अभय के बिना न्याय कहां!
May 26, 2025🙏न्यायमूर्ति अभय की सेवानिवृत्ति🙏
संवाद
'अभय के बिना न्याय कहां!'
'अभय में ही आत्मा का जन्म होता है'-यह भारतीय ज्ञान परंपरा का उद्घोष है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस ओक के बारे में जब यह सुना कि न्यायाधीश के रूप में उनके अनेक निर्णयों से संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के साथ नागरिक अधिकारों की रक्षा का एक प्रतिमान स्थापित हुआ है तो उनके बारे में जिज्ञासा बढ़ती गई। जिज्ञासा जगने पर जब उनके जीवन के बारे में पढ़ा तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ऐसे आत्मवान व्यक्ति का नाम 'अभय' होना सार्थक भी है और सफल-सुफल भी।
आत्मवान कहने का मेरा मतलब यहां यह है कि हर व्यक्ति के अंदर एक अंतरात्मा की आवाज होती है जो सत्यनिष्ठ होती है, लेकिन उसको अपने वचन में और कर्म में अभिव्यक्त वही कर पाता है जो किसी भी प्रकार के भय और प्रलोभन से मुक्त होता है और जिसकी परवरिश स्वतंत्रता के वातावरण में हुई होती है। 'सेवानिवृत्ति के बाद किसी सरकारी पद को ग्रहण नहीं करूंगा' की घोषणा करके इस न्यायमूर्ति ने पदों की अंतहीन दौड़ में लगने वाली आत्माओं को एक विशेष संदेश दिया है।ऋषि वचन है-
'सत्येन रक्ष्यते धर्मो, कुलं वृत्तेन रक्ष्यते'
अर्थात् धर्म की रक्षा सत्य से होती है और कुल की रक्षा व्यवहार से होती है।
सत्य-व्यवहार जब विलुप्त होने लगे तो जस्टिस अभय जैसे व्यक्तित्व का मनोवैज्ञानिक अध्ययन गहराई से किया जाना चाहिए। किसी शायर के शब्दों में आत्मवान होने का मतलब है-
'टोक देता है कदम जब भी गलत उठता है,
ऐसा लगता है कि कोई मुझसे बड़ा है मुझमें।
अब तो ले दे के वही शख्स बचा है मुझमें,
मुझको मुझसे जुदा करके जो छुपा है मुझमें।।'
आज के जमाने में जब बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोग भय और प्रलोभन के कारण आत्मा की आवाज को सुनने से डरते हैं,ऐसे जमाने में जस्टिस अभय अंतरात्मा की आवाज को सिर्फ सुनते ही नहीं बल्कि बेहिचक सुनाते भी हैं।
गत बुधवार को एक कार्यक्रम में वकीलों ने उनसे पूछा था कि आप रिटायरमेंट के बाद क्या करेंगे? उन्होंने कहा था कि रिटायरमेंट के बाद मैं मां को समय दूंगा क्योंकि अभी तक व्यस्तता के कारण मां को पर्याप्त समय नहीं दे पाया हूं।'-
'मंजिल पाने के लिए दिन रात मैं खूब दौड़ता गया
गौर से देखा तो असली मंजिल 'मां' से दूर होता गया।'
किंतु विधाता को कुछ और मंजूर था। गुरुवार को उनकी मां का निधन हो गया। मां के पार्थिव शरीर को मुखाग्नि देने वे दिल्ली से मुंबई गए और चंद घंटे के बाद ही वे दिल्ली लौटकर शुक्रवार को अपने अंतिम कार्य दिवस के दिन 11 फैसले सुनाए। कर्तव्यनिष्ठा की वेदी पर अपने मां के प्रति उमड़ रहे भावनाओं को जज्ब करके उन्होंने अपनी मां को एक अद्भुत श्रद्धांजलि दी। मां के प्रति संवेदना और कर्त्तव्य के प्रति समर्पण का भाव जो जस्टिस अभय में देखा गया, वह मुझे मूल्यविहीन इस अंधकारपूर्ण युग में एक आशा की किरण लगी।
साहस और संवेदनशीलता के धनी जस्टिस अभय महोदय ने अपने विदाई भाषण में सुप्रीम कोर्ट की कमियों को भी सबके सामने लाने में संकोच नहीं किया।
उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश-केंद्रित" कामकाज की आलोचना की और एक अधिक लोकतांत्रिक प्रशासनिक दृष्टिकोण की वकालत की। न्यायालयों के प्रति सामान्य लोगों की धारणा से वे अवगत थे। किसी कवि के शब्दों में-
'अदालतें तो हैं मगर इंसाफ तार-तार हैं
गुजर गई है पीढ़ियां पर बाकी इंतजार हैं।'
तभी गहरी आत्मचेतना दिखाते हुए उन्होंने कई बार स्वीकार किया कि न्याय वितरण में देरी से न्यायपालिका में आम लोगों का विश्वास कम हो रहा है।
यही कारण था कि उनके निर्णयों में संवेदनशीलता, शीघ्रता और सटीकता का अद्भुत सामंजस्य दिखा।
उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि पर्यावरण की कीमत पर विकास को स्वीकार नहीं किया जा सकता।कोविड-19 महामारी के दौरान, उन्होंने प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए और टीकाकरण के समय में विकलांगों को प्राथमिकता देने के लिए कई आदेश दिए।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति वे इतने संजीदा थे कि उन्होंने कहा कि "अगर हर आलोचना को अपराध के रूप में देखा जाएगा, तो लोकतंत्र नहीं बचेगा।"
धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को उन्होंने कभी भी स्वीकार नहीं किया और उनके निर्णयों ने स्पष्ट किया कि सत्य बहुसंख्यक का मोहताज नहीं होता।
देश की शीर्ष संस्थाओं द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग किए जाने पर उन्होंने सिर्फ कड़ी टिप्पणी नहीं की बल्कि कठोर निर्णय भी दिए। 'जेल अपवाद होना चाहिए और बेल सामान्य प्रक्रिया' की घोषणा करके वे 'जनता के जज' बन गए थे।
उनकी विनम्रता ऐसी थी कि 2016 में घरेलू हिंसा अधिनियम से संबंधित अपने एक फैसले में हुई गलती को उन्होंने स्वीकार किया और उनकी निष्पक्षता ऐसी थी कि वे संविधान और अपनी आत्मा के ऊपर किसी को नहीं रखते थे।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता के इस जमाने में अक्ल तो बढ़ती जा रहा है किंतु आत्मा सिकुड़ती जा रही है-
'अक्ल बारीक हुई जाती है
रूह तारीक हुई जाती है।'
किंतु अक्ल की तीक्ष्णता और आत्मा की विराटता जैसे दुर्लभ गुण जस्टिस अभय में एक साथ मौजूद थे, जिसके कारण एक प्रेरणापुंज के रूप में उनका सेवाकाल अविस्मरणीय हो गया है।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹