🙏आतंकवाद पर विश्व- समझाइश🙏


संवाद


'आतंक का विचार और अस्त्र का व्यापार'


वर्णमाला का पहला अक्षर 'अ' आज आतंक की ही याद दिलाता है। बचपन में शुरू हुई अ से अनार की यात्रा अ से आतंकवाद तक पहुंच गई है। अस्त्रविक्रेता देश इसके मूल में है और उसमें अमेरिका सबसे प्रमुख है। आतंकवाद का सबसे ज्यादा शिकार भारत हुआ है क्योंकि उसका पड़ोसी देश पाकिस्तान आतंकवाद का मूल स्थान है।


              आतंकवाद के खिलाफ भारत की नीति को अमेरिका सहित विश्व के सारे देशों और संस्थाओं को बताने के लिए भारतीय प्रतिनिधिमंडल जा रहा है। यह स्वागत योग्य सराहनीय कदम है। क्योंकि आतंकवादी ठिकानों पर हमला करने से आतंकी मरे हैं, आतंकवाद नहीं। आतंकवाद एक विचारधारा है और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ कहती है कि विचार को विचार से ही काटा जा सकता है-


'काश्मीर की कराह को आज तक सुन नहीं जो पाए


नए सिरे से सजकर हम फिर से फरियाद सुनाने आए।'


'अ' से अध्यात्मवाद भी होता है जो यह मानता है कि परमात्मा का ही अंश सारी आत्माओं में विद्यमान है। उस एक परमात्मा को अलग-अलग नाम दिए गए हैं और उस तक पहुंचने के अलग-अलग रास्ते बनाए गए हैं। उन रास्तों को संप्रदाय/मजहब/पंथ कहा जाता है। जो अध्यात्मवाद के विचार पर चला उसने सबके मंगल की कामना की-'सर्वे भवंतु सुखिन:'। लेकिन जो आतंकवाद के रास्ते पर चला उसने दूसरे का तो अमंगल किया ही अपना भी अमंगल कर बैठा है।


                जब देश का कोई राष्ट्राध्यक्ष (जिन्ना)) और सैन्याध्यक्ष (मुनीर) जब यह विचार रखते हैं कि हिंदू और मुस्लिम दो विचारधारा है और परस्परविरोधी है जो कभी भी एक साथ नहीं रह सकते। यह मूल रूप से और प्रामाणिक रूप से गलत है। ऑपरेशन सिंदूर के द्वारा कर्नल सोफिया और विंग कमांडर व्योमिका सिंह के माध्यम से भारत ने  यही संदेश दिया है कि हम साथ रह भी सकते हैं और आगे बढ़ भी सकते हैं। आज भारत के मुसलमान किसी भी अन्य मुस्लिम देश के मुसलमान की अपेक्षा ज्यादा स्वतंत्र और सुरक्षित हैं, इसका मूल कारण यह है कि भारत विकास के रास्ते पर हैं,पाकिस्तान की तरह विनाश के रास्ते पर नहीं।


            यहां विचारणीय विषय यह है कि इन मुट्ठी भर संप्रदायवादियों और आतंकवादियों को शक्ति कहां से मिली? इनको शक्ति मिली अस्त्र-विक्रेता अमेरिका जैसे देश से। वैज्ञानिक प्रतिभाओं का प्रयोग करके अमेरिका ने काफी अस्त्र-शस्त्र बनाए,यहां तक की एटम बम भी बना लिया। और द्वितीय विश्व युद्ध में हिरोशिमा,नागासाकी पर उसका प्रयोग भी कर दिया। किंतु प्रयोग करते ही यह पता चल गया कि जिस तरह से सेकंडों में हिरोशिमा खत्म हो सकता है,उसी तरह से पूरा विश्व भी खत्म हो सकता है। परमाणु शक्ति संपन्न देशों की संख्या बढ़ती गई और उसके साथ सर्वविनाश की आशंका के कारण परमाणु बम का प्रयोग करना भी असंभव सा हो गया। अब यह तो सिर्फ डराने के लिए हैं, प्रयोग करने के लिए नहीं क्योंकि इसमें प्रयोग करने वाला भी विनाश को प्राप्त होगा।


            एटम बम के बनते ही द्वितीय विश्व युद्ध के समय बनाए गए अन्य अस्त्र-शस्त्र का जखीरा बड़े देशों के काम का नहीं रहा। उन अस्त्र-शस्त्रों को नष्ट कर देना था किंतु व्यापार की बुद्धि वाले अमेरिका जैसे देशों ने गरीब और अशिक्षित देशों में इनका व्यापार करना शुरू किया। जब एक देश के पास अस्त्र-शस्त्र ज्यादा हो गया तो पड़ोसी देश भयभीत होकर अस्त्र-शस्त्र की जरूरत में पड़ गया। अब यह अस्त्र-शस्त्र देश के पास ही नहीं,आतंकवादी और नक्सलवादी संगठनों तक पहुंच चुके हैं जो व्यक्तिगत रूप से निर्दोष नागरिकों पर इनका प्रयोग करके अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करने का काम करते हैं।


              आतंकवाद की घटना विश्व के किसी भी एक स्थान पर होती है और पूरे विश्व में उसकी खबर फैल जाती है। उस आतंकी का नाम और उस संगठन का नाम पुरा विश्व जान जाता है। उसे धर्म के नाम पर कट्टरवादियों का समर्थन भी हासिल हो जाता है।


             लेकिन यहां विचारणीय विषय है कि नाम किस रुप में जाना जाता है-देव रूप में या दानव रुप में। देव रूप में जीने वाले लोगों के पास सुकून,शांति और समृद्धि है। दानव रुप में जीने वाले आतंकवादियों की जिंदगी कुत्ते के समान होती हैं और मौत तो कुत्ते से भी बदतर होती हैं और मरने के बाद अब तो अंतिम संस्कार के लिए शरीर भी नसीब नहीं होता। उनसे संबंधित धर्म, देश और संगठन सभी घृणा के पात्र बन जाते हैं।


            आतंकवादियों ने धर्म के रूप में इस्लाम को और देश के रूप में पाकिस्तान को इतना कलंकित किया है कि विश्व समुदाय इसके विरोध में खड़ा ही नहीं बल्कि एकजुट भी होने लगा है। मुट्ठी भर आतंकवादियों के कारण सारे मुस्लिम और सारे पाकिस्तानी आतंकी नहीं हो जाते लेकिन इसी प्रकार की छवि बन रही है।


           दूसरी तरफ हिंदू सनातन धर्म समन्वयवाद का ऐसा प्रतीक बनकर उभर रहा है कि विश्व के भविष्य के लिए एक आशा का केंद्र बनता जा रहा है। इसके पीछे मूल कारण यह है कि सनातन धर्म में उदारतावादी बहुसंख्यक भी है और मुखर भी है। उनकी मौलिक सोच कितना विराट और व्यापक है , यह इस बात से पता चलता है कि मुस्लिम आतंकवादियों द्वारा धर्म पूछकर मारे जाने पर भी हिंदू वीरवधूओं ने सिर्फ आतंकियों से बदला लेने की बात की, उनके धर्म से नहीं। भारत के रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने भी बदला लेने की बात कर्म के आधार पर किया,धर्म के आधार पर नहीं।


               सनातन धर्मावलंबी भारत ने बदला लेने में जितना शौर्य और संवेदनशीलता का परिचय दिया है, उतना ही साहस और निर्भीकता के साथ विश्व के सामने प्रश्न खड़ा किया है कि क्या आतंकवादी देश पाकिस्तान को आईएमएफ जैसी वैश्विक संस्था से वित्तीय सहयोग मिलना चाहिए? और किसी अन्य देश से उसे सैन्य-उपकरण का या अन्य किसी प्रकार का सहयोग मिलना चाहिए??


             मुझे लगता है कि भारत के पराक्रम की संवेदनशीलता और प्रश्न की प्रासंगिकता इतनी बड़ी है कि अमेरिका,चीन जैसे बड़े देश और आईएमएफ जैसी बड़ी संस्था सहित पूरा विश्व  समुचित उत्तर नहीं दे पाएंगे। क्योंकि पहलगाम जैसी निर्मम हत्या के बाद भी आतंकवादियों के जनाजे में पाकिस्तान के राष्ट्रपति और सैन्य प्रमुख श्रद्धा सुमन चढ़ाते हैं और विश्व उन तस्वीरों को देखकर भी अनदेखा कर रहा है और चीन तो खुलकर पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा है; तो भारत के प्रश्नों का सामना करने का साहस कैसे जुटा पाएंगे?


              यदि सारे विश्व के बुद्धिजीवी और पत्रकार भारत के विचारपक्ष को और आतंकवाद को दिए जाने वाले अस्त्र-शस्त्र का सहयोग तथा वित्तीय व वैचारिक सहयोग के प्रश्न को प्रमुखता और प्रमाणिकता के साथ इस समय उठाएं तो आतंकवाद के विचार को  जड़मूल से उखाड़ा जा सकता है। क्योंकि


'जड़ से यदि नहीं कटा तो यह वृक्ष फिर उग आएगा


आतंकवाद का समूल नाश ही सबको बचा पाएगा।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹