यादें घर-परिवार की
May 15, 2025🙏विश्व परिवार दिवस की शुभकामना🙏
संवाद
'यादें घर-परिवार की'
बीएसएफ जवान पूर्णम साहू पाकिस्तानी हिरासत में 20 दिन रहने के बाद घर लौटा। व्यक्ति और परिवार का रिश्ता समझने के लिए इससे ज्यादा सुंदर उदाहरण अभी ढूंढना मुश्किल है। परिवार को ऐसा लगता था कि पूर्णम की कैद के साथ उसकी जान निकल गई और कैद में पूर्णम को लगता था कि मेरी आत्मा पीछे छूट गई।
बड़े संयुक्त परिवार से लेकर एकल परिवार तक के अपने अनुभवों को जब मैं याद करता हूं तो यही पाता हूं कि जीवन निर्माण में परिवार की सबसे बड़ी भूमिका है। संस्था के रूप में संयुक्त परिवार तो बचा नहीं और एकल परिवार भी विज्ञान की तकनीकी प्रगतियों और बदलते परिवेश के कारण खतरे में है।
किंतु भावना प्रधान मानव के लिए परिवार नामक संस्था का कमजोर होना उसकी बहुत सारी समस्याओं अकेलापन,अवसाद,आत्महत्या इत्यादि के मूल में है।
परिवार के साथ रिश्ता भावनात्मक होता है,विचारात्मक नहीं।जब धरती पर बच्चा जन्म लेता है तो परिवार के प्रेम के कारण ही असहाय होकर भी वह सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है। पांच भाई बहनों के बीच में अत्यंत कम आय वाले परिवार में जन्म लेकर के भी प्रेम और ध्यान मिलने के कारण मेरा जीवन बहुत समृद्ध रहा। कई प्रकार के संबंधों के खट्टे-मीठे अनुभव के बावजूद मैं अपने परिवार ही नहीं बल्कि रिश्तेदार और मित्रों का भी बहुत ऋण महसूस करता हूं।
हृदय के गहरे अंत:स्थल से यह आवाज आती है कि मैं जो कुछ हूं,अपने परिवार के कारण हूं और मेरे जीवन की धन्यता इसी में है कि उनके लिए कुछ कर सकूं। यह देने का भाव और यह कृतज्ञता का भाव यदि अपने अंदर में अभी भी मैं महसूस कर रहा हूं तो इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मुझे परिवार से कितना मिला है और अपनों का कितना ज्यादा ऋण मेरे ऊपर है।
ऋण लौटाने के तरीके तन-मन-धन के किसी रूप में हो सकते हैं। अतः नौकरी लगने के बाद ज्यादा से ज्यादा पैसे बचाकर घर भेज देने की ऐसी तीव्र इच्छा जगती थी और उससे इतना संतोष होता था कि उसे शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है। ग्रीष्मावकाश या शीतावकाश या अन्य कोई अवकाश हो; सरकारी कार्यस्थल से घर जाने की ऐसी बेचैनी होती थी कि सूरदास के पद स्मरण हो आते थे-
'मेरो मन अनत कहां सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै॥
कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै।
परमगंग कों छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै॥
जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल खावै।
सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै॥
मेरा समय खेलने और पढ़ने में लगा रहता था,अतः घर के सदस्यों से कम बातचीत करता था। बहन कपड़ा धोती मैं पहन लेता, मां खाना बनाती मैं खा लेता और बाबूजी पैसा देते जिससे मैं खेल,पढ़ाई का खर्चा चला लेता। बाकी समय दोस्तों के साथ ही मेरा ज्यादा व्यतीत होता था। इसके कारण मुझे लगता था कि home-sickness से मैं मुक्त हूं। किंतु जब मेरी पहली नौकरी मध्य प्रदेश के सीधी जिले के सेंट्रल स्कूल में लगी और घर के बाहर जाना पड़ा तो मुझे पता चला कि घर के सदस्यों को देखे बिना तो मुझे पढ़ने में मन ही नहीं लगता, जीवन में कोई ऊर्जा ही नहीं मिलती।अपने दोस्त के भतीजे चंदन को साथ में लाया अपना मन लगाने के लिए।
फिर दूर प्रदेश में जब नौकरी लगी और शादी हुई तो धीमे-धीमे घर से आना-जाना कम हुआ।तन परदेश में होने के बावजूदअधिकांश समय मन अपने गांव-घर में ही रहता था। मां-बाप जब दूर परदेश में आते थे तो सब कुछ अपना सा लगने लगता था।
दुनिया से मां-बाप के जाने के साथ ही कुछ अनुभवों ने परिवार के प्रति मेरे दृष्टिकोण में भारी परिवर्तन ला दिया। सारी दुनिया बदल गई,सारे रिश्ते बदल गए,सारा संसार बदल गया।
तब तक अपने बच्चों की जिम्मेदारी का भार भी अपने कंधों पर आ गया। फिर एकल परिवार की जिम्मेदारियां जितनी बढ़ती गईं ,उतना ही गांव,घर,परिवार से मैं कट गया। अब जब बच्चे भी बाहर पढ़ने लगे तो जीवन में एकाकीपन का गहरा एहसास होने लगा-चल अकेला चल अकेला चल अकेला ,तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला.... की धुन दिन-रात कानों में गूंजती रहती है।
घर में दर्शनशास्त्री का संग है और दर्शन मेरा शुरुआत से ही सबसे प्रिय विषय रहा है। अब दिन रात एक ही प्रश्न उठते रहता है कि 'यह जीवन है क्या?'
अभी तक तो मैं यही समझ रहा था कि किसी के साथ होने का नाम जीवन है। बाद में संयुक्त परिवार,मां-बाप,भाई-बहन सब एक-एक कर छूट गए। जरूर कुछ नए भी आ गए। और वे नए भी अपने जीवन की यात्रा पर निकल चुके हैं। अब...
मै और मेरी तनहाई अक्सर ये बातें करते हैं,
पुराने छुटते हैं और कुछ नये मिल जाते हैं।
फिर भी बीते एहसास की कसक नहीं जाती
नई दुनिया, नहीं पता,क्यूं अपने को नहीं भाती?
जिन लोगों के साथ बचपन से बड़ा हुआ, जवानी में जिनके साथ खेला-पढ़ा.... उन सबकी यादों को यदि हटा दूं तो फिर जीवन में बचता क्या है? फिर इसके साथ ही एक दूसरा प्रश्न और खड़ा होता है-यदि उन यादों में ही खोया रहूं तो वर्तमान में जीवन क्या है? फिर मैं गहरी निराशा में डूबने लगता हूं।
तभी आशा की एक किरण दिखाई देती है कि जिस परिवार में जन्मा,पला,बढ़ा उसकी यादें भी बहुत बड़ी थाती है। एक समय में जीवन का बीज अंकुरित होता है,फैलता है,बढ़ता है ; फिर एक समय के बाद वह जीवन अपने बीज रूप में फिर से सिमटने लगता है। उन सभी को धन्यवाद कहो.....
'जो भी रहा साथ का, वो सफर अच्छा रहा
खुशी तेरी अच्छी रही , गम तेरा अच्छा रहा।'
संस्था के रूप में परिवार कितना भी खतरे में हो किंतु भाव के रूप में तो परिवार बचना ही चाहिए। भारतीय संस्कृति के ऋषि से किसी ने पूछा कि जंगल में भी आप अकेले कैसे रह लेते हैं? ऋषि का जवाब था- मैं अकेला नहीं हूं, मेरा परिवार मेरे साथ हैं-
'सत्यं माता,पिता ज्ञानं,धर्मों भ्राता,दया स्वसा
शांति:पत्नी,क्षमा पुत्र:,षडेते मम बांधवा:।'
अर्थात् सत्य मेरी माता है, ज्ञान मेरा पिता है,धर्म मेरा भाई है,दया मेरी बहन है, शांति मेरी पत्नी है,क्षमा मेरे पुत्र हैं;ये छः मेरे परिवार हैं।
आज एकल परिवार के साथ भी एकजुट समय बिता पाना दुर्लभ हो गया है,फिर संयुक्त परिवार की बात ही क्या करना! किंतु हम जैसे लोग जो बड़े संयुक्त परिवार से एकल परिवार के अकेलेपन को भी देख रहे हैं, उनके लिए भारतीय संस्कृति की ऋषि की ये बातें बहुत काम की है। बुद्धिप्रधान इस युग में भावनाप्रधान ऋषि की बातें कपोल-कल्पना लगती हैं किंतु अंतरिक्ष-परी सुनीता विलियम्स जी से पूछिए, जो नौ दिन के लिए अंतरिक्ष में गई थीं और नौ महीने तक वहां फंसी रहीं। आखिर नौ महीने का समय उन्होंने कैसे निकाला? बिना प्रेम भाव के और अपनों से मिलने की आशा के बिना यह संभव नहीं था।
क्योंकि व्यक्ति जो कुछ पाता है इसी परिवार से पाता है और जो पाता है उसको परिवार पर लूटाना भी चाहता है। जिनको लूटाने की कला नहीं आती उनको परिवार नहीं मिलता, फिर वे अपने जीवन की परिभाषा कुछ इस प्रकार लिखते हैं-
'आज वो अपने जीवन को परिभाषित करने बैठा तो
आंसू,पत्थर,दलदल,सागर जानें कितने नाम लिखे
उसको जैसा ठीक लगा था उसने वैसा काम किया
अब आगे उनकी मर्जी है चाहे जो अंजाम लिखे।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹