अपरंपार भावनाओं का ज्वार
April 29, 2025🙏परशुराम जयंती की शुभकामना🙏
🌹संवाद जरूरी है ताकि राष्ट्र की भावनाओं के ज्वार को सम्यक दिशा दिया जा सके🌹
'अपरंपार भावनाओं का ज्वार'
पहलगाम की घटना ने एक तरफ भावनाओं का ज्वार इतना बढ़ा दिया है कि रात सपने में भी पहलगाम ही दिखाई देता है, दूसरी तरफ खबरों का संसार ऐसा है कि व्यक्ति किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है। क्या करें,क्या न करें के बीच झूलता हुआ इंसान अनिश्चय के भंवर में डूबता जा रहा है।
अनिश्चय व्यक्ति के विनाश का कारण बन जाता है, यह बात गीता कहती है-'संशयात्मा विनश्यति'। संशय का अर्थ होता है कि सिर्फ संदेह रह जाए। एक तरफ कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्र में पहलगाम के विशेष पर्यटक स्थल पर कोई सुरक्षा का न होना और आतंकियों के द्वारा नृशंस घटना को अंजाम देकर भाग जाना बहुत बड़ा संदेह खड़ा करता है तो दूसरी तरफ मारे गए लोगों के परिजनों का विलाप और राजनीति के परस्पर विरोधी बयान यकीन पर संदेह खड़ा करता है।
संदेह इस बात पर भी है कि धर्म क्या है? एक तरफ मुसलमान आतंकियों द्वारा धर्म पूछ कर गोली मारी गई तो दूसरी तरफ हिंदू पर्यटकों को बचाने के लिए कोई मुसलमान सैय्यद आदिल हुसैन शाह ने अपने सीने पर गोली खा ली और कुछ मुसलमान अपने कंधों पर बिठाकर पर्यटकों को सुरक्षित स्थान पर ले गए।
महाभारत के शुरू में अर्जुन भी इसी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में था और विषादग्रस्त हो गया था। उसकी आत्मा संशय से भर गई थी क्योंकि युद्ध के लिए रणभूमि में खड़ा भी हो गया था और युद्ध करना भी नहीं चाहता था। अर्जुन का सौभाग्य था कि उसके पास कृष्ण थे। अर्जुन के भावनाओं के ज्वार को कृष्ण ने संदेह से संकल्प में परिवर्तित कर दिया। ज्ञानयोग,कर्मयोग इत्यादि अनेक रास्तों से कृष्ण अर्जुन के सवालों का जवाब देते गए और अंत में अर्जुन का संदेह दूर हो गया-'नष्टो मोह:'।
दो विश्वयुद्धों के दौर में भी इसी प्रकार की भावनाओं का ज्वार पश्चिम में उठा था किंतु वहां पर कृष्ण नहीं मिले। परिणामस्वरुप सार्त्र और कामू के दर्शन के कारण अवसाद और आत्महत्याएं बढ़ गईं। जीवन की निरर्थकता के दर्शन ने भटकती-पीढ़ियों को जन्म दे दिया।
विश्व में कई युद्ध हुए जो भुला दिए गए किंतु महाभारत एक विशेष युद्ध हुआ जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता क्योंकि उसने गीता को जन्म दिया।इस साल विश्व विरासत दिवस के दिन विश्व विरासत सूची में गीता को यूनेस्को ने इसीलिए शामिल किया क्योंकि गीता संदेहग्रस्त व्यक्ति को संकल्प की ओर ले जाती है। भारतीय संस्कृति सनातन इसी अर्थ में कही जाती है कि यहां विषाद को भी योग बनाने की कला आती है। लेकिन उसके लिए अर्जुन जैसा पूछने वाला जिज्ञासु चाहिए और दूसरी तरफ कृष्ण जैसा उत्तर देने वाला निष्काम और निर्लिप्त चेतना चाहिए। गीता का सार संदेश यही है कि हाथों में शस्त्र उठाने की ताकत भी हो और मस्तिष्क में शास्त्र समझने की बुद्धि भी हो।
गीता के सार संदेश के साकार रूप है- परशुराम।परशुराम जयंती इसीलिए विशेष है कि परशुराम में ज्ञान के लिए तप और युद्ध के लिए कोप दोनों एक साथ मौजूद थे। प्रायः यह देखा जाता है कि ज्ञानी युद्ध नहीं कर सकता और युद्ध करने वाला ज्ञान में रुचि नहीं रखता किंतु परशुराम एक विलक्षण व्यक्तित्व हैं जिसमें परस्परविरोधी दोनों गुण एक साथ मौजूद हैं-
'परशु और तप ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार
क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।
तप से मनुज दिव्य बनता है, षडविकार से लड़ता है
तन की समरभूमि में लेकिन काम खड़ग ही करता है।।'
जब अहंकारी राजाओं ने धरती पर अन्याय किया तो ज्ञानी परशुराम ने अपने परशु से अनेक बार धरती को अहंकारविहीन कर दिया।
संदेश स्पष्ट है कि जीवन में शस्त्र की भी उतनी ही आवश्यकता है जितना शास्त्र की। शस्त्र इसलिए कि आतंकी जैसे कुछ लोग इसी की भाषा समझते हैं किंतु शास्त्र इसलिए कि शस्त्र कब उठाना है, किस पर उठाना है और कहां उठाना है।
राष्ट्रकवि दिनकर ने सवाल उठाया था कि दो में से क्या तुम्हें चाहिए-कलम या कि तलवार? महर्षि परशुराम और भगवद्गीता इसी प्रश्न का माकूल जवाब है कि कलम भी चाहिए और तलवार भी। कलम इसलिए कि विचारों में स्पष्टता हो और तलवार इसलिए कि खरपतवारों को जड़मूल से काटा जा सके।यदि हम अपने प्रतीकों को गहराई से समझें तो इस समय उठे हुए भावनाओं के ज्वार से अवश्यंभावी-युद्ध में संदेह छोड़कर संकल्पपूर्वक उतर भी सकते हैं और विचारपूर्वक रणनीति से विजय भी प्राप्त कर सकते हैं।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹