हैं कि नहीं हो रही है ऐसे प्रश्नों को लेकर शिक्षक से मिलते तक नहीं हैं। राजनीति के लिए विद्यार्थियों का जीवन और जीवन मूल्य कोई मुद्दा ही नहीं है।


          साहित्यविहीन समाज सोचने की सामर्थ्य खो देता है और सोचने की सामर्थ्य खो जाने पर राजनीति भटक जाती है।उसके लिए सामान प्रमुख हो जाता है, इंसान नहीं; मतदाता प्रमुख खो जाता है,नागरिक नहीं। आज एक तरफ क्लासेज सूने पड़ते जा रहे हैं और दूसरी तरफ राजनीतिक रैलियों और आंदोलनों में भीड़ बढ़ती जा रही है क्योंकि अब अच्छे साहित्य और अच्छे इंसान गायब होते जा रहे हैं।भले ही अच्छे लोगों की संख्या कम हो किंतु उन्हें आवाज लगाते रहना चाहिए, बिना परिणाम की चिंता किए-


'न सोच ये कि तेरी बात पा भी जाएगा कोई


हैं बात काम की अगर तू गलगला मचाए जा


यही सदा उठेगी नारा बन के कायनात में


कोई सुने नहीं सुने सदा ए हक लगाए जा।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹