पर्यावरणसंरक्षणवृत्ति बनाम युद्धप्रवृत्ति
June 4, 2025🙏5 जून विश्व पर्यावरण दिवस🙏
संवाद
'पर्यावरणसंरक्षणवृत्ति बनाम युद्धप्रवृत्ति'
भारत युवाओं का देश है, अतः जोश से भरे हुए युवा सीजफायर को पचा नहीं पा रहे हैं। अखंड भारत का सपना देखनेवाले पीओके (POK)का सपना तो तुरंत पूरा होते हुए देखने लगे थे। किंतु युद्ध को गहराई से समझने वाले होश से भरे लोग अपने अनुभव के आधार पर युद्ध टलने से काफी राहत महसूस कर रहे हैं।
युद्ध के बाद पर्यावरण और जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को कोई भी गहराई और समग्रता से देख ले तो कभी भी युद्ध के पक्ष में खड़ा नहीं हो सकता।
राष्ट्रकवि दिनकर ने 'कुरुक्षेत्र' नामक खंडकाव्य में इस बात का गहराई से विश्लेषण किया है कि युद्ध से क्या हासिल होता है। युद्ध टालने के हर संभव प्रयास किए गए भगवान कृष्ण के द्वारा फिर भी महाभारत हुआ किंतु जीत के बाद धर्मराज युधिष्ठिर को गहरा विषाद हो रहा है। यह विषाद महाभारत युद्ध के शुरू में होने वाले अर्जुन के विषाद से भी कहीं ज्यादा गहरा और व्यापक विषाद है। यदि अर्जुन के विषाद से गीता का जन्म हो सकता है तो युधिष्ठिर के विषाद से महागीता का जन्म हो सकता है।
कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने जो जनहानि और विनाश देखा, उससे वैयक्तिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से उसका जीवन बदल गया। एक कठोर सम्राट करुणापूर्ण बन गया और धम्म-नीति के रास्ते पर स्वयं को तथा अपने पुत्र-पुत्री को भी लगा दिया।
ऐसी बातें अधिकांश लोगों को किताबी और कल्पनापूर्ण लगती है क्योंकि इतिहास हमें सिर्फ जीतने वाले शासकों को पढ़ाया गया है, कभी शांति के साथ रहने वाले शासकों का इतिहास भी लिखा जाए तो कई धर्म-अशोक पैदा हो सकते हैं।
युद्ध में होने वाली जनहानि और धनहानि की गणना तो की जाती हैं किंतु कितने पशु-पंक्षी मरे, कितने पेड़-पौधे जले और कितनी सूक्ष्म प्रजातियां नष्ट हो गईं इस पर तो किसी का ध्यान नहीं जाता। पर्यावरण प्रदूषण और जलवायु संकट के कारण होने वाली मौतें युद्ध से होने वाली मौतों से भी ज्यादा है। जब हम सिर्फ युद्ध लड़ते रहेंगे या युद्ध की तैयारी करते रहेंगे तो कभी भी हमारा जीवन पर्यावरण के अनुकूल नहीं हो सकता। पर्यावरण विरोधी जीवन के कारण उत्पन्न होने वाले जलवायु संकट पर जब स्वीडन की छोटी बच्ची ग्रेटा थुनबर्ग यह प्रश्न उठाती है कि इस पीढ़ी को कैसा जीवन दिया गया जिसमें न पीने को शुद्ध पानी है और न श्वास लेने को शुद्ध हवा ; तब इसका सही जवाब बड़े-बड़े राष्ट्राध्यक्षों के पास भी नहीं मिलता।
भारतीय ज्ञान परंपरा में 'पर्यावरण' शब्द नहीं मिलता है किंतु "प्रकृति" शब्द है। भारतीय संस्कृति में प्रकृति को सिर्फ 'नेचर' के अर्थ में नहीं लिया गया है बल्कि आंतरिक-प्रकृति और बाह्य-प्रकृति की समग्रता के रूप में लिया गया है।
पश्चिम के 'पर्यावरण' शब्द से हमारा मतलब पानी,हवा, पृथ्वी,आकाश का ही होता है अर्थात् जो हमारे चारों तरफ हैं।इसलिए जल प्रदूषण,वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण इत्यादि की चर्चा बहुत होती है। किंतु मानसिक प्रदूषण या आंतरिक विकृति जो इन सबके मूल में है,उस पर पर्याप्त ध्यान नहीं जाता।
अथर्ववेद कहता है कि युद्ध मनुष्य के मन में उत्पन्न होता है। इसलिए हमारे ऋषियों ने एक अखंड मन तैयार करने वाली प्रार्थना की क्योंकि लड़ने के लिए खंड मन जरूरी होता है, चाहे वह खंड राष्ट्र के नाम पर हो या धर्म के नाम पर। ऋषियों द्वारा कहा गया कि आकाश हमारा पिता है,धरती हमारी माता हैं, जल,वायु सभी हमारे देव हैं। ईशावास्योपनिषद् की स्पष्ट घोषणा है कि
'ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।'
अर्थात् जड़-चेतन प्राणियों वाली यह सृष्टि सर्वत्र परमात्मा से व्याप्त है। इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करें, किंतु किसी भी चीज के प्रति लोभ की दृष्टि न रखें।
किसी शायर ने संस्कृत ऋषियों की बात को ही अपने अंदाज में स्वीकार किया-
'आग है,पानी है,मिट्टी है,हवा है मुझमें
फिर मानना पड़ता है कि खुदा है मुझमें।'
विज्ञान भी इस बात को मानता है कि हमारे चारों ओर जो जल,हवा,धरती और आकाश हैं यदि प्रदूषित हो गया तो मानव का अस्तित्व नहीं बच सकेगा। किंतु संस्कृत के ग्रंथों में मानव के अस्तित्व के साथ जीव ही नहीं जड़ के अस्तित्व की बात भी की गई है। जीव में पेड़-पौधे,पशु-पंक्षी,चर-अचर के साथ मिट्टी,वनस्पति सभी आते हैं।
किसी विचारक का कथन बहुत गौर करने लायक है कि मनुष्य एक पागल प्रजाति है जो अदृश्य देवता की पूजा करता है और दृश्य प्रकृति को नष्ट करता है।
आज विज्ञान के आविष्कारों ने एटम बम,उद्जन बम जैसे खतरनाक अस्त्र-शस्त्र तैयार कर लिए हैं। इससे पूरी पृथ्वी को कई बार नष्ट किया जा सकता है। उसमें घास-पात से लेकर चर-अचर सभी प्राणी नष्ट हो जाएंगे।
आज युद्ध का स्वरूप पूर्णतया बदल गया है। पुराने युद्ध का अनुभव और अभी के चल रहे युद्ध का अनुभव हम गौर से देखें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कूटनीति की असफलता और अहंकार की अधिकता का परिणाम युद्ध है और उससे कोई समाधान नहीं मिलता।प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी हारा और कुछ बरसों में इतना ताकतवर बनकर उभरा कि हिटलर के नेतृत्व में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पूरे संसार के लिए संकट खड़ा कर दिया।वियतनाम जैसे छोटे देश से अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश को बरसों के युद्ध के दौरान अपने 60 हजार सैनिकों की कुर्बानी देने के बाद हारी हुई स्थिति में वापस लौटना पड़ा। रूस जैसा बड़ा देश यूक्रेन जैसे छोटे देश को भी 3 सालों में नहीं जीत सका है और यूक्रेन द्वारा ताजा हमले के बाद रूस द्वारा परमाणु युद्ध शुरू किए जाने का खतरा मंडरा रहा है।
अधिकांश देश के समस्त संसाधन का 70% रक्षा उपकरणों पर खर्च हो रहा है ; सिर्फ राजनेता के अहंकार के कारण। सैन्य- उपकरणों के खर्च के कारण शिक्षा,स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकताएं नजरअंदाज की जा रही हैं।
विज्ञान का उपयोग राजनीति ने विनाश के लिए ज्यादा किया। राजनीतिक शक्ति के ऊपर जब तक आध्यात्मिक शांति का अंकुश नहीं होगा तब तक युद्धोन्मादी प्रजा और राजा युद्ध का राग अलापते रहेंगे। किंतु भारत युद्ध नहीं बुद्ध का समर्थक रहा है। पाशविक प्रवृत्ति युद्ध के मूल में है, आध्यात्मिक प्रवृत्ति के जागरण के बिना बुद्ध के शांति मार्ग पर आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
महात्मा बुद्ध के समय में रोहिणी नदी के किनारे दोनों शाक्य और कोलिय वंश की सेनाएं लड़ने को खड़ी थीं। बुद्ध उधर से गुजरे तो दोनों राजाओं ने उनके सामने झुक कर उनको प्रणाम किया। बुद्ध ने पूछा कि राजन्! सेनाएं क्यों खड़ी हैं? उत्तर मिला- युद्ध के लिए। बुद्ध ने पूछा युद्ध का कारण क्या है? उत्तर मिला-पानी के लिए। बुद्ध ने कहा-जल तो जीवन है, यह जीवन लेने का कारण कैसे बन सकता है? तब बात सामने आई कि गर्मी के दिनों में रोहिणी नदी में पानी कम होने के कारण कौन पानी पहले लेगा इस बात पर लड़ाई हो रही थी। बुद्ध ने कहा कि लड़ाई का कारण अहंकार है,जल नहीं। दोनों राजाओं को समझ में आई कि जल के कारण नहीं बल्कि अहंकार के कारण मन युद्ध के लिए तैयार हो गया था।दोनों ने अपनी सेनाएं वापस कर लीं।
अमेरिका द्वारा 1945 में हिरोशिमा-नागासाकी पर एटम बम गिराए जाने के कारण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान ने युद्ध की विभीषिका को महसूस करते हुए एक शांतिपूर्ण राष्ट्र बनने का निर्णय लिया और सैन्य-आक्रामकता से दूरी बना ली। आत्मरक्षार्थ सेना वह रखता है किंतु अपनी शक्ति और संसाधन अपने विकास में लगाता है, न की युद्ध की तैयारी में। यदि समस्त राष्ट्र जापान से सबक लेकर हथियारों की दौड़ खत्म कर पर्यावरण संरक्षण और जलवायु संकट के समाधान के लिए अपनी शक्ति और संसाधन लगाएं तो पर्यावरण दिवस का आयोजन सार्थक हो सकता है।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹