संवाद


'पुण्यात्माओं की कष्टपूर्ण मृत्यु क्यूं?'


मेवाड़ की गौरव डॉ.गिरिजा जी की श्रद्धांजलि सभा में एकत्रित अपार जनसमूह की आंखों में आंसू भी था और एक प्रश्न भी। आंसू मृत्यु के लिए था और प्रश्न कष्टपूर्ण तरीके से मौत के लिए।


              चैत्र नवरात्रि की पूजा करते समय दीपक की लौ से दुपट्टे में आग लग गई और परिवार के लोग आग बुझाते इसके पहले वे 90 प्रतिशत झुलस गईं।


'दिल के फफोले जल उठे सीने के दाग़ से


इस घर को आग लग गयी घर के चराग़ से'


          अहमदाबाद के सबसे बड़े हॉस्पिटल में महीनों के इलाज के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। परिजनों की पीड़ा का कोई अंत नहीं। व्यक्ति-व्यक्ति पूछ रहा है कि इस प्रकार की मृत्यु इस पुण्यात्मा को क्यूं  मिली?


                  इस प्रश्न ने मेरी आंखों की नींद उड़ा दी। अटल बिहारी बाजपेयी जैसे सर्वप्रिय नेता को भी मौत से पहले दीर्घकाल तक ऐसी स्थिति से गुजरना पड़ा कि उनका दर्शन भी नहीं कराया जा सकता था।


             प्रश्न का उत्तर जब मैंने ढूंढना शुरु किया तो पाया कि रामकृष्ण परमहंस और महर्षि रमन भी लंबे समय तक असहनीय पीड़ा देने वाले रोग कैंसर से मरे। रामकृष्ण और रमण सरीखे लोगों का जीवन परमात्मा को समर्पित रहा, फिर भी इतनी कष्टपूर्ण मृत्यु?


          गले के कैंसर के कारण रामकृष्ण परमहंस को खाना ही नहीं पानी निगलने में भी भारी कष्ट होता था। उनके शिष्यों ने उनसे अनुरोध किया कि आप एक बार काली मां से विनती करें कि आपको कैंसर के इस कष्ट से मुक्ति मिल जाए। शिष्यों के दबाव डालने पर मां काली से रामकृष्ण ने वह निवेदन किया। मां काली का जवाब था-इतने शिष्यों के मुख से खाना खाया जा रहा है,अब तू कितने मुखों से खाएगा। संदेश यह है कि कर्म फल के रास्ते में भगवान भी नहीं आते।


              रहस्यदर्शी ओशो का कहना है कि जब तक जीवन के सारे कर्मों का हिसाब-किताब नहीं हो जाए, तब तक मुक्ति संभव नहीं। जब किसी के बहुत सारे कर्मों का हिसाब-किताब बहुत कम समय में निपटाना होता है तो असहनीय पीड़ा को भोगना ही एकमात्र उपाय होता है। पीड़ा को इसी जीवन में भोगकर वह आत्मा मुक्त हो जाती है और उसे फिर से जन्म लेने की जरूरत नहीं पड़ती।


            भारतीय संस्कृति शब्द को प्रमाण मानती है। ओशो जैसे महापुरुष के ऐसे शब्द कर्मों के प्रति सजगता उत्पन्न करते हैं-


'ये हश्र है हर बशर का नेकी बदी का ऐ दिल शुमार होगा


वहां न कोई अजीज होगा , किसी का न कोई यार होगा।'


                 रामचरितमानस में बाबा तुलसीदास ने स्पष्ट रूप से कहा है-


'कर्म प्रधान विश्व रचि राखा,


जो जस करहि सो तस फल चाखा।'


             अनेक जन्मों के अनेक कर्मों के जाल से किसी आत्मा को  मुक्त कराने के लिए तीव्र पीड़ा के क्षणों को माध्यम बनाया जाता है। ओशो के जीवन में भी अनेक तूफान और झंझावात आते रहे और अंतिम वर्ष तो गहन पीड़ा के थे क्योंकि इसके बाद उन्हें पुनर्जन्म न लेना पड़े।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹