वाणी संवैधानिक और संयमित कैसे हो
May 16, 2025🙏जय हिंद की सेना🙏
संवाद
'वाणी संवैधानिक और संयमित कैसे हो'
सेना के शौर्य पर जब भारतीय मन राष्ट्र प्रेम में डूबा हुआ हो, उस समय धर्म और जातिसूचक कोई भी राजनीतिक बयान चिंता एवं चिंतन का विषय है। खासकर जब ऐसे बयान पर हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट भी चिंता जताने लगे तो हमें 'वचन की मर्यादा का पालन कैसे हो'-यह जानने के लिए भारतीय ज्ञान परंपरा की ओर दृष्टिपात करना चाहिए।
निर्वाण-उपनिषद में वाणी और मन को स्थिर रखने के लिए पहले यह प्रार्थना की जाती है कि-
'ओम् वाङ्गमे मनसि प्रतिष्ठिता, मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम्...
अर्थात् ओम् !मेरी वाणी मन में स्थिर हो, मन वाणी में स्थिर हो। हे स्वयंप्रकाश आत्मा! मेरे सम्मुख तुम प्रकट होओ। हे वाणी और मन! तुम दोनों मेरे वेद-ज्ञान के आधार हो, इसलिए मेरे वेदाभ्यास का नाश न करो।
हमारी संस्कृति में वाणी की देवी सरस्वती को माना गया है जो साहित्य,संगीत,कला की अधिष्ठात्री देवी है। उनके एक हाथ में पुस्तक और दूसरे हाथ में वीणा दिखाया गया है, जिसका अभिप्राय है कि पहले किसी बात के ज्ञान की अनुभूति के लिए साधना करो और फिर उसकी संगीतात्मक व कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए और कठिन साधना करो। अनुभूति और अभिव्यक्ति की इस दोहरी साधना के बाद जीवन में रस आता है-वह सरस्वती है।
हमारे संविधान निर्माताओं ने ज्ञान की अनुभूति के लिए अथक साधना की।कई देशों के संविधान को पढ़ा,लोगों के बीच जाकर उनका जीवन देखा और वास्तविक धरातल पर समस्या को देखकर आदर्शपूर्ण समाधान देने की चेष्टा की।उसके बाद संविधान सभा में उसकी साहित्यिक अभिव्यक्ति दी जिसमें शास्त्र और लोक से अनेक काव्यात्मक उदाहरण दिए जाते थे। तब जाकर संविधान बना।
ऐसे साधकों को हम अपना नेता कहते थे। नेता का अर्थ होता है-आगे ले जाने वाला। संविधान बनाने वाले नेताओं ने जाति,धर्म,क्षेत्र,लिंग किसी भी आधार पर भेदभाव स्वीकार नहीं किया। उपनिषद का ऋषि भी यही कहता है कि सबमें एक परमात्म-चेतना का अंश है, अतः चेतना में कोई भेदभाव नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो संविधान बनाने वाले नेता हमारे उपनिषद के ऋषियों के समान थे।
महान आत्माओं के त्याग,बलिदान और साधना से यह देश बना है। मन,वचन और कर्म की एकता ही महात्मा की पहचान है-
'मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।
मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ।।'
आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि मन को हिंदू,मुसलमान और अगड़ा,पिछड़ा समाज और शिक्षा के द्वारा बना दिया गया है , अतः वह तो धर्म और जाति के आधार पर गहरे में बंटा हुआ है। यही मन जब वचन में प्रकट हो जाता है तो विवाद का कारण बन जाता है। विवाद और भी बढ़ जाता है जब मन का भेदभाव अपरिष्कृत भाषा में सार्वजनिक रूप से प्रकट हो जाता है। विवाद चरम पर पहुंच जाता है जब संवैधानिक पद पर बैठे हुए किसी माननीय के द्वारा अमान्य भाषा का प्रयोग किया जाता है। अन्यथा न्यायालय को गटरछाप भाषा जैसे शब्द का प्रयोग नहीं करना पड़ता।
निर्वाण उपनिषद का ऋषि जब प्रार्थना करता है कि मेरी वाणी मन में स्थिर हो, तब उसके मन में यह शंका है कि मेरा मन अच्छा हो किंतु वाणी कहीं अशोभन न निकल जाए। जिह्वा का क्या भरोसा! कभी-कभी फिसल कर वह भी बोल जाती है, जो मन में नहीं होता। अतः सम्यक् शिक्षा के द्वारा सबसे पहले मन को 'सुमन' बनाया जाता था ,फिर परमात्मा से प्रार्थना की जाती थी कि मेरी वाणी मन में स्थिर हो।
ऋषि की दूसरी प्रार्थना है कि मेरा मन वाणी में स्थिर हो। यह पहली से भी कठिन साधना है। हम नहीं बोलते हैं ,तब भी हमारे मन में बहुत कुछ चलता रहता है। मन वाणी में स्थिर तभी होता है, जब बोलने के अतिरिक्त समय में मन नहीं रह जाए अर्थात् अ-मन। इस अमन का मतलब ही शांति होता है।
आपके मन में कुछ भी चले,वह अपराध नहीं है। किंतु हमारी संस्कृति के अनुसार पाप जरूर है। आज विवाद बढ़ा है-अपराध के कारण। यदि संवैधानिक पद पर बैठे हुए लोगों के मन से बाहर सार्वजनिक रूप से असंवैधानिक और अमर्यादित वचन नहीं निकले तो न तो वह विवाद का विषय बनेगा और न न्यायालय का।
इसीलिए बोलने के संबंध में भी संस्कृत के ऋषियों ने मार्गदर्शन दिया है-
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् ।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन: ॥
अर्थात् सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिये । प्रिय किन्तु असत्य नहीं बोलना चाहिये ; यही सनातन धर्म है।
जो ऐसी प्रार्थना करते थे और इतनी साधना करते थे,उनको हमारी संस्कृति में संसद या सभा में बैठने का अधिकार होता था। सभ्य और सभा जुड़े हुए शब्द हैं। सभ्य भाषा वाली सभा से ही वाद, विवाद के बाद संवाद की कसौटी पर खरा उतरने पर हमारे यहां निर्णय का निष्पादन और ग्रंथों का प्रणयन होता था। किंतु आज संसद में इतने असंसदीय शब्द और भाषा का प्रयोग होता है कि उसकी एक डिक्शनरी तैयार हो गई-'असंसदीय शब्दों का शब्दकोश'। जबकि संविधान सभा में संविधान निर्माण के समय शब्द और भाषा का स्तर इतना अच्छा था कि उसमें गहराई और ऊंचाई दोनों देखने को मिलती हैं।
आज देश एक बहुत ही नाजुक मोड पर खड़ा है। आतंकियों द्वारा धर्म पूछ कर निर्मम हत्या करने के पीछे मंशा यही थी कि सांप्रदायिक दंगे की आग भड़क जाएगी। किंतु शादी के चंद दिनों के बाद अपने पति की निर्मम हत्या को देखने वाली लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी हिमांशी नरवाल ने एक ऋषिका के समान कहा कि आतंकियों ने धर्म पूछ कर हमें मारा है किंतु हमें बदला मुसलमान और कश्मीरी से नहीं बल्कि घृणित और कायरतापूर्ण कर्म करने वाले से ही लेना है। हमारे रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने भी यही बात कही कि आतंकी धर्म पूछ कर मारते हैं किंतु हम कर्म को देखकर बदला लेते हैं। ऐसे महान वचनों से देश की एकता और अखंडता सुनिश्चित होती है।
बदले की आग में जल रहे देश की भावनाओं के अनुरूप आतंकियों से बदला लेने के लिए ऑपरेशन के नाम के चुनाव से लेकर ऑपरेशन को आगे बढ़ाने तक का काम इतनी बुद्धिमता और दूरदर्शिता के साथ सरकार और सेना द्वारा किया गया है कि हमें अपने राष्ट्र पर गर्व होता है। ऑपरेशन का नाम सिंदूर रखा गया जो अत्यंत भावना-प्रधान है। और उस ऑपरेशन के अंजाम की खबर देश को सुनाने के लिए दो नारियों का चयन किया गया। इतनी सटीकता और संवेदनशीलता के साथ हमारी सेना ने अपना बदला लिया है कि विश्व के लिए यह एक अनूठा उदाहरण के रूप में याद किया जाएगा।
राष्ट्र का यह सबसे कठिन यज्ञ चल रहा है। परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र के आतंकी ठिकानों पर सफलतापूर्वक हमला करके हमारी सेना ने यह दिखा दिया है कि उसका साहस कैसा है और उसकी संवेदनशीलता कितनी है। राष्ट्र की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने वाले उन सैनिकों के शौर्य और बलिदान के प्रति श्रद्धावनत इस राष्ट्र में यदि कोई भी वाणी की मर्यादा का उल्लंघन करता है और वह भी सेना के प्रति तो देश की आत्मा चोटिल होती है।
सेना में विभिन्न प्रांतो के लोग अवश्य होते हैं किंतु वे समर्पित राष्ट्र के प्रति होते हैं।मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री रामदेव दुबे मिलिट्री में थे और एक युद्ध में उनकी बटालियन से दो पंजाबी वीर शहीद हुए थे। उनकी वीरता और शहादत से वे इतने प्रभावित थे कि अपने बच्चों का पंजाबी-नाम रख दिया-सर्वजीत ,रणजीत। जबकि घर में सारे नाम देवताओं के आधार पर रखे गए थे-शिवाधार, रामदेव, जनार्दन, शिवजी, शिवाशंकर,भोलाशंकर, गिरजाभूषण, शशि भूषण,चंद्रशेखर इत्यादि। कहने का आशय यह है कि हमारी सेना एक ही धर्म जानती है-राष्ट्रधर्म और उनका एक ही देव है-राष्ट्रदेव।
अतः सेना को धर्म और जाति के चश्मे से देखना और उसकी सार्वजनिक वाचिक अभिव्यक्ति देना अशोभनीय है क्योंकि कश्मीर का सेव भी और केरल का नारियल भी एक साथ मिलकर उसके रगों में खून बनकर दौड़ता है। राष्ट्रकवि दिनकर ने यूं ही नहीं भारत को एकता का जीवित भास्वर कहा है-
'भारत नहीं स्थान का वाचक गुण विशेष नर का है
एक देश का नहीं शील यह भूमंडल भर का है
जहां कहीं एकता अखंडित और प्रेम का स्वर है
देश देश में वहां खड़ा भारत जीवित भास्वर है।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹