🙏पहलगाम घटना की खबर इसी समय मिली थी तब से एक माह हो गए। 22 अप्रैल का दर्द आंखों में ऐसा बस गया कि सोते जागते बस उसी की याद। 22 अप्रैल से 22 मई के बीच बहुत कुछ हो गया है। क्षणमात्र में जन्नत के एहसास में डूबे हुए पर्यटकों को जहन्नुम की याद दिला दी गई। उस दर्द को भुलाया नहीं जा सकता किंतु दर्द में ही जीवन बिताया नहीं जा सकता। दर्द की दवा तो ढूंढनी ही पड़ेगी....🙏


संवाद


'कश्मीर के जन्नत होने की यादें'


कश्मीर का मतलब आज कराह और आह है, जबकि कभी कश्मीर का मतलब वाह-वाह था।किशोरावस्था में 'कश्मीर की कली' फिल्म की चर्चा और उसकी झलक मात्र से दिल वाह-वाह कर उठता था। बहारों को भी नाज जिस फूल पर था,वही फूल हमने चुना गुलसितां से..... इस फिल्म के गाने में नायक के द्वारा नायिका के लिए जो बात कही जा रही है, वही कश्मीर के लिए पर्यटकों के हृदय से निकलती थी-धरती को भी नाज जिस जमीं पर था,वही जमीं हम चूम कर आए हैं।


          कश्मीर की बाह्यप्रकृति का सौंदर्य देखकर कोई भी अपना दिल दे बैठे। देवभूमि हिमालय में जाकर 1995 में जब वहां की खूबसूरती देखी तो कश्मीर की हूक दिल में उठी कि धरती के जन्नत में भी कभी चला जाए। किंतु जन्नत की जो खबरें आती थीं वो जहन्नुम की याद दिलाती थीं। कश्मीरी पंडितों का जातीय नरसंहार,हिंदुओं का पलायन और आतंकवादियों की आतंकी वारदातें सुनकर रूह कांप जाती थी। फिर एक प्रश्न दिलो-दिमाग में गूंजने लगा कि बाह्यप्रकृति इतनी सुंदर तो अंत:प्रकृति इतनी कुरूप कैसे हो सकती है? दिल देने वाली नगरी में जान लेने वाली प्रवृत्ति कैसे और क्यों पनप  गई?


              तब मुझे ओशो का ध्यान आया जो कश्मीर के पहलगाम में महर्षि महेश योगी के निमंत्रण पर मिलने गए थे और कश्मीर में महावीर पर अद्भुत प्रवचन दिए थे जिनका संकलन 'महावीर मेरी दृष्टि में' पुस्तक के रूप में हुआ।उस पुस्तक में महावीर के अनेकांतवाद को इतने सूक्ष्म और सरस रूप से व्याख्यायित किया था कि लगा कि इस धरती के कण-कण में अनेकांतवाद का बीज समा गया है। अनेकांतवाद या स्यादवाद की यही मान्यता है कि किसी भी पहलू के अनेक आयाम होते हैं और उन सारे आयामों का ध्यान अभिव्यक्ति के समय रखा जाना चाहिए। उदाहरण के लिए जिस कश्मीर को आतंकवादियों के नाम से पहचाना जाने लगा है,उसी कश्मीर में ज्ञानियों और सूफियों की भावधारा का भी बीज रहा हैं।किंतु उस बीज को उपजाऊ धरती नहीं मिली और उसको माली नहीं मिला। ओशो को तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल्ला द्वारा आश्रम खोलने की अनुमति नहीं दी गई। काश!वो अनुमति मिली होती तो हो सकता था कि अनेकांतवाद का बीज वहां अंकुरित होता और पल्लवित-पुष्पित भी होता।


              कश्मीर के पड़ोस पाकिस्तान में आतंकवाद के खरपतवार उग आए। खरपतवार के बीज को काफी मेहनत से खाद-पानी दिया गया। मदरसे के मालियों ने मजहब के नाम पर फूलों को जहरीला बना दिया।खून से सने कश्मीर से अच्छी आत्माएं या तो भगा दी गईं या जगह छोड़कर स्वयं ही अन्यत्र चली गईं। वहां की वादियों में केसर की खुशबू से ज्यादा मारी गई आत्माओं की कराहें और बची-खुची आत्माओं की आहें पसर गईं।


                 सरकार द्वारा किए गए बाहरी प्रयास के साथ एक सामंजस्य बढ़ाने वाली आंतरिक शिक्षा का परिवेश बनाना भी जरूरी था। घर छोड़कर चले गए कश्मीरी हिंदुओं को बसाए बिना और उनके जख्मी दिलों को मरहम लगाए बिना कश्मीर खुशहाल नहीं हो सकता।


'हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते'-इस विचार को घोषित करने वाले जिन्ना और इसको बढ़ाने वाले मुनीर के सामने में भारत की विविधता में एकता वाली आत्मा को विश्व के सामने सम्यक रूप से लाना जरूरी है।


                 पहलगाम के नृशंस कृत्य के द्वारा आतंकियों ने कश्मीर की आत्मा को लहूलुहान करने के साथ कश्मीरियों के पेट पर लात मारी है। इस घटना के विरोध में सारे कश्मीरी सड़कों पर आ गए हैं। आतंकी ठिकानों पर सटीकता और संवेदनशीलता के साथ भारतीय सेना के द्वारा ऑपरेशन सिंदूर के अंतर्गत की गई जवाबी कार्रवाई करने के बाद पाकिस्तान द्वारा रिहायशी इलाकों पर और निर्दोष नागरिकों पर कायराना हमला किया गया। इससे वहां के जनमानस में पाकिस्तान के विरुद्ध एक घृणा का भाव घर कर गया है। उन्हें यह दिखाई पड़ रहा है कि एक तरफ भारत में शिक्षा और स्वतंत्रता के परिवेश के कारण कर्नल सोफिया किस ऊंचाई पर पहुंच जाती हैं तो दूसरी तरफ पाकिस्तान में मलाला युसूफजई को पढ़ाई के लिए आतंकियों की गोली खानी पड़ती हैं।


                इस परिवर्तित चित्त दशा में पहलगाम की घटना का विरोध करना ही पर्याप्त नहीं होगा बल्कि अब कश्मीरियों को बढ़कर पलायन कर गए हिंदुओं को वापस लाने की मुहिम चलानी होगी तभी कश्मीर जन्नत की राह पर कदम बढ़ा सकता है। इसमें बहुत बड़ी भूमिका सभी संप्रदायों के धार्मिक प्रवृत्ति वाले उदार आत्माओं की हो सकती हैं। मेरा मानना है कि राम,कृष्ण,मुहम्मद,ईसा,गुरु नानक


जैसी आत्माएं सारी जमीं को जन्नत बनाने की कोशिश की थीं, उन महान आत्माओं के प्रतिनिधि आज भी किसी न किसी रूप में पृथ्वी पर कहीं न कहीं विद्यमान हैं। उन महान आत्माओं की उपस्थिति और सक्रियता को कश्मीर में बढ़ाया जा सके तो कश्मीर को अपने जन्नत होने के आत्मस्वरूप का बोध हो सकता है। मेरे हृदय के भाव मेरे इन शब्दों में कुछ कहना चाह रहे हैं-


'महफूमें सदाकत की अनुभूति होगी


लबों से हलाहल लगाकर तो देखो।


फिज़ा में हर सिम्त खुशबू है उसकी


खिड़कियों को जरा खुलाकर तो देखो।'


अमरनाथ यात्रा शुरू होने को है। भगवान शंकर ने विश्व के कल्याण के लिए जिस प्रकार से विषपान किया था, आज के हालात में हर संप्रदाय की शिव-आत्माओं को कश्मीर की जमीं में बचे हुए हलाहल को भारत-कल्याण तथा जगत-कल्याण के लिए पीने का साहस दिखाना पड़ेगा। क्योंकि भारतीय ज्ञान परंपरा कहती हैं-


अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्।


अमृतं राहवे मृत्युर्विषं शंकर भूषणम्॥


अर्थात् समुद्रमंथन के बाद राहु के लिए अमृत की प्राप्ति तो मौत बन गयी लेकिन लोककल्याण के लिए उद्यत शंकर के लिए विष का प्राशन कंठ का आभूषण बन गया।


                परस्पर विरोधी तत्वों के साथ जीने की कला के कारण शंकर देव से महादेव बनकर अमर हो गए। अमरनाथ की गुफा में उन्होंने मां पार्वती को अमरता के रहस्य को बताया था। परस्पर विरोधी और वैविध्य तत्वों के बीच एकता बिठाना भी अमरता का रहस्य है।वह विविधता में एकता जब तक साकार रूप नहीं लेती तब तक सिर्फ शब्दों से कश्मीर विश्व को स्थायी पैगाम नहीं दे सकता।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹